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'रामचरितमानस विवाद के पीछे है राजनीतिक मंशा, दलितों-पिछड़ों के वोट बैंक पर है नज़र'

रामचरितमानस पर राजनीति अखिलेश यादव नहीं कर रहे हैं,  ये तो समाजवादी पार्टी के एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्य कर रहे हैं. उन्होंने रामचरितमानस पर विवादित बयान दिया है. उनके बयान के पहले बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने बयान दिया था कि रामचरितमानस नफरत फैलाता है और महिलाओं को शिक्षा से दूर करता है. वे तेजस्वी यादव के करीब माने जाते हैं.

जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिश

उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान को मैं उसकी अगली कड़ी के रूप में देखता हूं. बड़ी बात ये है कि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति मुख्य तौर से जाति और धर्म पर आधारित रही है. इन राज्यों में जाति और धर्म की राजनीति 1990 के दशक से ही चल रही है. 1989 से पहले न यहां जाति की राजनीति थी न धर्म की राजनीति थी. रामचरितमानस विवाद के जड़ में राजनीतिक मंशा छिपी हुई है. राजनीति में नेता जो बोलते हैं, उससे वो अपनी छवि भी बनाते हैं और जिस समुदाय का वो प्रतिनिधित्व करते हैं उस समुदाय के प्रति वे अपनी चिंता भी जाहिर करते हैं.  ये एक दूसरी बात है कि समुदाय के जो वास्तविक सवाल हैं, उन पर ज्यादा बात नहीं होती. जैसे अगर पिछड़ा समुदाय की बात करें, तो वहां रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या है, लेकिन इन पर बात नहीं होती है. बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म की राजनीति प्रमुख हो चुकी है.

मायावती का घट गया है कद

इस बात पर गौर कीजिए कि मायावती अब राजनीतिक परिदृश्य में कहीं नहीं हैं. उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 403 सीटें हैं और मायावती को पिछली बार के चुनाव में सिर्फ एक सीट मिली थी. इनसे ज्यादा तो अपना दल के सोनेलाल को सीट मिली थी. मायावती लंबे समय तक दलितों की नेता रही हैं, अभी भी है और वे प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री भी रहीं हैं. फिलहाल उनके कहे हुए का बहुत कोई राजनीतिक अर्थ भी नहीं है, लेकिन चूंकि वो बसपा की प्रमुख हैं और हमेशा प्रमुख बनी रहेंगी भले हीं उनकी पार्टी की प्रदेश में और संसद में सीटें कम क्यों नहीं हो जाए.

मायावती को सपा से है खतरा

कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव की नजर सूबे के दलित वोट बैंक पर है. यूपी में अभी सबसे प्रमुख पार्टी बीजेपी है, दूसरे नंबर पर सपा है. चूंकि पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कुछ अच्छी सीटें हासिल की थी. उसे 100 से ज्यादा सीटें मिलीं थी. इससे मायावती को लगता है कि उनका मुकाबला बीजेपी से नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी से है. मुख्य रूप से ये सब जो मुद्दे हैं वो वास्तविक मुद्दे से भटकाने के लिए है. न तो मायावती को दलितों की चिंता है और पूरी तरह से न किसी और को. अगर इन लोगों को दलितों की चिंता होती तो दलितों के साथ जो अत्याचार किया जा रहा है वो नहीं हो रहा होता. कोई भी पार्टी चाहे वो समाजवादी पार्टी हो या कोई और, अभी की जो स्थिति है, वे एक दूसरे के दल में सेंधमारी कर रहे हैं या ये कह सकते हैं कि वे दूसरे समुदाय के वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं.

हर जाति को लुभाने की कोशिश

मायावती ने भी तो एक समय में ब्राह्मणों को मिलाकर ही शासन किया था. हालांकि अभी वो स्थिति नहीं कि एम कॉम्बिनेशन लगेगा कि वाई कॉम्बिनेशन लगेगा. अब ऐसी कोई बात नहीं है. कहने के लिए ठीक है कि कोई दलित नेता है, तो कोई पिछड़ों का. क्या जो पिछड़े वर्ग में आते हैं, वे बीजेपो को वोट नहीं देते हैं. अब राजनीति उस तरह की नहीं रही कि किसी के लिए सॉलिड वोट बैंक शब्द का इस्तेमाल किया जा सके. अगर किसी पार्टी के लिए ये है भी तो वो अब सिर्फ बीजेपी है. पहले मायावती के पास दलित वोटबैंक हुआ करता था, कुछ ब्राह्मण भी समर्थन करते थे. लेकिन अब नहीं करते हैं.  

बीजेपी की राजनीति की वजह से हिन्दू वोट बैंक का ध्रुवीकरण हो गया है. जहां तक आगामी लोकसभा चुनाव की बात है तो दिल्ली समेत जो 10 हिंदी पट्टी के राज्य हैं, उन सबको मिलाकर 200 से अधिक सीटें हैं. उत्तर प्रदेश में ही 80 सीटें हैं. बीजेपी को 2014 में उनमें से 190 सीटें सिर्फ हिंदी बेल्ट की मिली थीं और बाकी जगहों से 92 सांसद मिलें. ठीक वहीं बात 2019 के चुनाव में भी रही. उनके 303 सांसद बने, जिसमें से 172 या 173 सांसद हिंदी बेल्ट के थे. इन सब बातों का ख्याल करते हुए हर पार्टी अपने-अपने कॉम्बिनेशन को बदलने में जुटी है. सियासी समीकरणों को देखते हुए हर नेता अब मंदिर जा रहे हैं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

 

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