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विकास के छत्तीसगढ़ी मॉडल में भविष्य की संभावनाएं छिपी हैं

क्या बेतहाशा औद्योगिकीकरण के बगैर भी विकास संभव है? क्या विकास की अवधारणा में गांवों की अहमियत सम्मानजनक तरीके से बढ़ाई जा सकती है, जिससे उनका अस्तित्व बचा रहे, ग्रामीण संस्कृति बची रहे और वहां के लोग शहरों में मजदूर बनने को मजबूर नहीं हों?

क्या बेतहाशा औद्योगिकीकरण के बगैर भी विकास संभव है? क्या विकास की अवधारणा में गांवों की अहमियत सम्मानजनक तरीके से बढ़ाई जा सकती है, जिससे उनका अस्तित्व बचा रहे, ग्रामीण संस्कृति बची रहे और वहां के लोग शहरों में मजदूर बनने को मजबूर नहीं हों? क्या स्वरोजगार और कृषि उत्पाद आधारित ऐसी ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित की जा सकती है, जो स्वतंत्र इकाई के तौर पर देश के विकास में हिस्सेदार और भागीदार बने? ये कुछ बड़े सवाल थे जिन पर इन दिनों छत्तीसगढ़ में काफी चर्चा हो रही है.

दरअसल, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार अनोखा प्रयोग कर रही है. इस प्रयोग के केंद्र में गांधी, नेहरू और आंबेडकर के आदर्श हैं. इसके जरिए छत्तीसगढ़ की सरकार आर्थिक विकास का वो मॉडल विकसित करने की प्रक्रिया में है, जो अधिक मानवीय लगता है. ये प्रयोग गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना के आधार पर हो रहे हैं. इन प्रयोगों के व्यापक नतीजे कुछ समय बाद दिखेंगे लेकिन शुरुआती रुझान हौसला बढ़ाने वाले हैं.

आखिर ये प्रयोग कौन कौन से हैं, इन पर चर्चा से पहले हम छत्तीसगढ़ की कुछ जमीनी हकीकत पर एक नजर डाल लेते हैं. ये जान लेते हैं कि आखिर प्रदेश बनने के बाद से अब तक छत्तीसगढ़ की गरीब जनता को क्या हासिल हुआ है और उसने क्या कुछ खोया है. आंकड़ों के मुताबिक -

1. मानव विकास सूचांक में छत्तीसगढ़ निचले स्तर पर है. देश के 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सूची में छत्तीसगढ़ 31वें नंबर पर है.

2. गरीबी सूचांक में तो छत्तीसगढ़ आखिरी पायदान पर है. यहां की करीब 39.93 प्रतिशत आबादी गरीब है. हर जिले की एक चौथाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीने को मजबूर है. कुछ अर्थशास्त्रियों के मुताबिक ये आंकड़े पुराने हैं. नए शोध में छत्तीसगढ़ में गरीबी बढ़ी है.

3. नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 5 साल से कम उम्र के 37.60 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.

4. 15 से 49 साल की उम्र की 41.50 प्रतिशत माताएं एनीमिया से पीड़ित हैं.

5. सबसे खराब स्थिति छत्तीसगढ़ के आदिवासियों और दलितों की है. इनमें भयानक गरीबी है.

इन आंकड़ों का सीधा मतलब है कि छत्तीसगढ़ को पृथक राज्य बनाने का मकसद पूरी तरह विफल हो गया है. 2000 से 2018 तक जितनी भी सरकारें बनीं उनकी आर्थिक नीतियों की वजह से विकास की प्रक्रिया में प्रदेश के बहुजनों की हिस्सेदारी और भागीदारी न के बराबर रही. पिछली सरकारों का सारा जोर छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके विकास दर को बढ़ाना था. इसकी वजह से फायदा कुछ औद्योगिक घरानों को ही पहुंचा है और प्रदेश में वर्ग विभाजन बढ़ा है. अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ी है.

यही वजह है कि भूपेश बघेल सरकार के एजेंडे में छत्तीसगढ़ के औद्योगिक विकास के साथ वो आबादी भी है जो विकास की दौड़ में काफी पीछे छूट गई है. ये एजेंडा आर्थिक भी है और सियासी भी. इसी को केंद्र में रखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने कई महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं.

1. किसानों की कर्ज माफ किया है.

2.यहां की मुख्य फसल धान की खरीद के वक्त समर्थन मूल्य से 750 रुपये प्रति क्विंटल का अधिक भुगतान किया है.

3. तेंदूपत्ता का समर्थन मूल्य 2500 रुपये से बढ़ा कर 4000 रुपये प्रति मानक बोरा कर दिया है. पिछले साल जहां इस मद में 602 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था. इस साल तेंदूपत्ता जमा करने वाले लोगों को 226 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान किया गया है.

4. स्कूली शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए 15000 शिक्षकों की भर्ती का फैसला लिया है.

5. मिड डे मील की गुणवत्ता को सुधारने की दिशा में काम शुरू कर दिया है. बच्चों के भोजन में अंडा भी शामिल किया है.

इन फैसलों के अलावा छत्तीसगढ़ सरकार ने एक महत्वाकांक्षी योजना भी शुरू की है. चार चिन्हारी योजना. मतलब नरवा, गरवा, घुरुवा और बारी योजना. नरवा मतलब नालियां, बरसाती नदियां. गरवा मतलब पशुधन. घुरुवा मतलब घर का वो हिस्सा जहां पर गोबर और कूड़ा जमा किया जाता है. बाद में ये जैविक खाद में परिवर्तित हो जाता है. बारी मतलब घर के पीछे की वो जमीन जहां पर साग-सब्जियां उगाई जाती हैं.

इस योजना के केंद्र में जल, जंगल और जमीन तीनों हैं. इसके केंद्र में खेती की वो पद्धति है जो स्थानीय उपयोग को ध्यान में रख कर की जाती है. मतलब किसान अपनी उपयोग की चीजें अधिक से अधिक उगाएं जिससे उन पर बाजार से खरीदने का आर्थिक बोझ कम से कम पड़े. इसके साथ ही किसान शहरों में खपत होने वाले वो कृषि उत्पाद तैयार करें जिनसे उनकी आमदनी में इजाफा हो.

इसके लिए छत्तीसगढ़ के गांवों में गौठान बनाए जा रहे हैं. हर गांव में गौठान के लिए 3 से 5 एकड़ की जमीन मुहैया करायी जा रही है. गौठानों के प्रबंधन के लिए प्रति माह 10 हजार रुपये दिए जा रहे हैं. अभी तक 1500 गांवों में गौठान बनाए जा चुके हैं. बायोगैस प्लांट और कंपोस्ट खाद तैयार करने की व्यवस्था की जा रही है. सरकारी जमीन पर चारागाह विकसित किए जा रहे हैं. ये बहुत बड़ा प्रयोग है. और इसके सकारात्मक नतीजे भी सामने आ रहे हैं. अब सड़कों पर आवारा घूमने वाले मवेशियों की संख्या घट रही है. आवारा मवेशियों की वजह से किसानों की फसल तबाह हो जाती हैं. लेकिन अब ऐसी घटनाएं कम हो रही हैं. जैविक खाद की वजह से जैविक खेती को बढ़ावा मिल रहा है.

कम शब्दों में कहें तो छत्तीसगढ़ की सरकार ने बड़ा दांव खेला है. ये वो दांव है जो बिहार में नीतीश कुमार खेलना चाहते थे, लेकिन खेल नहीं सके. वो कृषि आधारित अर्थव्यवस्था विकसित करना चाहते थे, लेकिन कर नहीं सके. छत्तीसगढ़ सरकार उस मूर्त परिकल्पना को मूर्त रूप दे रही है. अगर यह प्रयोग कामयाब हुआ तो हमारे पास विकास का एक मानवीय मॉडल होगा. वो मॉडल जिसमें गांवों का सम्मानजनक अस्तित्व होगा. लोगों को रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन नहीं करना होगा. गांव उन्हीं जरूरतों के लिए शहरों पर निर्भर होंगे जो जरूरतें वहां पूरी नहीं हो सकेंगी.

वैसे भी देखा जाए तो अगर सम्मानजनक रोजगार हो, सम्मानजनक आमदमी हो, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था हो तो फिर कोई अपना गांव-घर छोड़ कर शहरों में मजदूर बनना नहीं चाहेगा. गांव के साफ वातावरण को छोड़ कर शहरों के स्लम में जीवन गुजारना नहीं चाहेगा. फिर वही लोग गांवों से दूर जाएंगे जो अधिक महत्वाकांक्षी होंगे. आम आदमी की ख्वाहिशें तो बहुत थोड़ी होती हैं. विकास के छत्तीसगढ़ी मॉडल में वही थोड़ी सी ख्वाहिशें हैं. वो ख्वाहिशें जो इंसान को इंसान बनाए रखेंगी. मशीन नहीं. इसलिए इस मॉडल की कामयाबी बहुत जरूरी है, क्योंकि इसमें भविष्य की संभावनाएं छिपी हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा चुके हैं.)

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