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पति को गला दबाकर नहीं कह सकते साथ रहना होगा, शरीयत काउंसिल जैसी संस्थाएं निष्पक्ष होती तो क्यों बनता कानून

मद्रास हाईकोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की तलाक प्रक्रिया 'खुला' को लेकर स्वागत योग्य फैसला सुनाया है. हाईकोर्ट ने कहा कि मुस्लिम महिलाएं इसके लिए फैमिली कोर्ट जा सकती हैं. वे शरीयत जैसे निजी संस्थाओं में जाने के लिए बाध्य नहीं हैं. कोर्ट ने साफतौर पर ये कहा है कि शरीयत जैसी निजी संस्था 'खुला' के जरिए शादी खत्म करने की ना तो घोषणा कर सकती है और ना ही इसे प्रमाणित कर सकती है.

देखिए ऐसा है कि 'खुला' में कुरान शरीफ में मर्दों को तलाक का हक है और तलाक बहुत मुश्किल है. जो शरीयत कहती है वो तलाक बहुत मुश्किल है. जब तक सही बात नहीं पता चले दोनों पक्षों की, सच्चाई पता ना चले और जिसमें गवाह ना हों, वो तलाक कुरान के कानून के खिलाफ होता है. इसलिए पहले तलाक का बेस जो होना चाहिए, वो लाइट ऑफ कुरान होना चाहिए. ईमानदार गवाह होने चाहिए. 

इसी तरह से खुला का भी बेस कुरान के कानून के हिसाब से सही वजह, सही कारण होना चाहिए कि किस वजह से खुला ले रही हैं, और अब जब हमारे देश में मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम बना हुआ है, तो जब ये कानून बन चुका है मुस्लिम महिलाओं के लिए तो मैं समझती हूं कि इसमें दोनों पक्षों को, हमारे शरीयत में अगर दारुलकजा में अगर उन दोनों की बात को नहीं सुना जाए तो जरूर जो मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम, फैमिली कोर्ट में इस आधार पर दोनों पक्षों को जरूर सुन लिया जाना चाहिए. ताकि किसी के साथ अन्याय ना हो.  

ना महिला के साथ अन्याय हो, ना पुरुष के साथ. ना पति के साथ अन्याय हो ना पत्नी के साथ. दोनों जरूर हों. विवाह एक पवित्र बंधन है. एक-दूसरे के ऊपर बंधक बनकर नहीं रह सकते. ये बिल्कुल सही है. एक दूसरे से आप जबरदस्ती बंध कर नहीं रह सकते हैं. लेकिन आप जायज वजह बता कर आप जरूर एक दूसरे से ये बंधन, ये एग्रीमेंट जो हमारा निकाह है. कुरान के कानून में जो निकाह है, एक एग्रीमेंट है. एक मुहायदा है. और दोनों की शर्तें और गवाह और ईमानदारी के साथ निष्पक्ष हो करके जो निकाह होता है. उसी तरह तलाक और खुला भी निष्पक्ष होकर ईमानदार गवाहों के साथ, कारण सही बताकर खुला या तलाक होना चाहिए. 

शरीयत कानून नहीं निष्पक्ष

शरीयत का कानून जो अबतक आता था, वो निष्पक्ष नहीं होता था. दोनों पक्षों को सुना नहीं जाता था. और एक पक्ष जो लिख देता था. तो उसको मान लिया जाता था. इसलिए शरीयत में भी अब कई जगहों पर लोग दोनों पक्षों को सुनने की कोशिश करते हैं. और जो दोनों पक्षों को सुनेंगे नहीं ईमानदारी से, फिर फैसला नहीं होगा. इसीलिए दारुजकजा को कुरान पाक में दोनों पक्षों के लिए काजी को कहा गया है कि आप ईमानदार होकर, निष्पक्ष होकर दोनों पक्षों को सुनें. और गवाह ईमानदार होने चाहिए, तब फैसला होना चाहिए. यही हमारे देश की अदालतों का भी काम है. यही फैमिली कोर्ट का भी काम है. 

फैमिली कोर्ट में भी दोनों पक्षों को सुना जाता है और मौका दिया जाता है. ताकि दोनों घर जल्दबाजी में टूटने ना पाएं, जिससे परिवार टूट जाए और बाद में पछताना पड़े और बच्चों का नुकसान हो. इसलिए दोनों पक्षों को सुनना जरूरी है.


नियम के आधार हो फैसला, न टूटे परिवार

चाहे शरीयत कानून हो, चाहे देश का कानून हो. चाहे मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम बना हो, चाहे फैमिली कोर्ट हो. ये सब का कर्तव्य भी है और नियम भी है और वो अपने नियम-अधिनियम के आधार पर ही फैसला करें. दोनों पक्षों को सुनें, किसी के साथ अन्याय ना हो, परिवार बिना वजह ना टूटे, जल्दबाजी में ना टूटे. ये तो फैमिली कोर्ट हो चाहे शरीयत काउंसिल उसको शर्तों को मानना चाहिए. जो शरीयत को नहीं मान रहा, चाहे फैमिली कोर्ट हो या न्यायालय हो. तो ये कहीं ना कहीं किसी ना किसी के आधिकारों का हनन होगा और अन्याय होगा. जल्दबाजी में कोई फैसला ना हो. 

दोनों पक्षों को सुनें और दोनों पक्षों में जबरदस्ती भी ना हो. कि जबरदस्ती चाहे पति को आप उसका गला दबाकर कि हमें रहना ही है या पति को खर्चा देना ही पडे़गा, गुजारा भत्ता देना ही पड़ेगा. क्या वजह है अगर पति मजबूर है. उसकी आर्थिक स्थिति सही नहीं है तो बहुत ज्यादा अन्याय हो जाता है. इसलिए न्यायालय है उस पर हम लोगों को भरोसा होता है. और शरीयत दोनों पक्षों को सुन नहीं पाती. आजकल जो चल रहा है शरीयत दोनों पक्षों को सुनें. और ईमानदारी के हिसाब से गवाहों के हिसाब से. किसी के साथ अन्याय ना हो इस तरह का फैसला दे. 

जब मुस्लिम महिला सुरक्षा अधिनियम बना तो शरीयत काउंसिल का क्या काम?

जब मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम बन चुका है. तो शरीयत का अब इतना महत्व नहीं है. शरीयत ने यदि पहले ही ये काम किया होता तो तलाक का कानून ही नहीं बनता. तलाक ना कानून बनता. ना तीन तलाक जो फोन, व्हाट्सअप, ईमेल पर हो जाते थे. गुस्से में, नींद में, नशे में वो ये सब जो होते थे, जो प्रथा चल गई थी. तो इसलिए इन सब चीजों को तोड़ करके तीन तलाक को बैन किया गया है. अब तलाक देने का तरीका वैसे ही होना चाहिए कि आप कोर्ट में अपनी अप्लीकेशन डालें. हम तलाक लेना चाह रहे हैं तो किन वजहों से. हम खुला लेना चाह रहे हैं तो किन वजहों से. हमको ये शरीयत में, कुरानपाक ने, इस्लाम ने अधिकार दिया है. 

हमको भारत के संविधान ने भी अधिकार दिया है कि यदि हमारा वैवाहिक जीवन सुरक्षित नहीं है और हमारा खर्चा पूरा नहीं हो रहा है. हमारा वैवाहिक जीवन खतरे में है या हमारी जान को खतरा है. हमको न्याय नहीं मिल रहा है. वो कारण बताएं और सत्यता के आधार पर बताएं. ये ना हो कि बदले की भावना हो, गुस्से की भावना हो, धोखाधड़ी हो. ये सारे तथ्य जानने के बाद ही हमारी अदालतें मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम है. इसमें कहीं ना कहीं बहुत सारी कमियां हैं. जो 2019 में कानून बना है, उसमें बहुत सारी कमियां भी हैं. मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा अधिनियम कानून में भी है. इसमें पति को जेल भेजने का जो प्रावधान है, वो नहीं होना चाहिए. क्योंकि फिर मां अपने बेटे की शादी करने से पहले 100 बार सोचेंगी कि कहीं हमारे बेटे के साथ कोई धोखा तो नहीं हो जाएगा. 

महिलाओं का पक्ष भी जरूरी

तो बहुत सारी भूल महिलाओं से भी हों सकती हैं. हम महिलाओं का पक्ष लें जरूर, लेकिन न्यायप्रिय तरीके से. न्याय निष्पक्ष तरीके से हम महिलाओं का पक्ष लें. बहुत सी महिलाएं या उनका परिवार कभी-कभी पुरुषों के साथ, या पति पक्ष के साथ या उनके परिवार के साथ बदले की भावना कर लेता है. या पति के परिवार वाले पत्नी के घरवालों के साथ में हस्तक्षेप करके बहुत सारे अन्याय हो जाता है. जो धोखाधड़ी हो जाती है. कभी-कभी दोनों परिवारों में धोखाधड़ी या बदले की भावना होती है. तो बहुत सारी चीजें हैं. बुराईयां पति में भी हो सकती हैं, पत्नी में भी हो सकती हैं. लेकिन उसके लिए हमारी अदालते हैं हमारा कानून हैं. जो अदालतों में हैं उनको चाहिए कि वो निष्पक्ष होकर फैसला दें. 

शरीयत पर क्यों नहीं विश्वास?

होना चाहिए था, जो नहीं हुआ. हमारी देश में आर्बिटरी कोर्ट बना हुआ है. जैसे बड़ी कंपनियां होती हैं, संस्थाएं होती हैं. उनमें एक आर्बिटरी कोर्ट बनता है ताकि वो अपने अंदर ही बनाए हुए नियमों के तहत चलें. लेकिन जब वो संगठन या कंपनी या शरीयत न्याय नहीं दे रही हैं, तो भारत की अदालतें वहां जाते हैं. शरीयत कोर्ट बनना कोई गैर-कानूनी काम नहीं है, इसकी वैधता है. वैधता तभी है जब वो न्यायपूर्ण तरीके से काम करें. अगर किसी के साथ बदले की भावना हो, एकपक्षीय फैसला हो. दोनों पक्षों को सुना ना जाए, तो ये न्याय नहीं हुआ. फिर अधिकार बनता है कि पीड़ित अदालतों के पास जाए. 

अगर वो न्याय प्रिय तरीके से न्याय नहीं दे रहे हैं और दोनों पक्षों में से किसी एक का सुनते हैं, पीड़ित पक्ष न्याय से वंचित है तो फिर उस फैसले को हम कंडेम कर सकते हैं. हम न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे, फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आलेख शाइस्ता अम्बर से बातचीत पर आधारित है.]

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