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BLOG: जमीन जायदाद के कागजों से भी गायब हैं औरतें

खबर पढ़कर अच्छा लगा कि देश के कुछ राज्य सजग हो रहे हैं. लक्षद्वीप और मेघालय देश के ऐसे दो सबसे अच्छे राज्य हैं जो औरतों को लैंड राइट्स दे रहे हैं. लक्षद्वीप में 31.1 फीसदी और मेघालय में 26 फीसदी औरतों के पास, अपने नाम पर जमीन या मकान है. भुवनेश्वर के सेंटर फॉर लैंड गर्वनेंस ने एक स्टडी के बाद यह कहा है. इस स्टडी के लिए सेंटर ने 2011 के एग्रीकल्चर सेंसस, सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे वगैरह का इस्तेमाल किया था. यूं इस खबर से ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है. देश का औसत निकाला जाए तो सिर्फ 12.9 फीसदी औरतों को जमीन पर हक है. उस पर भी उनके पास जमीनों के छोटे टुकड़े हैं. पुरुषों के पास अगर औसत 1.18 हेक्टेयर जमीन है तो औरतों के पास एक हेक्टेयर से भी कम.

लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि औरतें जमीनों पर काम नहीं करतीं. देश में महिला किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है. नाम पति का, बेटे या परिवार-समुदाय के दूसरे सदस्य का. काम करने वाली वही. 2015 के आंकड़े कहते हैं कि भारत की 98 मिलियन औरतें कृषि क्षेत्र से जुड़ी हैं. सेंसस के डेटा के विश्लेषण के बाद पता चला था कि 2001 में जहां महिला खेतिहर मजदूरों की संख्या 49.5 मिलियन थीं, वहीं दस सालों में उनमें 24 फीसदी का इजाफा हुआ और उनकी संख्या बढ़कर 61.6 मिलियन हो गई. मतलब 100 में से 80 औरतें खेती करती थीं लेकिन सिर्फ 13 के पास अपनी जमीन थी.

कुल मिलाकर, औरतें जमीन-जायदाद के कागजों से गायब हैं. इसीलिए कभी भी बेदखल कर दी जाती हैं. बेदखल नहीं की जातीं तो खेती करने के लिए बैंकों से कर्ज नहीं ले पातीं. सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पातीं. फिर गरीबी के चंगुल से निकलना मुश्किल होता है. लोग जानते तक नहीं कि मर्द किसानों के अलावा, औरत किसान भी आत्महत्याएं करती हैं. लेकिन उन्हें चूंकि किसान कहा ही नहीं जाता, इसलिए सरकारी मुआवजा तक नहीं मिलता. वजह सिर्फ यही है कि उनके नाम जमीन होती ही नहीं. पति के मरने के बाद भी नहीं. चूंकि जमीन पर नाम चढ़वाना और भी खर्चीला सौदा है.

महिला किसान किसी को नजर नहीं आती. अखबारों-चैनलों से लेकर आम लोगों तक को. सरकारी डाक टिकट पर धान की बालियां उठाए मर्द किसान ही नजर आता है. सामने लिखा होता है, जय किसान. अपने देश की धरती से सोना उगलवाने का काम वही करता है. टमाटर-आलू सड़कों पर फेंकता भी वही दिखाई देता है. आंदोलन करता और पुलिस से लाठियां खाता भी. मदर इंडिया फिल्म टीवी पर आप बार-बार देखते हैं लेकिन उसमें बिरजू की मां ज्यादा दिखाई देती है, हल लगाती औरत कम. औरत पत्नी बनने के बाद सीधा मां बनती ही दिखाई देती है. खेतों में निराई-गुड़ाई तो मानो उसका टाइमपास ही है. यह बात और है कि अक्सर फुलटाइम वर्क उसका वही होता है, घर-गृहस्थी का काम एडीशनल. तभी घर का चूल्हा भी जलता है और एडीशनल काम भी पूरा हो पाता है.

औरतें मवेशी भी संभालती हैं, पोल्ट्री का काम भी करती हैं, वर्मी कंपोस्टिंग से लेकर मछलियां पालती हैं, बाग बगीचे संभालती हैं, सब खेती से जुड़े काम ही हैं. अक्सर मर्द जब काम की तलाश में शहरों को पलायन करते हैं तो घर-खेत को औरत के ही भरोसे छोड़ जाते हैं. पति के न होने पर औरत के नाम जमीन हो, अलग बात है. लेकिन पति के होते उस पर औरत का नाम मुश्किल ही होता है. 2005 के हिंदू सक्सेशन एक्ट ने रास्ता कुछ साफ जरूर किया है लेकिन इसे जमीनी स्तर पर उतारना अभी बाकी है. आंध्र प्रदेश ने औरतों के नाम सिंगल पट्टा करने का काम किया है और उड़ीसा जैसे दूसरे राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. 2013 के लैंड रिफॉर्म पॉलिसी का कहना है कि सभी नई जमीनों और आवासों में महिलाओं के नाम पर सिंगल पट्टा होना चाहिए. बजाय इसके कि उसे ज्वाइंट रखा जाए. पर यह काफी नहीं है. अक्सर बेटियों को जायदाद में हिस्सा न देना पड़े, इसका नुकसान कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध को जन्म देता है. इसीलिए होना यह चाहिए कि आदमियों के सिंगल पट्टे को शादी के बाद ज्वाइंट पट्टे में बदल दिया जाए. दुखद यह है कि कृषि केंद्रित उत्तर भारतीय राज्यों में औरतों की हालत जमीन के मामले में बहुत खराब है. उत्तर प्रदेश में सौ में सिर्फ 6.1 औरतों के नाम जमीन है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में यह आंकड़ा 8.6 और 7.1 का है. पंजाब में हालत सबसे बुरी है. यहां औसत 0.8 औरत के पास अपने नाम की जमीन है. ऐसे में लक्षद्वीप कुछ संतोष देता है. यहां 43.7 फीसदी परिवारों की मुखिया औरते हैं. महिलाओं में साक्षरता दर 87.95 फीसदी है. 2016 में वहां संज्ञेय अपराधों की संख्या सिर्फ 36 थी और कन्विक्शन यानी दोषसिद्धि की दर 61 फीसदी थी.

जब औरतों के नाम जमीन होती है तो क्या होता है. संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स के अनुसार किसी देश में औरतों को जमीन के हक मिलते हैं तो गरीबी खत्म होती है. खाद्य सुरक्षा बढ़ती है. बच्चे हेल्दी होते हैं. औरतों-आदमियों में बराबरी होती है. शहर और बसाहटों में समृद्धि आती है. यूएसएड के लिए तैयार की गई एक स्टडी लैंड टेन्योर, प्रॉपर्टी राइट्स एंड जेंडर में कहा गया है कि जिन महिलाओं के अपने नाम पर जमीन होती है, उनका सेल्फ एस्टीम ऊंचा होता है, वे स्थानीय सरकार और प्रशासन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं और निवेश के लिए स्वतंत्र होती हैं. वियतनाम में समृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि वहां 68 फीसदी औरतों के पास अपने नाम की जमीन है. वह भी कृषि प्रधान देश है, लेकिन आदमी और औरत लगभग बराबरी से खेती करते हैं. कृषि क्षेत्र 58 फीसदी औरतों और 51 फीसदी आदमियों को रोजगार देता है.

औरतों के नाम जमीन के पट्टे लिखाने इसलिए भी जरूरी हैं क्योंकि ये उनका हक है. आपको पसंद हो या न हो, उनकी पसंद और हक उन्हें मिलना ही चाहिए. वे इसे खुद ही हासिल कर सकती हैं. आप पैनल मे उन्हें बिठाए न बिठाएं, उनकी तस्वीरें छापें न छापें, डाक टिकट से लेकर सरकारी दस्तावेजों में उनके चेहरे नजर आएं न आएं, अपनी किसानी का हक वे लेकर ही रहेंगी.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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