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Opinion: 'दिल वालों' की नहीं रही दिल्ली, अब घर से निकलने में भी लगता है डर

दिल से दिलों को मिलाने वाला शहर. दूसरों की मदद के लिए हाथ बढ़ाने वाला शहर है दिल्ली. सिर्फ भारत की ही नहीं दिल वालों की राजधानी है दिल्ली…. किताबों और कहानियों में दिल्ली को बहुत ही खास दर्जा मिला हुआ है. पर असलियत तो  इसके बिल्कुल विपरीत है. दिल्‍ली अब क्राइम की राजधानी बनती चली जा रही है, असुरक्षित बनती जा रही है खासतौर पर महिलाओं के लिए. 

जाहिर है आप में से कुछ लोग मेरी इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे और कुछ लोग नहीं. हम चाहे दिल्ली को अपना घर मानें, शान मानें या फिर गुरूर मानें लेकिन कुछ सच्चाई ऐसी होती है जो बेहद कड़वी होती है. तो आज बात दिल्ली की..पिछले एक दशक में दिल्ली कितनी बदली? क्या दिल्ली महिलाओं के लिए अब सुरक्षित है?

घर से निकलने में लगता है डर

मैं दिल्ली में पैदा हुई और दिल्ली में ही पली-बढ़ी हूं. दिल्ली-एनसीआर में नौकरी करती हूं. शायद दिल्ली का हर पहलू जानती हूं और शायद बिना किसी हिचक के कह सकती हूं कि मैं अपने-आप को दिल्ली में सुरक्षित महसूस नहीं करती हूं. जानती हूं आप सोच रहें होंगे कि न्यूज़ चैनल में काम करती हूं फिर भी ऐसा क्यों बोल रही हूं..

दिल्ली ने सुरक्षित महसूस होने का कभी मौका ही नहीं दिया. जब साल 2012 के दिसंबर महीने में निर्भया कांड दिल्ली में हुआ उसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बैठक बुलाई थी. कैंडिल मार्च निकाले गए थे. निर्भया ऐप से लेकर निर्भया फंड तक बहुत कुछ बनाया गया था. दिल्ली-एनसीआर में महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ाई गई थी, तमाम दावे और वादे भी किए गए थे. रात में ज्यादा पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था. 

इस घटना के खिलाफ जिस तरह देशभर से आवाज उठी, प्रदर्शन हुए और सरकार ने कदम उठाए उसके बाद ऐसा लगा कि शायद अब दोबारा कोई भी ऐसी घटना को अंजाम देने की जहमत नहीं करेगा. 

एक दशक बाद भी क्या बदला?

निर्भया कांड के करीब एक दशक बीत जाने के बावजूद लगता है आज कुछ भी नहीं बदला है. देश की राजधानी में नए साल के पहले दिन मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई जिसे सुनकर न केवल लोगों का दिल दहल गया बल्कि इस पूरी घटना पर तरह-तरह के सवाल भी उठ रहे हैं. 2023 में कदम रखे अभी कुछ ही दिन हुए और कंझावला केस के एक दिन बाद ही दिल्‍ली के आदर्श नगर में एक युवती के साथ दोस्ती तोड़ने के नाम पर दिनदहाड़े चाकू से कई वार किए गए. 

ऐसे मामले ये सवाल खड़ा करते हैं कि क्या दिल्ली वाकई महिलाओं के लिए सुरक्षित है? क्या हम वास्तव में महिला सशक्तिकरण वाले राष्ट्र की ओर बढ़ रहे हैं?

दिल्ली का इंफ्रास्ट्रक्चर एक दशक में काफी बदल गया है. लेकिन मानसिकता में ज्यादा बदलाव नहीं आया है. आज भी अगर किसी महिला से साथ बर्बरता होती है तो अपराधी से ज्यादा पीड़िता पर सवाल उठाए जाते हैं.. कहां गई थी ? अकेले क्यों गई थी?  बॉयफ्रेंड के साथ इतनी रात को बाहर क्यों थी? रात में निकलोगे तो ऐसा हो सकता है। कपड़े छोटे पहने थे.. शराब पी होगी... सवाल अनगिनत हैं.. ऊंगली उठाने वाले भी अनगिनत हैं... लेकिन महिला के चाल-चलन पर सवाल उठाने से अपराध कम या खत्म नहीं हो जाता .... पुरुषों की तरह महिलाओं को भी आजादी से और बेखौफ होकर जीने का पूरा हक है.

 तो हां कागजी तौर पर तो दिल्ली में काफी कुछ बदल गया, लेकिन असलियत सब सामने है. शराब पीकर गाड़ी चलाना कानूनन अपराध है तो फिर इतनी आसानी से तेज म्यूजिक के बीच भला कैसे इतने घंटों तक गाड़ी चलती रही? निर्भया कांड के आरोपी भी शराब के नशे में थे. पर उन लड़कियों की क्या गलती जो इस 'नशे में थे' वाक्य की बली चढ़ गईं? मेरा बस एक सीधा सा सवाल है कि आखिर क्यों हम उन लोगों को इंसान मान रहे हैं जिन्होंने मानवता को ही शर्मसार किया है. 

निर्भया मामले के आरोपियों को आखिरकार सजा मिली, लेकिन उनका क्या जो रोजाना इस तरह की बर्बरता कर रहे हैं और उन महिलाओं का क्या जो इन बर्बरताओं का शिकार हो रही हैं. अब आप ही इन बातों को सोचिए और बताइए कि क्या दिल वालों की दिल्ली ऐसी थी. अगर नहीं तो इसको सुधारने की जिम्मेदारी सिर्फ कानून पर है. क्या सरकार की सुरक्षा की गारंटी सिर्फ वोटों तक सीमित है? सवाल कई हैं जिनके जवाब मिलने अभी बाकी हैं.

[यह लेख पूरी तरह से निजी विचारों पर आधारित है]

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