मोरबी के कातिलों को क्या मिल पायेगी कभी सजा?
मोरबी पुल हादसे के दोषियों के ख़िलाफ़ पुलिस ने गिरफ्तारी की कार्रवाई तो शुरु कर दी है लेकिन जो एफआईआर दर्ज हुई है,उसमें फिलहाल न तो ओरेवा कंपनी के मालिक और न ही उसके सीईओ को नामजद अभियुक्त बनाया गया है. इसलिये सवाल उठ रहा है कि असली कातिल क़ानून के शिकंजे में आएंगे और ये भी कि क्या उन्हें कभी सजा मिल पायेगी?
वह इसलिये की पुलिस ने गैर इरादतन हत्या की धारा के तहत मामला दर्ज किया है और ऐसे अपराधों का इतिहास बताता है कि सबूतों के अभाव में अक्सर ताकतवर अपराधी बच निकलते हैं और जुर्म का सारा ठीकरा छोटे कारिंदों के सिर फोड़ दिया जाता है.
इसे राजनीतिक सांठगांठ कहें या कुछ और लेकिन प्रथम दृष्टया तो यही लगता है कि पुलिस ने मामला ही इतना कमजोर बनाया है,जिसमें असली कातिल अपने बचने का रास्ता निकाल ही लेंगे. इसलिये सवाल उठता है कि किसी की लापरवाही के चलते अपनी जान गंवाने वाले इन डेढ़ सौ मासूम लोगों के परिवारों को इंसाफ़ कैसे मिलेगा और उन्हें ये दिलाने में लिये लंबी कानूनी लड़ाई आखिर कौन लड़ेगा?
हर हादसे के बाद उस पर सियासत होना कोई नई बात नहीं है,इसलिये मोरबी की इस दुर्घटना पर भी अगर विपक्षी दल असली दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के लिए हायतौबा मचा रहे हैं,तो इस पर किसी को ऐतराज भला क्यों होना चाहिए. विपक्ष औऱ मीडिया का तो जनता के प्रति पहला फ़र्ज़ ही ये है कि सरकार जिस बात को दबाना-छुपाना चाहती है, उसे हर सूरत में उजागर किया जाये. इतने बडे हादसे के गुनहगारों को बचाने की किसी भी स्तर से कोई भी कोशिश अगर होती है,तो उसका भी पर्दाफाश होना चाहिए.
मोरबी पुल पर हुए इस हादसे की एक बड़ी वजह कहीं न कहीं भ्रष्टाचार से भी जुड़ी है. बड़ा सवाल ये है कि घड़ियां और बिजली के उपकरण बनाने वाली जिस कंपनी के पास पुल की मरम्मत या रखरखाव करने का कोई अनुभव ही नहीं है,उसे इसका ठेका आखिर क्यों दिया गया?
जाहिर है कि इसमें राजनीतिक प्रश्रय के अलावा नगरपालिका के भ्रष्ट अफसरों की मिलीभगत भी रही होगी. लेकिन ऐसे किसी भी अफसर के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं होने से सरकार की नीयत पर सवाल तो उठेंगे ही. होना तो ये चाहिए था कि इस हादसे के तुरंत बाद पुल का ठेका देने से जुड़े तमाम अफसरों को सस्पेंड करके सरकार ये संदेश देती कि वह इस मामले में किसी को भी नहीं बख्शने वाली है.
न तो मोरबी नगरपालिका ने और न ही राज्य सरकार ने अभी तक इसका कोई जवाब दिया है कि झूलते हुए पुल पर ऐसे किसी हादसे की स्थिति में बचाव के पर्याप्त उपाय क्यों नहीं थे? इसके लिए सिर्फ प्राइवेट कंपनी को दोषी ठहराकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती.
अगर ये मान भी लिया जाये कि फिटनेस सर्टिफिकेट मिले बगैर ही कंपनी ने 26 अक्टूबर को इसे आम लोगों के लिए खोल दिया था,तो ये कैसे संभव है कि इन पांच दिनों में स्थानीय पुलिस-प्रशासन को इसकी भनक ही न लगी हो. जाहिर है कि इस अवधि में नगरपालिका या लोकल पुलिस ने पुल पर जाकर उसका इंस्पेक्शन करने की कोई ज़हमत नहीं उठाई.
लिहाजा, इस हादसे के लिए जितनी दोषी निजी कंपनी है,उतना ही दोषी मोरबी का प्रशासन और लोकल थाने का एसएचओ भी है, जिसके ख़िलाफ़ भी समान कार्रवाई होनी चाहिये. हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल की तरफ से हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेने संबंधी कोई बयान नहीं आया है. लेकिन बीजेपी नेता और गुजरात के पूर्व डिप्टी सीएम नितिन पटेल ने एबीपी न्यूज से बातचीत में स्वीकार किया कि मोरबी पुल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी सरकार की है.
उन्होंने कहा कि ये जिम्मेदारी हमारी है, क्योंकि राज्य में हमारी सरकार है. जिले का प्रशासन हमारा है, कलेक्टर हमारा है और म्युनिसिपालिटी भी जिले के प्रशासन के अंतर्गत ही आती है. उन्होंने कहा, दीवाली के बाद पुल शुरू होने के बाद लोग वहां जा रहे थे, ये कोई छिपी हुई बात नहीं है, बावजूद इसके किसी ने कोई सुध क्यों नहीं ली. उनका ये बयान राज्य सरकार के तमाम दावों को झूठा साबित करते हुए उसकी पोल खोलने के लिए पर्याप्त है. मौजूदा राजनीति में इतनी नैतिक ईमानदारी होना भी बड़ी बात है.
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