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Blog: पहला हक अपनी सेहत का ही है

 

हमारी सेहत की किसी को चिंता नहीं- न घर-परिवार वालों को, न सरकार को. पता चला है कि देश की हर सात में से एक औरत को प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया गया. और तो और, इनमें से आधी औरतों को अस्पताल में प्रॉपर हेल्थ सर्विस सिर्फ इसलिए नहीं मिली क्योंकि उनके पति या फैमिली वालों ने इसे जरूरी नहीं समझा. उन्हें लगा कि प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल जाने की जरूरत ही क्या है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 4 के डेटा ये कहते हैं. प्राइवेट एजेंसियां तो इससे भी बुरा हाल बयान करती हैं. इसीलिए यह सिर्फ हमारा रोना नहीं है. हर तरफ एक सी आवाजें हैं.

पर आवाजें कान नहीं फाड़तीं. सभी ने कानों पर हाथ धरा हुआ है. आंकड़े बताते हैं कि प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल न जाने का क्या खतरा हो सकता है. अस्पताल जाने पर औरत को एंटीनेटल केयर मिलती है. इसे एएनसी कहते हैं. मतलब डॉक्टर की पूरी सेवा. डॉक्टर पूरी जांच करता है और अगर मां-बच्चे को कोई खतरा होता है तो पता चल जाता है. वहां हाइपरटेंशन और डायबिटीज की जांच की जाती है. आयरन और फॉलिक एसिड की गोलियां दी जाती हैं. टिटनस टॉक्साइड के इंजेक्शन दिए जाते हैं. क्या खाएं-पिएं- यह बताया जाता है. देश के गांवों में सिर्फ 16.7% औरतों को पूरी एंटीनेटल केयर मिल पाती है. जबकि शहरी इलाकों में 31.1% औरतों को यह सेवा मिलती है.

डब्ल्यूएचओ क्या कहता है... उसका कहना है कि हर प्रेग्नेंट औरत को यह लाभ मिलना चाहिए. उसे प्रेग्नेंसी के दौरान कम से कम चार बार अस्पताल जरूर जाना चाहिए. इसमें पहला दौरा प्रेग्नेंसी के पहले तीन महीने में होना चाहिए. पर यह तब होगा, जब घर वाले और पति इसे जरूरी समझेगा. इसके लिए पति-परिवार को शिक्षित होना चाहिए. उसे बीवी और होने वाले बच्चे- चाहे उसका जेंडर कोई भी हो- की पूरी चिंता होनी चाहिए. चिंता हो तो पैसे भी होने चाहिए. मतलब कई फैक्टर्स हैं जो काम करते हैं. अक्सर औरत अपनी सेहत के बारे में फैसला लेने की स्थिति में ही नहीं होती. इसका फैसला परिवार या पति करता है.

न्यूयॉर्क के एशिया पेसेफिक जरनल ऑफ पब्लिक हेल्थ में पब्लिश एक आर्टिकल में कहा गया है कि भारत में 48.5% औरतें अपनी सेहत के बारे में खुद फैसले नहीं लेतीं. इस आर्टिकल का टाइटिल है- विमेन्स ऑटोनॉमी इन डिसिजन मेकिंग फॉर हेल्थ केयर इन साउथ एशिया. इसकी वजह यह भी है कि शहरी इलाकों में सिर्फ 14.7% और ग्रामीण इलाकों में 24.8% औरतें लेबर फोर्स का हिस्सा हैं. तो, जब कमाती नहीं तो कई बार फैसले लेने के लिए आजाद भी नहीं होतीं. आर्थिक आजादी, दूसरी सभी तरह की आजादियों की शुरुआत जो होती है.

लेकिन सिर्फ परिवार वालों का ही अकेला दोष क्यों है... प्रशासन, सरकार भी उनींदा बैठा है. जो हम पहले से जानते हैं, उसके लिए तथ्यों की छान-फटक की क्या जरूरत है! फिर भी आंकड़े कहते हैं कि देश में जीडीपी का 4% के बराबर खर्च हेल्थ सेक्टर पर किया जाता है. इसमें सरकार की तरफ से 1.3% खर्च किया जाता है और प्राइवेट सेक्टर की तरफ से 2.7%. मतलब सरकार देश में लोगों की सेहत पर एक तिहाई खर्च करती है. वर्ल्ड हेल्थ स्टेटिस्टिक्स का कहना है कि दूसरे विकासशील देशों से तुलना की जाए तो भारत में हेल्थ सेक्टर पर सरकार बहुत कम खर्च करती है. दूसरी तरफ ब्राजील अपने लोगों की सेहत के लिए 46%, चीन 56% और इंडोनेशिया 39% खर्च करता है.

सेहत पर कम खर्च किया जाए तो इसका सीधा असर औरतों और बच्चों पर पड़ता है. पिछले साल के इकोनॉमिक सर्वे ने खुद इस बात को माना था. चूंकि औरतें हर मामले में परिवार में सबसे बाद में आती हैं. मर्द, बच्चे, बूढ़े.. तब उनका नंबर आता है. खान-पान से लेकर हेल्थ सर्विस उन्हें सबसे बाद में मिलती है. फिर जहां हेल्थ सर्विस की जरूरत ही न समझी जाए- वहां क्या कहना.

जरूरत कोई नहीं समझता. गांवों में प्रेग्नेंट औरतों, बच्चों को दूध पिलाने वाली माताओं को सरकारी सेवाएं कौन मुहैय्या कराती हैं? आंगनवाड़ी वर्कर्स और आंगनवाड़ी हेल्पर्स. आलम यह है कि 11 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों ने 2015 से इनकी सैलरी ही नहीं बढ़ाई है. सरकार की एकीकृत बाल विकास योजना इन्हीं ऑनेररी वर्कर्स के भरोसे चलती है. अगर इन लोगों की सुनवाई नहीं होगी तो कोई यह काम क्यों करना चाहेगा... इसी से तीन साल में इनकी संख्या 7% कम हुई है.

यूं औरतों की सेहत बहुत सी दूसरी बातों पर भी निर्भर है. देश इतना बड़ा और विविध है तो समस्याएं भी तमाम तरह की. हर राज्य में अपने किस्म की. नॉर्थ ईस्ट में सेहत इस बात पर भी निर्भर है कि ट्रांसपोर्ट नहीं है और रास्ते मुश्किल हैं. उत्तर भारत में दलित होने के नाते सही देखभाल नहीं मिल पाती क्योंकि दाइयां या डॉक्टर उसे हाथ लगाना पसंद नहीं करते. बिहार, पश्चिम बंगाल, जैसे बहुत से राज्यों में हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स का रवैया औरतों को अस्पतालों में जाने से रोकता है. वहां उन्हें गाली-गलौच, मार-पीट तक का सामना करना पड़ता है. आदिवासी बहुल इलाकों में प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स आस-पास होते ही नहीं. बाकी पैसे की कमी तो एक बड़ा फैक्टर है ही. ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क की स्टडीज़ का यह कहना है.

दिक्कतें कई हैं. उनसे निजात पाने का तरीका सबका अलग-अलग हो सकता है. लेकिन एक तरीका कई तरीकों को रास्ता दिखा सकता है. वह तरीका है एकजुटता का. अपने परिवेश के प्रति सजग हो औरतें फैसलें ले तो काफी हद तक अपनी कठिनाइयों को हल कर सकती हैं. परिवार, समाज में संघर्ष कर सकती हैं. बदलते दौर ने पुरुष सत्ता को धकेल कर पीछे किया है और औरत सत्ता को साबित किया है. औरतों की उपलब्धियों ने तमाम तरह की सत्ताओं को झांपड़ रसीद किए हैं. तो, अपना हक मांगना जरूरी है. पहला हक अपनी सेहत का ही.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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