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तीसरी बार नेपाल का पीएम बने 'प्रचंड' का पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुनने का है सामरिक महत्व

नेपाल का तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद आखिरकार पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ का भारत आने का कार्यक्रम तय हो गया है. प्रचंड 26 दिसंबर 2022 को नेपाल के तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे. पांच महीने के बाद उनकी भारत यात्रा का आधिकारिक ऐलान कर दिया गया है. तीसरी बार पीएम बनने के बाद प्रचंड की ये पहली विदेश यात्रा होगी.

नेपाल के प्रधानमंत्री 'प्रचंड' 31 मई को आएंगे भारत

पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' 31 मई को भारत आएंगे. उनकी यात्रा 4 दिनों की होगी. इस दौरान वे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता भी करेंगे. नेपाली पीएम का ये दौरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर हो रहा है. उनके साथ एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी होगा. वे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से भी मिलेंगे. इस दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री उज्जैन और इंदौर भी जाएंगे.

विदेश मंत्रालय ने कहा है कि नेपाल के प्रधानमंत्री प्रचंड की यात्रा भारत के ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति को आगे बढ़ाता है. ये यात्रा भारत और नेपाल के बीच नियमित रूप से विचारों के आदान-प्रदान की परंपरा को जारी रखती है. विदेश मंत्रालय ने भरोसा जताया है कि इस यात्रा से दोनों देशों के बीच की साझेदारी को बढ़ाने में मदद मिलेगी.

तीसरी बार पीएम बनने के बाद पहली विदेश यात्रा

कहने को तो नेपाल बहुत ही छोटा देश है, लेकिन नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' का ये दौरा सामरिक नजरिए से बेहद अहम है. प्रचंड जिस हालात में दिसंबर में नेपाल के प्रधानमंत्री बनते हैं और उसके बाद वहां जो भी राजनीतिक घटनाक्रम होता है, उसे देखते हुए भी इस यात्रा का महत्व बढ़ जाता है.

प्रचंड बेहद ही नाटकीय अंदाज में तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे. नेपाल में पिछले साल 20 नवंबर को आम चुनाव हुआ था. चुनाव नतीजों में शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस 89 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. वहीं प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर)  को 32 सीटें मिली थी. विरोधी खेमे में रहे केपी शर्मा ओली की CPN-UML को 78 सीटें मिली. नतीजों के बाद ऐसा लग रहा था कि नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन प्रचंड ने पूरा खेल ही पलट दिया था.

नाटकीय अंदाज में पिछले साल पीएम बने थे प्रचंड

पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' ने देउबा को प्रधानमंत्री बनने के लिए समर्थन देने से इंकार कर दिया. वे खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, इसलिए देउबा से उन्हें समर्थन करने को कहा. नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ने ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद प्रचंड ने चुनाव में विरोधी रहे केपी शर्मा ओली से हाथ मिला लिया. ओली प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हो गए और इसके जरिए ओली की CPN-UML प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर) के साथ सत्ता में  शामिल हो गई.

तीन सबसे बड़ी पार्टियों में सबसे कम सीटें लाने के बावजूद प्रचंड सियासी दांव-पेंच से प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो गए थे. दिलचस्प बात ये थी कि जिसके साथ मिलकर प्रचंड चुनाव लड़े थे, बाद में वहीं विरोधी हो गया और जिसके खिलाफ चुनाव लड़े थे, उसके ही समर्थन से प्रधानमंत्री बन बैठे थे.

विश्वास मत पर विपक्ष का भी मिला था साथ

इससे भी बड़ा खेल तो इस साल 10 जनवरी को हो गया था. 'प्रचंड'  प्रतिनिधि सभा में  बहुमत साबित करने के लिए विश्वास मत लाए थे. बहुमत के लिए उन्हें 275 सदस्यीय सदन में 138 वोटों की जरुरत थी. प्रतिनिधि सभा में मौजूद 270 में से 268 सदस्यों ने पीएम प्रचंड के समर्थन में मतदान किया.  सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष के भी लगभग सभी सदस्यों ने प्रचंड के समर्थन में वोटिंग की. सिर्फ दो ही सदस्यों ने प्रचंड के खिलाफ वोट किया.  सभी सियासी अटकलों के विपरीत शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस के सारे सदस्यों ने भी विश्वास मत का समर्थन कर दिया.

उसके बाद मार्च में नेपाल में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होता है. इसमें नेपाली कांग्रेस के रामचंद्र पौडेल ने केपी शर्मा ओली की पार्टी CPN-UML के उम्मीदवार सुबासचंद्र नेमवांग को हराया और नेपाल के नए राष्ट्रपति बने. प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर)  ने इस चुनाव में रामचंद्र पौडेल का ही समर्थन किया. इस चुनाव के बाद साफ हो गया कि जनवरी में वहां की संसद में शेर बहादुर देउबा की पार्टी नेपाली कांग्रेस ने क्यों प्रचंड के विश्वास मत के समर्थन में वोट किया था.

'प्रचंड' का चीन के प्रति रहा है झुकाव

पिछले कुछ महीनों से आंतरिक राजनीति के लिहाज से नेपाल में उथल-पुथल का दौर रहा है. अब जब नेपाल इस दौर से निकल गया, तो न सिर्फ नेपाल बल्कि भारत और क्षेत्रीय नजरिए से भी एक सवाल बार-बार उठ रहा था. ये सवाल था कि तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद पुष्प कमल दहल प्रचंड अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए क्या भारत की बजाय चीन को तरजीह देंगे. प्रचंड का शुरू से चीन के प्रति झुकाव ज्यादा रहा है. वहीं नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा का नजरिया भारत के प्रति ज्यादा सकारात्मक रहा है.

2008 में भारत की बजाय चीन गए थे प्रचंड

यहीं वजह है कि जब 2008 में प्रचंड पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने परंपरा को तोड़ते हुए अपने पहले विदेश दौरे के लिए भारत की बजाय चीन को चुना था. उससे पहले करीब 5 दशकों में नेपाल के जो भी प्रधानमंत्री बनते थे, पहले विदेशी दौरे के लिए उनकी पसंद भारत ही हुआ करता था. हालांकि अगस्त 2016 में जब प्रचंड दूसरी बार पीएम बने तो उन्होंने पहले विदेशी दौरे के लिए भारत को ही चुना.

नेपाल में जो भी राजनीतिक घटनाक्रम पिछले कुछ महीनों से जारी था, उसमें ये भी कहा जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद शेर बहादुर देउबा की बजाय प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के पीछे चीन की दखलंदाजी का भी बहुत बड़ा हाथ था. नेपाल में जो पिछले साल आम चुनाव हुए उसमें भारत से सीमा विवाद को भी प्रमुख मुद्दा बनाया गया था.

भारत के साथ सीमा विवाद को तूल

प्रधानमंत्री बनने के अगले ही दिन 27 दिसंबर को पुष्प कमल दहल प्रचंड ने कहा था कि वे पुरानी बातों को भूलकर भविष्य में भारत से रिश्ते सुधारना चाहते हैं. इस बयान के कुछ दिन बाद ही 9 जनवरी को प्रचंड की अगुवाई वाली सत्ताधारी गठबंधन ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम जारी किया. इस दस्तावेज में कुछ ऐसा कहा गया, जिनसे भारत के साथ रिश्तों पर असर पड़ सकता है. इसमें प्रचंड सरकार ने लिम्पियाधुरा, कालापानी  और लिपुलेख के क्षेत्रों को भारत से वापस लाने का वादा किया. नेपाल दावा करता है कि भारत ने इन इलाकों पर अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है.

सबसे बड़ी बात ये थी कि प्रचंड सरकार ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में भारत के साथ सीमा विवाद का तो जिक्र कर दिया था, लेकिन चीन के साथ नेपाल के सीमा विवाद पर इस दस्तावेज में चुप्पी साध ली गई. इससे अनुमान लगाया जाने लगा कि भविष्य में पुष्प कमल दहल चीन के प्रति ज्यादा सकारात्मक रुख अपना सकते हैं. जनवरी में कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में सीमा विवाद को जगह देने के बाद कई अटकलें लगाई जा रही थी. इसके बाद दोनों देशों के बीच के सीमा विवाद को फिर से तूल मिल गया था.

लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख को लेकर विवाद

लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को लेकर भारत-नेपाल के बीच विवाद रहा है. 2019 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारत के साथ इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की. उन्होंने लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को भारत के नक्शे में दिखाए जाने पर एतराज जताते हुए  कूटनीतिक तरीके से इस मुद्दे को भारत के सामने उठाया था. भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मई 2020 में उत्तराखंड में धारचुला से चीन की सीमा लिपुलेख तक एक सड़क का उद्घाटन किया था. उस वक्त नेपाल ने दावा किया था कि सड़क उसके क्षेत्र से होकर गुजरी है. ये इलाका भारतीय सीमा के अंदर आता है.

बाद में मई 2020 में नेपाल की ओली सरकार ने नेपाल का नया नक्शा जारी किया, जिसमें लिम्पियाधुरा, कालापानी, और लिपुलेख के क्षेत्रों को नेपाल की सीमा के भीतर दिखाया गया. भारत की सीमा में आने वाले 400 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को नेपाल के नक्शे में दिखाया गया और इस नक्शे को नेपाल की संसद से भी मंजूरी दिलाई गई. नक्शा विवाद के बाद भारत-नेपाल के रिश्ते अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गया था. ब्रिटिश शासन के दौरान ही कालापानी क्षेत्र में 1816 में ही सीमाएं तय हो गई थी. भारत-नेपाल 1850 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करते हैं. पांच राज्यों सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दोनों राज्यों की सीमाएं लगती हैं.

जुलाई 2021 में ओली की जगह शेर बहादुर देउबा के प्रधानमंत्री बनने के बाद फिर से भारत-नेपाल के रिश्तों में सुधार दिखना शुरू हुआ था. लेकिन जब इस साल जनवरी में नेपाल की नई प्रचंड सरकार  ने देश की जनता से  इन इलाकों को भारत से वापस लाने का वादा किया तो ऐसा लगने लगा कि इन मुद्दों से अब दोनों देशों के संबंधों पर ज्यादा असर पड़ेगा. भारत के साथ रिश्तों को सुलझाने को लेकर नेपाल के नए पीएम प्रचंड कितने संजीदे हैं, इसको लेकर भी सवाल उठने लगे थे.

पीएम मोदी के निमंत्रण पर आ रहे हैं भारत

लेकिन अब नेपाल का तीसरी बार पीएम बनने के बाद प्रचंड की पहली विदेश यात्रा का ऐलान हो चुका है. प्रचंड ने चीन की बजाय पुरानी परंपरा को कायम रखते हुए इसके लिए भारत को ही चुना है. गौर करने वाली बात है कि प्रचंड की ये यात्रा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर हो रही है.

भारत ने हमेशा ही नेपाल के साथ दोस्ताना रिश्ता रखा है. चीन की भौगोलिक स्थिति और आक्रामक रवैये को देखते हुए नेपाल भारत के लिए सामरिक नजरिए से हमेशा से ही महत्वपूर्ण रहा है. भारत हमेशा ही नेपाल के लिए  बड़े भाई की भूमिका में रहा है. भारत 1950 के बाद से ही हर संकट में नेपाल के लिए मदद का हाथ बढ़ाते रहा है.

सामरिक नजरिए से नेपाल महत्वपूर्ण

अप्रैल और मई 2015 को आए जबरदस्त भूकंप से हुई तबाही से निपटने के लिए भारत ने नेपाल को आर्थिक के साथ साथ मानवीय मदद भी की थी. भारत ने उस वक्त करीब 67 मिलियन डॉलर की आर्थिक मदद की थी. भूकंप की तबाही के बाद फिर से निर्माण कार्यों के लिए भारत ने एक अरब डॉलर की मदद की घोषणा की थी, जिसमें अनुदान और बहुत ही कम ब्याज पर कर्ज दोनों शामिल थे. नेपाल के लिए भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार भी है. नेपाल का दो तिहाई से भी ज्यादा विदेशी व्यापार भारत के साथ है. नेपाल एक लैंडलॉक्ड देश है, जो तीन ओर से भारत से घिरा है. ऊर्जा जरूरतों और खाद्यान्न के लिए नेपाल भारत पर बहुत ज्यादा आश्रित है.

जिस तरह से पिछले कुछ महीनों में भारत के साथ सीमा विवाद पर नेपाल में कमोबेश सभी पार्टियों का रवैया रहा है, उसको देखते हुए ये कहा जा रहा था कि प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल इस मुद्दे को ज्यादा तवज्जो देंगे, जो भारत-नेपाल रिश्ते के नजरिए से सही नहीं है.

नेपाल में चीन बढ़ा रहा है प्रभाव

नेपाल में पिछले कुछ सालों से चीन की सक्रियता और भागीदारी तेजी से बढ़ रही थी. चीन वहां के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी बढ़ाने में जुटा है. नवंबर-दिसंबर 2022 में तो चीन, नेपाल की आंतरिक राजनीति में भी हस्तक्षेप करता नजर आया था.

घरेलू राजनीति के साथ ही चीन, नेपाल में विकास परियोजनाओं, पर्यटन, व्यापार जैसे दूसरे क्षेत्रों में भी पिछले कुछ सालों से अपना प्रभाव बढ़ाने में सक्रिय है. चीन की कंपनियां नेपाल के बुनियादी ढांचे से जुड़े प्रोजेक्ट में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. ये काम चीन वहां की सरकार के साथ करार के जरिए कर रहा है. इसके लिए चीनी कंपनियां प्रोजेक्ट के लिए कम बोली लगाने का भी तिकड़म भिड़ा रही हैं. चीन वहां के एयरपोर्ट के विकास में भी बहुत रुचि ले रहा है. साथ ही नेपाल में सुरंग बनाने और अहम मार्गों पर सड़कों से जुड़े प्रोजेक्ट में भी चीनी कंपनियां सक्रिय हैं. नेपाल 2017 में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल हो चुका है. इसके तहत भी कई प्रोजेक्ट में चीन की कंपनियां वहां काम कर रही हैं.

चीन चाहता है कि नेपाल की राजनीति में हमेशा हमेशा के लिए वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों का दबदबा बन जाए. इसके लिए ही चीन के अधिकारी बड़े पैमाने पर लगातार नेपाल का दौरा करते आए हैं. चीन नेपाल की अर्थव्यवस्था, डिप्लोमेसी और राजनीति तीनों में ही अपना प्रभाव बढ़ा रहा है और ये भारत के लिए चिंता की बात है. जिस तरह से चीन, नेपाल में अपनी गतिविधियां और हर क्षेत्र में दखल बढ़ा रहा है, विदेशी मामलों के जानकार इसे नेपाल की संप्रभुता के लिए भी खतरा बताते रहे हैं.

भारत और नेपाल के बीच सांस्कृतिक जुड़ाव

भारत और नेपाल के बीच ऐतिहासिक तौर से सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है और ये द्विपक्षीय संबंध का मुख्य आधार भी है. दोनों पड़ोसियों के बीच का संबंध इतने अच्छे रहे हैं कि इसके लिए 'रोटी-बेटी का रिश्ता' जैसे मुहावरे इस्तेमाल किए जाते रहे हैं.

अब पीएम प्रचंड की चीन की बजाय भारत को पहली विदेशी यात्रा के लिए तवज्जो देने से एक उम्मीद बनी है कि भारत और नेपाल के बीच का संबंध एक बार फिर से पहले ही जैसा हो जाएगा. इसके साथ ही नेपाल में चीन के बढ़ते दखलअंदाजी और प्रभाव को रोकने के लिए भी भारत को अपनी विदेश नीति के हिसाब से कदम उठाने की जरूरत है. प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड के साथ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वार्ता के दौरान द्विपक्षीय संबंधों को फिर से पुराने पटरी पर लाने पर ज़ोर रहने की उम्मीद है.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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