इथियोपिया के संघर्ष पर रखें नजर, भविष्य के सवालों के जवाब हैं यहां
इथियोपिया टाइग्रे क्षेत्र में हो रही सैन्य-हिंसा के कारण गृहयुद्ध की चपेट में है.

लगभग 11.5 करोड़ की आबादी वाला देश इथियोपिया अपने टाइग्रे क्षेत्र में हो रही सैन्य-हिंसा के कारण गृहयुद्ध की चपेट में है. कई हिंदुस्तानियों को लग सकता है कि यह हमसे सैकड़ों मील दूर है और इससे हमारा कोई वास्ता नहीं. मगर दोनों देशों का इतिहास और बीते कुछ वर्षों के संबंध इन्हें आपस में जोड़ते हैं. ग्रीको-रोमन संसार में भारत और इथियोपिया को परस्पर एक-दूसरे से जोड़ कर देखा गया है.
पहली सदी के प्रसिद्ध रोमन इतिहासकार, दार्शनिक और नौसेना कमांडर प्लीनी द एल्डर ने अपनी विशालाकार पुस्तक नेचुलर हिस्ट्री में लिखा है, ‘भारत और इथियोपिया के कुछ हिस्सों में चमत्कारिक रूप से समानता है.’ लेकिन गौर करें कि इसके बाद दोनों देश सदियों तक एक-दूसरे के साथ रिश्ते को लेकर निरंतर असमंजस में रहे. ऐतिहासिक रूप से इथियोपियाई लोगों के भारत में रहने के कई प्रमाण मिलते हैं.
इनमें प्रसिद्ध सैनिक शासक मलिक अंबर (1548-1626) का नाम अव्वल है. जो शक्तिशाली मुगलों पर भारी पड़ा था. इसी तरह सदियों से कई भारतीय समुदायों के अफ्रीका में व्यापार करने के ऐतिहासिक सबूत सामने हैं. 20वीं सदी के मध्य में इथियोपिया में मुख्य रूप से भारतीय शिक्षक ही बच्चों को पढ़ाया करते थे. यह कहने में हिचक नहीं कि 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इथियोपिया के लगभग पूरे आभिजात्य वर्ग को अलग-अलग हिस्सों में भारतीय शिक्षकों -लगभग 50 हजार- ने ही शिक्षा दी. हाल के वर्षों में इथियोपियाई सरकार ने जब अपने देश के गेम्बेला जैसे दूर-दराज के इलाकों को 99 साल की लीज पर देने की इच्छा जाहिर की तो भारतीय व्यवसायिकों ने बड़ी भागीदारी करते हुए यहां कृषि क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जगह बना ली.
यह बातें दोनों देशों के ऐतिहासिक संबंधों की वे छोटी-छोटी कड़ियां हैं, जिनकी बड़ी कहानियां लिखी जानी बाकी हैं. इथियोपिया एक बहुवादी, अलग-अलग जातियों से बना समाज है. इसीलिए वहां जो हो रहा है, उसे हिंदुस्तानियों को देखना चाहिए. साथ ही उन सभी लोकतांत्रिक देशों-समाजों को भी जो इस समय एक खास किस्म की विचारधारा और विदेशियों को पसंद न करने के ज्वार को रोकने के लिए अपने यहां संघर्ष कर रहे हैं. यह उठा-पटक पूरी दुनिया में चल रही है. इथियोपिया में करीबी 70 जातिय समुदाय हैं. 20वीं सदी के बड़े कालखंड में 27 फीसदी आबादी वाले अमहारा का यहां बोलबाला रहा.
देश में 34 फीसदी ओरोमो, छह फीसदी टाइग्रे और छह फीसदी सोमाली हैं. सम्राट हेली सीलासी का चार दशक लंबा शासन यहां सितंबर 1974 में खत्म हुआ था, जब 82 साल की उम्र में उन्हें अपदस्थ करके सैन्य सरकार, देर्ग ने सत्ता संभाली. तब इथियोपिया को मार्क्स-लेनिन के विचारों वाली सिंगल पार्टी के राष्ट्र में तब्दील कर दिया गया. इसके बाद लंबे समय तक पूरी दुनिया में इसकी छवि अकाल-ग्रस्त देश की रही. आंतरिक रूप से यह ‘लाल आतंक’ और देर्ग प्रमुख मेंगिस्तु हेली मरिअम द्वारा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का कद छांटने के लिए जाना जाता रहा.
मेंगिस्तु ने हालांकि 1987 में नागरिक सरकार को सत्ता हस्तांतरण में अधिक हस्तक्षेप नहीं किया परंतु सत्ता पर उनका नियंत्रण 1991 तक बना रहा. उन्हें इथियोपियन पीपुल्स रिवॉल्यूशन डेमोक्रेटिक फ्रंट (ईपीआरडीएफ) ने देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था. चार संगठनों वाले इस संयुक्त संघर्ष में सफलता के बाद मेलीस जनावी ने नेतृत्व संभाला. वह टाइग्रेयन पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (टीपीएलएफ) के नेता थे और आने वाले वर्षों में उन्होंने ईपीआरडीएफ को ऐसे गिरोह में बदल दिया, जहां सारी ताकत टीपीएलएफ और अन्य जातिय समूहों के अभिजात्य लोगों के हाथों में आ गई. बहुसंख्यक ओरोमो आबादी लंबे समय तक अमराहा और टाइग्रे के आधिपत्य में रही.
जेनावी ने चतुराई से अपने सहयोगी दल ओरोमो पीपुल्स डेमोक्रेटिक ऑर्गनाइजेशन को ओरोमिया के प्राकृतिक संसाधनों लूटने दिया. इतिहास की सच्ची या काल्पनिक स्मृतियां अक्सर ताकतवर शक्ति साबित होती हैं. टाइग्रे के बाशिंदों को याद था कि हेली सीलासी ने 1943 में वोयाने क्रांतिकारियों को खत्म करने के लिए उनके प्रांत पर ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स से बमबारी कराई थी. कहा जाता है कि सम्राट ने 1958 में अकाल पड़ने पर भी टाइग्रे प्रांत की कोई मदद नहीं की थी. जबकि वहां एक लाख लोग काल के गाल में समा गए थे. हेली सीलासी के पिता अमहारा समुदाय से थे और इसलिए टाइग्रे के लिए इस समय अमहारा को हाशिये पर धकेलने का सही समय था. इससे वह ऐतिहासिक हिसाब बराबर कर सकते थे.
2012 में जब जनावी की मृत्यु हुई तो उत्तराधिकार के लिए संघर्ष का अंदेशा था. मगर ऐसा नहीं हुआ. उप प्रधानमंत्री पद संभाल रहे हेली मरिअम देसालेंग ने जनावी की जगह ली. वह संभवतः सभी जातीय समुदायों द्वारा स्वीकृत थे क्योंकि वह एक छोटे समुदाय वोलायता से आते थे, जो कुल आबादी में मात्र 2.3 फीसदी है. हालांकि देसालेंग ओरोमो जातीय प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित नहीं कर सके और कुछ वर्षों बाद फरवरी 2018 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया.
अबी अहमद ने उनकी जगह ली, जो ओरोमो समुदाय से थे. उन्होंने अपने जातीय समूह के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के लिए जबर्दस्त संघर्ष किया था और ओरोमियो प्रांत में अपने लोगों के लिए जमीन हासिल करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. इथियोपियाई राजनीति में वह ध्रुव तारे की तरह चमके और देश की चरमराई राजनीति में एक नए युग की शुरुआत की. उन्होंने राजनीतिक कैदियों को रिहा किया, विदेश में निर्वासन काट रहे विरोधी नेताओं को लौटने के लिए प्रेरित किया और इरिट्रिया तथा दक्षिण सूडान के साथ टूटी शांति संधियों को स्थापित किया. इथियोपिया और इरिट्रिया के बीच बरसों से चल रहे क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने में उन्होंने कड़ी मेहनत की और नतीजा यह कि इसके बदले उन्हें 2019 के नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया.
इन कामयाबियों के बावजूद इथियोपिया के लोगों की अबी के बारे में राय बदल रही थी. खास तौर पर उत्तर इथियोपिया में टाइग्रे में, जहां इस नेता के अभियानों को स्थानीय नेताओं, ब्यूरोक्रेट्स और सैन्य अधिकारियों के उत्पीड़न के रूप में देखा गया. टाइग्रे मूल के निवासियों को देश का सबसे जबर्दस्त लड़ाकू समुदाय माना जाता रहा है. लगभग 60 फीसदी वरिष्ठ सैन्य पदों पर इसी के लोग बैठे हैं. अबी ने इस आंकड़े को 25 फीसदी तक लाने की शपथ ली. लेकिन ऐसा नहीं कि टाइग्रे समुदाय के लोगों को ही शिकायत थी. कई अंतरराष्ट्रीय एनजीओ भी इथियोपिया में प्रेस की आजादी खत्म होने की शिकायत कर रहे थे और कश्मीर की तरह यहां भी कई बार बड़े पैमाने पर इंटरनेट-शटडाउन के मामले आए.
यहां तक कि अबी के सह-जातीय ओरोमो भी इस बात से नाखुश रहने लगे कि उनके नेता में सत्ता को अपने हाथों में केंद्रित रखने प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. कुछ को लगने लगा कि अबी में ‘बाहुबली’ लक्षण उभरने लगे हैं, जो अफ्रीकी राजनीति को अक्सर परेशान करता रहा है. जुलाई 2020 में ओरोमो समुदाय के संगीतकार हचलू हंडेसा की हत्या हो गई, जो अपने लोगों की दुर्दशा पर अक्सर आवाज उठाते थे. एक अन्य ओरोमो राजनेता और अबी के सबसे मजबूत राजनीतिक शत्रु जवार मोहम्मद को भी आतंकवाद के आरोपों में जेल में डाल दिया गया.
जब तूफान उठता दिख रहा था, तभी कोरोना महामारी ने पैर पसार दिए. देश में अगस्त में आम चुनाव होने थे मगर अबी इन्हें स्थगित कर दिया क्योंकि इससे महामारी के अधिक फैलने का खतरा था. बावजूद इसके टाइग्रे में संघीय सरकार के आदेश को न मानते हुए स्थानीय प्रशासन ने सितंबर में चुनाव कराए. नतीजा यह कि संघीय सरकार ने इस क्षेत्र की आर्थिक फंडिंग रोक दी. तब टाइग्रे के नेताओं ने बगावत कर दी और चार नवंबर को अबी ने आरोप लगाया कि टाइग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (टीपीएलएफ) ने देश के मिलिट्री बेस पर हमला किया है. इसके साथ ही इथियोपियाई सेना ने बदले की कार्यवाही करते हुए टाइग्रे की राजधानी मेकेले को अपने अधिकार में ले लिया. मगर विद्रोहियों का कहना है कि संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है.
यह समझने के लिए कि इथियोपिया वर्तमान हाल में कैसे पहुंच गया, हमें इसके 1994 के संविधान को भी देखना चाहिए, जो इसे एक अनोखा राष्ट्र बनाता है. इसके अनुच्छेद 39.1 में कहा गया है कि प्रत्येक राष्ट्र, राष्ट्रीयता और इथियोपिया में रहने वाले लोगों को बिना शर्त यह अधिकार है कि वह आत्मनिर्णय ले सकते हैं, इसमें अलगाव अथवा संबंध-विच्छेद का अधिकार भी शामिल है.
अनुच्छेद की धारा चार यह भी बताती है कि अलगाव अथवा संबंध-विच्छेद को कैसे प्रभाव में लाया जा सकता है, उदाहरण के लिए जनमत संग्रह के द्वारा. संघीय सरकार टाइग्रे के चुनाव को ‘अवैध’ बता रही है कि यह जनमत अलगाव को लेकर नहीं था. लेकिन टीपीएलएफ का दावा है कि संघीय सरकार की अवहेलना कर हुए चुनाव का यही मतलब है कि टाइग्रे के लोगों ने संबंध-विच्छेद के लिए मत डाले. जिसमें 98.2 प्रतिशत लोगों ने टीपीएलएफ को वोट दिया है.
निश्चित रूप से यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि एक ‘संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य’ के संविधान में अलगाव के लिए प्रावधान होना चाहिए. ऐसे देश, जहां भले ही संघीय ढांचे के प्रति राज्यों की प्रतिबद्धता का लंबा इतिहास है, नागरिक अधिकारों की सुरक्षित परंपराएं हैं और चुनावी राजनीति के स्थापित नियम-मसौदे हैं, अपने संघ की ताकत को इस सीमा तक परखने का साहस नहीं जुटा पाए हैं. तब भी इथियोपिया में जारी राजनीतिक उथल-पुथल से साफ है कि कई राज्यों वाले इस संघ को नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करने के लिए संविधान निर्माण से अधिक दुस्साहस दिखाना होगा.
अबी भले ही ओरोमो समुदाय का राजनीतिक चेहरा हैं परंतु उनकी परवरिश अमहारा समुदाय से आने वाली मां ने की है. इस तरह की दुहरी-तिहरी वंशावली यहां बहुत असामान्य बात नहीं है. यह एक किस्म की आदर्श स्थिति भी हो सकती है, जो अनजाने में बढ़ती जा रही है. इथियोपिया में सामान्य रूप से बहुत थोड़े से लोग हैं जो ‘शुद्ध’ ओरोमो, अमहारा, सोमाली, टाइग्रेयन या अन्य हों. लेकिन संभवतः यही बातें राजनीतिक हथियार बन चुके लोगों के लिए निजी पहचान की तलाश में उकसावे की अहम वजह बन जाती हों.
हमारे समय का एक विशिष्ट चरित्र यह हो गया है कि अधिकतर देशों में जातिय पहचानें मंद पड़ने के बजाय गहरी होती चली गई हैं. 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार ने हमें बताया कि जातिगत संघर्ष तब अधिक तेज और कड़वाहट से भरा हो जाता है, जब लड़ने वाले एक-दूसरे से नजदीकी संबंद्ध हों. फिर यह संबंध चाहे रक्त के हों, रीति-रिवाजों के हों या ऐतिहासिक. जबकि आम तौर पर विभाजन की रेखाएं धर्म, भाषा और नस्ल के इर्द-गिर्द अधिक खींची जाती हैं.
सिगमंड फ्रायड ने इसे ‘मामूली अंतर की आत्ममुग्धता’ कहा है. जिसमें छोटे से छोटा मतभेद भी तिल का ताड़ बना कर सामने वाले को असहनीय मान लिया जाता है और कई बार तो उसे खत्म कर देने काबिल समझ लिया जाता है. इथियोपिया इस समय जिस संघर्ष के दौर से गुजर रहा है, आम तौर पर उसे नजरअंदाज करने की प्रवत्ति रही है क्योंकि अफ्रीका में यह समस्यामूलक घटनाएं बार-बार होती रही हैं. यह ‘विफल राष्ट्रों’ की पहचान है, लेकिन फ्रायड ने बिल्कुल सही ढंग से इसे आधुनिक सभ्यता की समस्या के रूप में चिह्नित किया है. इसलिए इथियोपिया के इस संघर्ष पर उन लोगों को बारीक नजर रखनी चाहिए जो चकित होकर सोचते हैं कि बहु-जातीय, बहु-धर्मी और विविधतापूर्ण संस्कृतियों वाले राष्ट्रों का भविष्य क्या होगा.
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