BLOG: किसानों की कर्ज माफी समस्या का समाधान नहीं

मध्य प्रदेश औऱ महाराष्ट्र में किसान आंदोलन का एक और दिन निकल गया. किसान आंदोलन पर हैं और नेता आंदोलन के फ्रंट पर. राजनीति जमकर हो रही है. पीएम मोदी तो देश के किसानों को दिलो जान से चाहते हैं. जहां कहीं जाते हैं किसानों की बात करते हैं. किसानों को अपना मानते हैं, उनकी चिंता को अपनी चिंता, अपने दर्द को अपना दर्द समझते हैं लेकिन उनके सामने हो क्या रहा है?
मध्य प्रदेश का किसान खेती छोड़कर सड़क पर आंदोलन कर रहा है. महाराष्ट्र के किसान आए दिन खुदकुशी कर रहे हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने किसानों से वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो किसानों को फसल लागत मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक मुनाफा मिलेगा. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए और अपनी सभाओं में अक्सर साल 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने की बात करते हैं, लेकिन आमदनी बढ़ाने का जो चुनाव में वादा किया था वो अब तक पूरा नहीं हुआ है.
सिर तक कर्ज में डूबा किसान सरकार से कर्ज माफी के लिए आंदोलन पर उतारू है. सवाल है कि सरकार को किसानों का कर्ज माफ करने में क्या मुश्किल है. क्या कर्जमाफी से किसानों की मुश्किलें खत्म हो जाएंगी?
महाराष्ट्र हो या मध्य प्रदेश किसान कर्ज माफी को लेकर आंदोलन कर रहे हैं और इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश में नई सरकार द्वारा किसानों के कर्ज माफ कर देने के बाद हुई. किसानों की मांग है कि जब यूपी सरकार अपने किसानों को कर्जमुक्त कर सकती है तो बीजेपी शासित मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सरकारें क्यों नहीं? खासतौर पर जिन राज्यों में कर्ज माफी को लेकर मांग उठी है पहले वहां के कर्ज का हिसाब जान लीजिये.
राजस्थान में 85 लाख किसान परिवार हैं जिन पर 82 हजार करोड़ का कर्ज है. हरियाणा में 15.5 लाख किसानों पर 56 हजार करोड़ का कर्ज हैं. महाराष्ट्र में 31 लाख किसानों पर 30 हजार करोड़ का कर्ज है. मध्य प्रदेश में किसानों पर 74 हजार करोड़ की देनदारी है जबकि यूपी के किसानों पर करीब 86 हजार करोड़ बकाया है. यानी सिर्फ इन 5 राज्यों में ही 3 लाख 28 हजार करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है. सवाल उठता है कि किसानों की कर्जमाफी में आखिर परेशानी क्या है? और उससे भी बड़ा सवाल आखिर 3 लाख 28 हजार करोड़ रुपये आएंगे कहां से?
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में आज जो हो रहा है शायद वो नहीं होता अगर यूपी में 36 हजार करोड़ की कर्ज माफी का फैसला नहीं हुआ होता. हालांकि कर्ज माफी अभी तक हुई नहीं है लेकिन मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसान पूछ रहे हैं कि अगर यूपी में हो सकता है तो उनका क्यों नहीं. कर्ज माफी की राजनीति तब हो रही है जब किसी को पता नहीं कि कर्ज माफी कैसे करना है. अर्थव्यवस्था भी तो इसकी इजाजत नहीं देती है.

योगी सरकार ने अप्रैल में सरकार बनते ही जब यूपी के किसानों का करीब 36 हजार रुपये का कर्ज माफ किया तो इस पर एक नई बहस शुरू हो गई. सरकार के फैसले से किसान तो खुश थे लेकिन अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना था कि कर्जमाफी किसानों की समस्या का समाधान नहीं है.
जानकारों का मानना है कि जिन लोगों ने बैंकों से कर्ज लिए हैं, वो उसे चुकाएंगे नहीं क्योंकि उन्हें उम्मीद जग गई है कि आगे चलकर उनके कर्ज भी माफ हो सकते हैं. इस तरह की कर्ज माफी से बैंकों के कर्ज देने की व्यवस्था पर और बोझ बढ़ेगा जिसके बाद बैंक उन लोगों को कर्ज देने से कतराएंगे, जो पुराना कर्ज नहीं चुका रहे हैं.
साल 2008 में यूपीए सरकार ने किसानों के करीब 55 हजार करोड़ के कर्ज माफ किये थे. इसी तरह 2014 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य की सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ किए थे. इसका बैंकिंग पर बहुत बुरा असर देखने को मिला. बैंकों को अपना हिसाब-किताब साफ करने में बरसों लग जाते हैं. कर्ज लेने वाले और बैंक के बीच भरोसा भी इससे कमजोर होता है. इतना कुछ होने के बाद भी किसानों की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ. किसानों की कर्जमाफी के बाद भी महाराष्ट्र में साल 2010 में 3141 किसान, साल 2012 में 3786 किसान, साल 2013 में 3146 और साल 2014 में 2568 किसानों ने आत्महत्या की.
यही वजह है कि रिजर्व बैंक और दूसरे बैंक कर्ज माफी का हमेशा विरोध करते रहे हैं. रिजर्व बैंक गवर्नर उर्जित पटेल की अगुवाई वाली मौद्रिक नीति समिति की दो दिनों की बैठक में 7 जून को राज्य सरकारों की ओर से किसानों के लिए कर्ज माफी का मुद्दा उठा.

रिजर्व बैंक के गर्वनर उर्जित पटेल ने कहा कि किसानों के कर्ज माफ करने से देश की राजकोषीय स्थिति पर दबाव बढ़ सकता है. कृषि ऋण माफी का फैसला राजकोषीय घाटे को काबू में करने की दिशा में पिछले दो सालों में जो काम किया गया है, उसे बेकार कर देगा. उर्जित पटेल ने किसानों के कर्ज माफ करने पर देश की राजकोषीय स्थिति में गिरावट आने की आशंका को लेकर चिंता जताई. उनके मुताबिक, बड़े पैमाने पर कृषि ऋण माफी की घोषणाओं से राजकोषीय स्थिति बिगड़ने और मुद्रास्फीति बढ़ने का जोखिम बढ़ा है.
रिजर्व बैंक ने पहली बार ये चिंता नहीं दिखाई है. कर्ज माफी की वजह से कर्ज चुकाने की संस्कृति पर असर पड़ने की चेतावनी रिजर्व बैंक पहले ही दे चुका है. अब रिजर्व बैंक का कहना है कि इससे महंगाई दर बढ़ने का खतरा हो सकता है जो आम आदमी के लिए अच्छी खबर नहीं है. महंगाई दर बढ़ी तो ब्याज दर में कमी करने का रास्ता बंद हो जाएगा.
आपको याद होगा कि हाल ही में स्टेट बैंक की प्रमुख अरुंधती भट्टाचार्य ने भी कर्ज माफी को लेकर चेतावनी दी थी. उन्होंने कहा था कि ऐसे कदम से लोग कर्ज चुकाने से कतराएंगे. भट्टाचार्य ने कहा कि कर्ज माफ करने से एक बार तो सरकार किसानों की तरफ से पैसे भर देती है मगर उसके बाद जब किसान कर्ज लेते हैं तो वो अगले चुनाव का इंतजार करते हैं, इस उम्मीद में कि शायद उनका कर्ज माफ हो जाए.
कर्ज माफी के जोखिम बहुत हैं लेकिन किसानों की हमदर्दी की राजनीति की कीमत पर कर्ज माफी का वादा सरकारों को सुहाना लगता है. मोदी सरकार ने कर्ज माफी की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई है लेकिन बजट में किसानों को 10 लाख करोड़ कर्ज देने का लक्ष्य तय कर दिया, मतलब इस साल जितना कर्ज बंटेगा उतना अगले सालों में माफ भी करना होगा.
2014 में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सवाल उठाया था कि कर्ज माफी के ऐसे फैसले कितने कारगर रहे हैं? तमाम रिसर्च ये कहते हैं कि कर्ज माफी बुरी तरह नाकाम रही है. ऐसे फैसलों के बाद किसानों को कर्ज मिलने में भी दिक्कत होती है.
ऐसा नहीं है कि कर्ज माफी हमेशा ही खराब नहीं होती. आर्थिक हालात जब बेहद खराब हो जाएं तो ऐसे में कई बार कर्ज माफी जरूरी भी हो जाती है, जैसे कुदरती आफत के दौरान अगर फसलों को भारी नुकसान हो तो कर्ज माफी से किसानों को बड़ी राहत मिलती है. मगर इसे चुनाव जीतने के हथकंडे के तौर पर नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
अक्सर एक सवाल पूछा जाता है जब बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ किया जा सकता है, तो किसानों का क्यों नहीं? के वी थॉमस की अध्यक्षता वाली लोक लेखा समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार कुल 6.8 लाख करोड़ रुपये की गैर-निष्पादित संपत्तियां यानी एनपीए में से 70 फीसदी बड़े कॉरपोरेट घरानों के पास हैं और मुश्किल से इसका एक फीसदी किसानों के पास है. दिलचस्प बात यह है कि इनमें से ज्यादातर बुरे कर्ज बड़े कार्पोरेट-इस्पात, ऊर्जा, इन्फ्रास्ट्रक्चर और टेक्सटाइल क्षेत्र के पास हैं. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग का अनुमान है कि वर्ष 2011 से 2016 के बीच पिछले पांच वर्षों में बड़ी कार्पोरेट कंपनियों द्वारा लिए गए 7.4 लाख करोड़ रुपये के कर्ज में से चार लाख करोड़ रुपये के कर्ज को बट्टे खाते में डाला जा सकता है.

ध्यान रहे, ऐसा पहली बार नहीं है कि बैंक बड़ी कंपनियों को दिए कर्ज को बट्टे खाते में डालने जा रहे हैं. अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा का कहना है कि जब कॉरपोरेट घरानों के कर्ज पर सरकार मेहरबान हो सकती है तो किसानों को राहत क्यों नहीं मिल सकती है. लेकिन एक गलती को दूसरी गलती के लिए जायज नहीं ठहराया जा सकता. अगर कारोबारियों ने बैंकों को ठगने का काम किया है और बैंक के अफसर इस धोखाधड़ी में शामिल रहे हैं, तो इसकी जांच पड़ताल होनी चाहिए. पैसे वसूले जाने की कोशिश होनी चाहिये, इतना ही नहीं सरकार को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिये पर गलतियों को बार-बार दुहराया जाए ऐसा तो नहीं हो सकता.
सरकार अगर किसानों की मदद करना चाहती है तो उसे ऐसे तरीके अपनाने होंगे जिससे किसानों को नुकसान ना हो. सरकार को ये कोशिश करनी पड़ेगी कि किसानों को उनकी उपज की सही कीमत मिले. किसी किसान को बाजार तक पहुंचने में कोई वक्त ना लगे. किसानों को दलालों से मुक्ति मिले. कर्ज माफ करने के बजाय सरकार को चाहिये कि वो किसानों को मुफ्त में खाद, बीज और खेती में इस्तेमाल होने वाली जरूरी मशीनें मुहैया कराये. कर्ज माफी किसानों की दिक्कतों का कोई हल नहीं. ऐसा भी नहीं है कि मोदी सरकार ने अनदेखी की है. मोदी सरकार ने कृषि एवं किसान कल्याण के लिए बजट आवंटन में इस साल भारी इजाफा किया है. 2015-16 में जो 15,809 करोड़ रूपए था उसे बढ़ाकर 2016-17 में 35,984 करोड़ रूपए कर दिया है. हालांकि सच्चाई यही है कि किसानों की हालत में सुधार नहीं हुआ है, पर किसानों की कर्ज माफी तो किसानों की समस्या का तो कतई समाधान नहीं है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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