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हवा में ज़हर– अपना-अपना नज़रिया, अपने अपने मायने
हर साल दिवाली के बाद आतिशबाजी से फैले प्रदूषण और जहरीली होती हवा का ज़िक्र होता है और इसके आंकड़े जारी होते हैं. इस बार भी हो रहा है और पाया गया कि दिल्ली-एनसीआर की हवा दो दिनों तक सांस लेने लायक नहीं रही. एहतियातन ये निर्देश भी जारी किए गए कि बीमार और बुजुर्ग दो तीन दिन घर से बाहर न निकलें.
लेकिन, क्या आप जानते हैं कि दिवाली के बाद से आने वाले कुछ महीनों तक पूरे वातावरण में वो कौन सी गैस और कौन सा धुआं फैलने वाला है जो आपके लिए खतरनाक साबित होगा? दिवाली तो आपके लिए दो दिनों की मुसीबत लाती है लेकिन, जिस धुएं की बात हो रही है वो कुछ महीनों तक आपके फेफड़ों में कुछ इस कदर समा जाएगा.
जिससे आपको ढेर सारी बीमारियां हो सकती हैं. सांस लेने में मुश्किल आ सकती है और साफ साफ दिखने में भी परेशानी हो सकती है. ये हम नहीं कह रहे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी बीसीबी कह रहा है. दरअसल ये धुआं उठना शुरू हो चुका है.
पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों से उठकर ये धुआं एक घने कोहरे की चादर की तरह पूरी दिल्ली और आसपास के इलाके को अपनी गिरफ्त में ले लेता है. पिछले कई सालों से ये सिलसिला चल रहा है और इस बार भी तमाम नियम कानूनों के बावजूद इस धुएं को रोक पाना सरकार और प्रशासन के लिए मुश्किल हो रहा है.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इस बार इस खतरे को लेकर बेहद सतर्क है. बार बार सरकार को चेतावनी दे रहा है और खेतों में खराब फसलें, कूड़ा और खराब कीटनाशक जलाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने को लेकर दबाव बना रहा है. सुप्रीम कोर्ट पहले ही सरकारों को निर्देश चुका है कि किसानों को इससे रोका जाए.
लेकिन, तमाम बंदिशों के बावजूद किसान लगातार अपने खेत में पराली(पैडी) जला रहे हैं. हरियाणा में खराब और सूख चुकी फसलों को इसी नाम से जाना जाता है. सैटेलाइट से जो तस्वीरें सामने आ रही हैं उसमें हरियाणा और पंजाब के कई गांवों में जगह जगह खेतों में लपटें उठ रही हैं और धुएं का गुबार फैल रहा है.
अगर आंकड़ों पर गौर करें तो हर साल करीब 10 करोड़ टन गेहूं और धान की पराली के अलावा गन्ने के पत्ते खेतों में जलाए जाते हैं. ऐसी पराली करीब 50 करोड़ टन निकलती है लेकिन इनमें से करीब 40 करोड़ टन का इस्तेमाल तो पशुओं के चारे के लिए किया जाता है, बाकी 10 करोड़ टन पराली हर साल जला दी जाती है. अब आप सोचिए, इतनी बड़ी मात्रा में यह कूड़ा जलाए जाने का असर कहां और कैसे होगा.
दरअसल किसानों का इसमें उतना कसूर नहीं है जितना सरकारों का और स्थानीय प्रशासन का, या फिर पर्यावरण बचाने के नाम पर चल रहे बड़े बड़े एनजीओ का. जबतक आप किसानों को इस समस्या से निपटने का तरीका नहीं बताएंगे तो वो आखिर जाएंगे कहां और करेंगे क्या. उनके लिए सबसे आसान होता है खराब फसलों को जला देना.
इससे खेत की सफाई भी हो जाती है और कूड़ा यहां वहां ले जाने का झमेला भी खत्म हो जाता है. लेकिन, उनके लिए मुसीबत बन रहा है इससे उठने वाला धुआं. यह धुआं दिल्ली और एनसीआर में रहने वाले लोगों के लिए मुश्किल पैदा कर रहा है और पर्यावरण बचाने के नाम पर काम कर रही संस्थाओं के लिए एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है.
इस मुद्दे पर किसानों में भारी असंतोष है. भारतीय किसान यूनियन के अलावा कई किसान संगठन तो पराली जलाने पर लगाए जाने वाले जुर्माने और सरकारी बंदिशों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं. उनका कहना है कि नियम चाहे जो हो, कूड़ा तो हम खेत में ही जलाएंगे.
अब किसानों को ये बताने की कोशिश हो रही है कि फसलों के अवशेष जलाने से उन्हीं के खेतों और मिट्टी को नुकसान पहुंचता है. एक टन पराली जलाने से खेतों की मिट्टी से 5.5 किलो नाइट्रोजन, 2.3 किलो फॉस्फोरस, 25 किलो पोटैशियम और सवा किलो सल्फर नष्ट हो जाता है जिससे आने वाली फसलों को नुकसान होता है.
बेहतर यही होगा कि किसान इन अवशेषों या पराली का इस्तेमाल खाद बनाने में करें. जाहिर है इतना तकनीकी ज्ञान अगर हमारे किसानों को होता तो उन्हें इतनी मुसीबत उठाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती. जाहिर सी बात है प्रदूषण के नाम पर बड़े बड़े खेल होते हैं. सेहत के नाम पर आपको खूब डराया भी जाता है और सरकार एक बड़ा बजट इसके लिए हर साल निकालती भी है.
ऐसे में अगर लोग आतिशबाजी या पटाखे चलाना नहीं बंद करते, किसान फसलें जलाना नहीं बंद करते या प्रदूषण के खतरनाक आंकड़ों से नहीं डरते तो कोई क्या कर लेगा. कोर्ट फरमान जारी करेंगे, सरकारें ढुलमुल तरीके से इसपर कथित तौर पर अमल करेंगी, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपनी औपचारिकताएं निभाएगा और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल हरियाली लाने के अपने अभियान के लिए चिंता जाहिर करता रहेगा लेकिन परंपराएं चलती रहेंगी. धुआं तो धुआं है. आएगा और चला जाएगा. डरने से क्या फ़ायदा. मस्त रहिए.
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आनंद कुमार, राजनीतिक विश्लेषक
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