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ब्लॉग: बिपिन रावत के सेना प्रमुख बनाने पर घड़ियाली आंसू क्यों, हमाम में सब नंगे हैं

भारतीय थलसेना के नये प्रमुख होंगे लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत. कल शाम जैसे ही मोदी सरकार ने अपने इस निर्णय को सार्वजनिक किया, कांग्रेस सहित कई विपक्षी पार्टियों ने इस फैसले की आलोचना की. किसी ने जनरल रावत की क्षमता पर सवाल नहीं उठाये, लेकिन मोदी सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा किया गया. सवाल ये उठाया गया कि आखिर जनरल रावत से सीनियर दो सैन्य अधिकारी जब मौजूद थे, तो उनकी उपेक्षा कर जनरल रावत को भारतीय थल सेना की कमान सौंपने का फैसला क्यों किया गया. जनरल दलबीर सिंह सुहाग इसी 31 दिसंबर को रिटायर हो रहे हैं, ऐसे में दो हफ्ते के अंदर आर्मी की कमान जनरल रावत के हाथ में आ जाएगी. तब तक सरकार के फैसले की आलोचना का दौर जारी रहने वाला है.

सवाल उठता है कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब तत्कालीन सरकार पर सैन्य नियुक्ति में राजनीति करने का आरोप लगा है. ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है. पहले भी सबसे वरिष्ठ अधिकारी की उपेक्षा कर जूनियर को भारतीय थल सेना की कमान दी गई है. कांग्रेस के मनीष तिवारी मोदी सरकार पर सैन्य प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त के मामले में राजनीति का आरोप लगा रहे हैं. लेकिन मनीष तिवारी को भारतीय थल सेना का इतिहास शायद पूरी तरह याद नहीं होगा. जिस पंजाब से वो चुनाव लड़ते रहे हैं, उस पंजाब का इतिहास और भारतीय थल सेना के सर्वोच्च पद पर नियुक्ति में हुई राजनीति सर्वविदित है.

आज जब जनरल रावत के मामले को सामने रख ये सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर कब वरिष्ठ की उपेक्षा कर जूनियर को आर्मी चीफ की कुर्सी दी गई थी, तो लोगों को जनरल एस के सिन्हा का केस याद आ रहा है. लेकिन इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने जनरल सिन्हा को क्यों आर्मी चीफ नहीं बनाया, जबकि वो इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थे, ज्यादातर लोगों के ध्यान में नहीं आता. जब जनरल के वी कृष्ण राव 1983 के जुलाई महीने में रिटायर होने जा रहे थे, उससे कुछ महीने पहले नये आर्मी चीफ की नियुक्ति का मामला सामने आया. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. सबको ये लग रहा था कि वरिष्ठता के आधार पर जनरल एस के सिन्हा ही नये आर्मी चीफ बनाये जाएंगे. लेकिन जब फैसले का ऐलान हुआ, तो सबको झटका लगा. इंदिरा गांधी ने जनरल सिन्हा की जगह जनरल ए एस वैद्य को आर्मी चीफ बनाने का ऐलान किया.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों जनरल सिन्हा की उपेक्षा की गई, जिस फैसले में जनरल कृष्ण राव की राय भी शामिल थे. बताया जाता है कि जनरल सिन्हा ने उस समय सिख उग्रवाद से निबटने में सेना के इस्तेमाल की मनाही की थी. सिन्हा का मानना था कि अगर ऐसा हुआ, तो ये सेना के लिए अच्छा नहीं होगा. भारतीय सेना के अधिकारियों और जवानों का बड़ा हिस्सा पंजाब से आता है और ऐसे में एक ऐसा मामला, जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नीतियों के कारण ही धार्मिक उग्रवाद में तब्दील हो चुका था, उसमें सेना को शामिल करना ठीक नहीं था. जाहिर है, इंदिरा गांधी सिन्हा की इस राय से इत्तफाक नहीं रखती थीं और इसलिए सिन्हा की जगह जनरल वैद्य को नया आर्मी चीफ बनाने का फैसला किया गया.

जनरल वैद्य ने इंदिरा गांधी की बात मानी और उन्हीं की अगुआई में जून 1984 के पहले हफ्ते में ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ. ऑपरेशन ब्लू स्टार के कारण भारतीय थल सेना के सिख अधिकारियों और जवानों में असंतोष भी हुआ, जिसकी एक झलक तब दिखी, जब झारखंड के रामगढ़ में सिख रेजिमेंटल सेंटर के सिख फौजियों ने विद्रोह कर दिया और अपने कमांडर ब्रिगेडियर आर एस पुरी को मार डाला और वहां से सिख सैनिकों की विद्रोही टुकड़ी दिल्ली की तरफ बढ़ी. इन विद्रोही सैनिकों पर वाराणसी के करीब काबू पाया जा सका, वो भी सेना की दूसरी टुकड़ी की मदद से. सिख सैनिकों के विद्रोह पर तो काबू पा लिया गया, लेकिन इससे सिख उग्रवाद और भड़का. हालात ये बने कि अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी को ऑपरेशन ब्लू स्टार की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, उनके ही दो सिख अंगरक्षकों ने प्रधानमंत्री आवास पर ही उन्हें गोलियों से भूनकर मार डाला. सिख उग्रवादियों का निशाना जनरल वैद्य भी बने. रिटायरमेंट के बाद पुणे की छावनी में रह रहे जनरल वैद्य को भी सिख उग्रवादियों ने गोलियों से भून डाला, जिसकी वजह से उनकी मौत हुई.

खैर, जनरल सिन्हा को जब सुपरसीड होने की खबर मिली तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया. जनरल सिन्हा बाद में नेपाल में भारत के राजदूत और असम और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल भी बने और अपने उत्कृष्ट कार्य की वजह से लोगों की प्रशंसा पाई. बताया जाता है कि जनरल सिन्हा को सैन्य प्रमुख न बनाये जाने के और भी कुछ कारण थे. एक तो जनरल सिन्हा थिंकिंग जनरल थे, हर बड़े विषय पर उनके मौलिक विचार होते थे. वो जनरल सिन्हा ही थे, जो नौकरशाही के मुकाबले सैन्य अधिकारियों के कम वेतन, भत्ते और पेंशन को लेकर जमकर लड़े थे. ये बात नौकरशाही को कभी पसंद नहीं आई थी और उनके सैन्य प्रमुख के तौर पर प्रोमोशन में वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों ने भी भांजी मारी थी. दूसरा कारण ये भी था कि जनरल सिन्हा जयप्रकाश नारायण के काफी करीब बताये जाते थे. दोनों ही बिहार से थे और वो भी एक ही जाति से, आपस में रिश्तेदारी भी थी. ये बात भी जनरल सिन्हा के खिलाफ गई थी. जनरल सिन्हा के साथ भले ही इंदिरा गांधी ने अन्याय किया, लेकिन बाद की गैर-कांग्रेसी सरकारों ने उन्हें काफी इज्जत दी, राजदूत से लेकर राज्यपाल तक बनाया.

सेना प्रमुख की नियुक्ति महज वरिष्ठता के आधार पर होनी चाहिए या प्रतिभा?

फिलहाल सवाल इस बात का है कि क्या सेना प्रमुख की नियुक्ति महज वरिष्ठता के आधार पर होनी चाहिए या फिर प्रतिभा और जरूरी अनुभव के आधार पर. इस मामले में भी आजादी के बाद से ही विरोधाभास रहा है. भारत को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के बाद भी पहले दो कमांडर इन चीफ ब्रिटिश ही रहे, जनरल लोकार्ट और जनरल बुचर.

जम्मू-कश्मीर को लेकर 1947-48 में जो पहली लड़ाई भारत और पाकिस्तान के बीच हुई, उस दौरान भारतीय सेना के सर्वोच्च पद पर बैठे ब्रिटिश अधिकारियों की भारत के प्रति निष्ठा और इरादे पर भी सवाल उठे. ऐसे में भारतीय अधिकारियों को सर्वोच्च पद पर नियुक्त करने का सवाल आया.

जब पहले भारतीय को सैन्य प्रमुख की जिम्मेदारी देने का सवाल उठा, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल दोनों ही जनरल राजेंद्र सिंह के पक्ष में थे. जनरल राजेंद्र सिंह जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के रिश्तेदार थे और दोनों नेताओं के करीबी भी. लेकिन खुद राजेंद्र सिंह ने इसका विरोध किया. उन्होंने कहा कि जनरल करियप्पा मेरे से वरिष्ठ हैं और भारतीय सेना के पहले भारतीय प्रमुख की नियुक्ति में वरिष्ठता का ध्यान न रखा जाए, ये मैं कबूल नहीं कर सकता. जनरल राजेंद्र सिंह ने जब कमांडर इन चीफ का पद लेने से मना कर दिया, तो जनरल करियप्पा को वो कुर्सी सौंपी गई. करियप्पा को नेहरू या सरदार इसलिए पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि करियप्पा पूरी तरह ब्रिटिश रंग-ढंग में ढले अधिकारी हैं. हालांकि पहले भारतीय सैन्य प्रमुख के तौर पर वो जनरल करियप्पा ही थे, जिन्होंने अधिकारियों के सामान्य फौजी से बातचीत के दौरान शिष्टाचार अभिवादन के तौर पर राम-राम की प्रथा शुरु करवाई.

जनरल करियप्पा के रिटायरमेंट के बाद जनरल राजेंद्र सिंह भारतीय सेना के प्रमुख बने. ये जानना भी रोचक होगा कि राजेंद्र सिंह जहां स्वतंत्रता के बाद भारतीय सेना के दूसरे भारतीय कमांडर इन चीफ बने, वही पहले आर्मी चीफ भी. जनरल राजेंद्र सिंह के समय में ही थल सेना प्रमुख का पद कमांडर इन चीफ की जगह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के तौर पर रखा गया.

जिस नेहरू को स्वतंत्रता के बाद तमाम संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती देने का श्रेय दिया जाता है, फौज के मामले में उनका रिकॉर्ड काफी खराब रहा. वी के कृष्णमेनन से अपनी दोस्ती निभाने के चक्कर में उन्होंने जनरल थिमैया जैसे भारतीय सेना के बेहतरीन जनरल को दो-दो बार इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया. जनरल थिमैया फौज की नियुक्तियों में कृष्ण मेनन के अतार्किक हस्तक्षेप के खिलाफ थे, लेकिन नेहरू ने कभी कृष्ण मेनन को रोका नहीं. परिणाम ये हुआ कि जब 1962 का भारत-चीन युद्ध हुआ, उस वक्त फौज की कमान जनरल थापर जैसे अपेक्षाकृत कमजोर जनरल के हाथ में थी और मोर्चे पर रखा गया था जनरल बीएम कौल को, जिसे लड़ाई छिड़ते ही डर के मारे बुखार आ गया और मोर्चे पर सैनिकों को मार्गदर्शन देने की जगह दिल्ली के अस्पताल में जनरल कौल बेड पर पड़े रहे.

1962 की वो लड़ाई ही थी, जिसके कारण पंडित नेहरू की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई. अपने प्रिय कृष्णमेनन का बतौर रक्षा मंत्री इस्तीफा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि खुद कांग्रेस पार्टी में गुस्सा इस कदर था कि पंडित नेहरू के लिए अपने पद पर बने रहना चुनौतीपूर्ण हो गया था. 1962 का ही वो जख्म था, जिसकी वजह से नेहरू की तबीयत बिगड़ती चली गई और आखिरकार मई 1964 में उनका देहांत हो गया.

नेहरू के समय में ही ये सवाल भी उठा था कि क्या वरिष्ठता की जगह प्रतिभा को जगह नहीं देनी चाहिए. जनरल थिमैया ने अपने अऩुगामी के तौर पर जनरल थोराट के बारे में सोचा था, वो थोराट जिन्होंने चीन के सामने मुकाबले के लिए थोराट प्लान बनाया था. लेकिन पंडित नेहरू ने थोराट की जगह कृष्ण मेनन की सलाह पर जनरल थापर को सैन्य प्रमुख बनाया. जनरल थोराट जनरल थिमैया की तरह ही खुद्दार अधिकारी थे, वो न तो कृष्ण मेनन की चमचागीरी कर सकते थे और न ही पंडित नेहरू की. नेहरू को चमचागीरी पसंद थी, यही वजह थी कि जनरल कौल को लगातार प्रोमोशन देकर सैन्य पमुख बनाना तय कर लिया गया, वो तो 1962 का युद्ध था, अन्यथा कौल जैसा व्यक्ति भारत सेना का प्रमुख भी बन गया होता, चीफ ऑफ जनरल स्टाफ तो बन ही गया था. 1962 की लड़ाई के कारण ही थापर और कौल दोनों को अपना पद छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.

कहा जाता है कि अगर पंडित नेहरू ने जनरल थिमैया की सलाह मानी होती, तो शायद 1962 के युद्ध में भारत को चीन के सामने इतनी करारी पराजय न झेलनी पड़ती. हो सकता है कि पंडित नेहरू ने अधिकतम चार साल तक ही कोई अधिकारी भारतीय थल सेना का प्रमुख रह सकता है, ये तुगलकी फरमान न बनाया होता, तो 1962 में भारतीय सेना की कमान जनरल थिमैया के हाथ में रह सकती थी, जो महज 55 साल की उम्र में मई 1961 में रिटायर हो चुके थे.

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1962 की लड़ाई भारतीय सेना के लिहाज से टर्निंग प्वाइंट भी बनी. अगर वो लड़ाई नहीं हुई होती, तो सैम मानेकशा जैसा श्रेष्ठ अधिकारी भारतीय सेना के शीर्ष पर पहुंचने की जगह कोर्ट मार्शल होकर सेना से बेइज्जत होकर निकाला जा चुका होता. कृष्ण मेनन और कौल की जोड़ी ने नेहरू की सरपरस्ती में मानेकशा के खिलाफ जांच शुरु करवाई थी, वो भी ये आरोप लगाते हुए कि वो विद्रोह की साजिश रच रहे हैं और सरकार विरोधी भावनाएं भड़का रहे हैं. 1962 के युद्ध के बाद कृष्ण मेनन को बेइज्जत होकर रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा और उसके बाद रक्षा मंत्री बने वाई बी चह्वाण ने मानेकशा के खिलाफ जांच बंद करवाई और मानेकशा को चीन के उस मोर्चे पर लगाया, जहां से भाग खड़े हुए थे जनरल कौल. मानेकशा के कमान संभालते ही भारतीय सेना में नये उत्साह का संचार हुआ और फौज का पीछे हटना बंद हुआ. यही मानेकशा पाकिस्तान के खिलाफ 1971 में भारत की विजय के हीरो बने और स्वतंत्र भारत के पहले फील्ड मार्शल भी.

लेकिन राजनीतिक नेतृत्व सेना के इतने बड़े हीरो की कितनी इज्जत करता है, इसका भी उदाहरण मानेकशा ही हैं. 1971 के युद्ध के बाद मानेकशा की लोकप्रियता और उनकी सिद्धियों को देखते हुए जिस इंदिरा गांधी ने उन्हें फील्ड मार्शल बनाया, वही इंदिरा गांधी उनसे जलने भी लगीं. परिणाम ये हुआ कि फील्ड मार्शल जैसा ओहदा भारतीय संदर्भ में महज सजावटी ही बन गया. कहा जाता है कि फील्ड मार्शल कभी रिटायर नही होता. दुनिया के तमाम देशों में फील्ड मार्शल का अपना ऑफिस होता है, उसको काफी इज्जत बख्शी जाती है, सुविधाएं दी जाती है. लेकिन इंदिरा गांधी ने न तो फील्ड मार्शल का कोई ऑफिस बनाया और न ही मानेकशा को कोई खास सुविधा दी. यहां तक कि अपने उत्तराधिकारी के तौर पर मानेकशा ने जिस अधिकारी की सिफारिश की थी, उसकी जगह अपेक्षाकृत कमजोर सिद्धियों वाले अधिकारी को इंदिरा गांधी ने भारतीय थल सेना का प्रमुख बनाया.

मानेकशा ने सिफारिश की थी जनरल पीएस भगत की, जिन्होंने काफी कम उम्र में द्वितिय विश्व युद्ध के दौरान विक्टोरिया क्रॉस हासिल किया था और जिनका बतौर सैन्य अधिकारी शानदार ट्रैक रिकॉर्ड रहा था. उनके मुकाबले जनरल बेवूर का बतौर सैन्य अधिकारी कोई खास प्रोफाइल नहीं था, लेकिन इंदिरा गांधी ने बेवूर को ही अपनी सुविधा के हिसाब से भारतीय थल सेना की कमान सौंपी. इंदिरा गांधी की इसके पीछे क्या सोच थी, इसका खुलासा खुद मानेकशा ने जनरल भगत पर लिखी एक किताब के प्रस्तावना मे कही थी. मानेकशा का कहना था कि सरकार एक श्रेष्ठ जनरल के बाद दूसरा वैसा ही आले दर्ज का जनरल रखना मंजूर नहीं कर सकती थी, इसलिए दोयम दर्जे का जनरल भारतीय सेना को नसीब हुआ.

manekshawखुद मानेकशा को सरकार ने कितना सम्मान उनके अंतिम दिनों में दिया, इसका भी जिक्र जरूरी है. जून 2008 में जब उटी के पास वेलिंगडन के सैन्य अस्पताल में उनका देहांत हुआ, तो उनके अंतिम संस्कार में न तो तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल पहुंची और न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह. हद तो ये हुई कि पूरी भारत सरकार का प्रतिनिधित्व रक्षा राज्य मंत्री पल्लम राजू ने किया, रक्षा मंत्री भी स्वतंत्र भारत के पहले फील्ड मार्शल के अंतिम संस्कार में नहीं पहुंचे. ये उस ब्रिटिश परंपरा से बिल्कुल अलग था, जहां से फील्ड मार्शल के पद का अनुकरण किया था भारत ने. वहां पहले फील्ड मार्शल के निधन पर तमाम गणमान्य नेता और शीर्ष अधिकारी पहुंचे थे, भारत में तो तीनों सेनाओं के प्रमुख तक अपने पहले फील्ड मार्शल सैम बहादुर के अंतिम संस्कार में नहीं आए थे.

जाहिर है, सेना की परंपरा और सैन्य अधिकारियों का सम्मान भारत में क्षुद्र राजनीति से उपर नहीं उठ पाया है. इसका संकेत आजादी के समय ही मिल गया था. आजादी के तुरंत बाद, जनरल नथू सिंह जो प्रखर राष्ट्रवादी थे, उनके और पंडित नेहरू के बीच सेना को लेकर बातचीत हुई. नथू सिंह सेना को तुरंत पूर्ण भारतीय स्वरुप देना चाह रहे थे, यहां तक कि नेतृत्व के स्तर पर भी. उस वक्त नेहरू ने कहा कि भारतीय सेना की कमान संभालने के लिए भारतीय अधिकारियों के पास पर्याप्त अनुभव नहीं है. ये सुनते ही नथू सिंह ने तपाक से नेहरू से पूछा, आपके पास भी देश चलाने का पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव नहीं रहा है, फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आप कैसे. नेहरू के पास इसका कोई जवाब नहीं था. ये बात अलग कि नथू सिंह और भारतीय सेना के प्रति अपना हीन नजरिया कभी नेहरू ने नहीं बदला. इसका सबसे बड़ा संकेत ये रहा कि जिस बड़े अहाते वाले आलीशान मकान में ब्रिटिश काल में कमांडर इन चीफ रहा करते थे, उस मकान को आजादी के तुरंत बाद नेहरू ने बतौर प्रधानमंत्री अपने आवास के तौर पर हथिया लिया और उनकी मौत के बाद भी आज भी उनका स्मारक सह संग्रहालय वहां चल रहा है तीनमूर्ति भवन के नाम से.

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