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ब्लॉग: फैज की नज्म पर हंगामा क्यों है बरपा !

फैज़ की नज्म पर उठे विवाद को लेकर शायर व रचनाकार खफा है। कानपुर आईआईटी में सीएए के विरोध प्रदर्शन में फैज की एक नज्म पढ़े जाने को लेकर यह सारा मामला सामने आया है।

ग़ालिब का एक शेर है..या रब वो ना समझे हैं, ना समझेंगे मेरी बात...दे उनको कोई दिल और या दे मुझको ज़ुबां और...शायर-ए-आज़म चचा ग़ालिब की ये बात हमने इसलिए उठाई है, क्योंकि आज का हमारा विषय भी एक मकबूल शायर है...जिसकी शायरी को लेकर उत्तर प्रदेश के एक ऐसे संस्थान में हंगामा बरपा है, जो दुनिया के नामचीन संस्थानों में शुमार है। मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज्म 'हम देखेंगे'...को लेकर आईआईटी कानपुर में नए सिरे से बहस छिड़ गई है...इल्ज़ाम है कि फ़ैज़ की ये कालजयी रचना हिंदू विरोधी है.. आईआईटी कानपुर में नागरिकता के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान छात्रों के एक समूह ने फ़ैज़ साहब की उसी नज्म के शेर पढ़े जिसपर छात्रों के दूसरे समूह ने विरोध दर्ज करवाया। इसके बाद खबर है कि आईआईटी कानपुर का प्रशासन इस बात की जांच कर रहा है कि क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज्म हिंदू विरोधी है। हालांकि एबीपी गंगा से बातचीत में आईआईटी कानपुर के उप निदेशक ने साफ कर दिया है कि संस्थान फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज्म की मजहबी गहराई नहीं बल्कि पाबंदी के बावजूद कैंपस में हुए प्रदर्शन की जांच कर रहा है।

नज्म को लेकर मचे गदर पर आईआईटी कानपुर की तरफ से आई इस सफाई के बाद भी देश में इस बात पर बहस छिड़ी हुई है, क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की गजल हम देखेंगे में वाकई हिंदू धर्म विरोधी शब्द हैं। इस सवाल के जवाब के लिए पहले फैज की उस कालजयी रचना को भी देखना जरूरी है।

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे... वो दिन कि जिसका वादा है जो लौह-ए-अजल में लिखा है... जब जुल्‍म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां रूई की तरह उड़ जाएंगे.. हम महकूमों के पांव-तले जब धरती धड़-धड़ धड़केगी.. और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी.. जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे... हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे.. सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे.. बस नाम रहेगा अल्लाह का जो गायब भी है हाजिर भी.. जो मंजर भी है नाजिर भी उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा.. जो मैं भी हूँ और तुम भी हो और राज करेगी खल्क-ए-खुदा.. जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

फैज अहमद फैज का जन्म आजादी से पहले सियालकोट में हुआ था, जो आजादी के बाद पाकिस्तान का हिस्सा हो गया और बंटवारे के बाद भी फैज पाकिस्तान में ही रहे, लेकिन सरहदें कभी भी फैज की कलम से निकली नज्मों और गजलों को बांध नहीं पायी और यही वजह है कि फैज की गजलें और शायरी के मुरीद उनके अपने मुल्क पाकिस्तान से ज्यादा भारत में हैं। फैज के असर को इसी बात से समझा जा सकता है। कि 42 साल पहले यानि 1978 में जब पूर्व प्रधानमंत्री और तब के विदेश मंत्री अटल बिहारी पाकिस्तान दौरे पर गए तब वो प्रोटोकॉल तोड़ते हुए खासतौर पर फैज अहमद फैज से मिलने उनके घर जा पहुंचे थे और उन्हे गले लगाकर कहा कि वो सिर्फ उनके एक शेर की वजह उनसे मिलने आ गए... ये अटल बिहारी वाजपेयी और फैज अहमद फैज की उसी शानदार मुलाकात की एक झलक भर है।

अटल और फ़ैज़ के उस दौर के गवाह रहे कई शायर-गीतकार और इतिहासकार आईआईटी कानपुर से उठी इस बहस पर ख़ासे ख़फा हैं।

शायर या कवि किसी मजहब या क्षेत्र के नहीं होते हैं। वो तो सिर्फ समाज का आईना होते हैं। इस आईने को जिस नजर से देखा जाएगा, वो वैसा ही नजर आएगा। हमे देखना ये चाहिए कि शायर या कवि ने बात किस संदर्भ में कही है। वो संदर्भ एक आईने के तौर पर अलग-अलग वक्त में सामने आता रहता है तभी कोई शायर या कवि कालजयी बनता है। फैज अहमद फैज एक कालजयी शायर हैं तो इसीलिए कि उनकी नज्में-गजल हर वक्त में मौजूं हैं। ऐसे में उनकी रचना को सियासत के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। वैसे कई बार ऐसा भी होता है कि अच्छी बातों का गलत वक्त या व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल भी उसकी गरिमा को कम कर देता है। हमें ये भी समझना होगा।

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ओपिनियन

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