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BLOG: क्या कानूनों पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है?

गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (संशोधन) विधेयक में भी पुरानी व्यवस्था की ही तरह प्रावधान किया गया है कि सरकार किसी को भी मात्र आतंकवादी संगठन से जुड़े होने के शक के आधार पर आतंकवादी घोषित कर सकती है.

लगता है कि अब विपक्षी दल चाहे सदन से वॉकऑउट करें, विरोध करें, हो-हल्ला मचाएं, बहस करें या सिर पटक लें, बीजेपी की अगुवाई वाला केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए अपने मनमुताबिक सभी संशोधन विधेयक पारित करवा के ही मानेगा. पिछले दिनों संसद में सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2019, गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (संशोधन) विधेयक, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) संशोधन विधेयक विपक्ष की सारी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए एक या दोनों सदनों में तूफानी गति से पारित कर दिए गए.

चूंकि सूचना का अधिकार कानून संसद में लंबी बहस और स्थायी समिति में सभी दलों की गहन चर्चा के बाद बनाया गया था, इसलिए कायदे से इसमें कोई भी संशोधन इसके सभी पहलुओं को ठोक-बजाकर ही किया जाना चाहिए था. चर्चा के लिए संशोधन विधेयक को स्थायी या प्रवर समिति में भेजना चाहिए था. लेकिन जनता की लाठी के तौर पर बनाए गए इस कानून में संशोधन ध्वनिमत से ही पारित कर दिए गए. जनतंत्र की विडंबना देखिए कि इसे प्रवर समिति में भेजने के लिए लाए गए विपक्षी सदस्यों के प्रस्ताव को 75 के मुकाबले 117 मतों से खारिज कर दिया गया. गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (संशोधन) विधेयक लोकसभा में विपक्ष के वॉकऑउट के बीच 8 के मुकाबले 287 मतों से पारित करा लिया गया. हर सवाल का सत्ता पक्ष के पास एक ही जवाब है- पहले भी ऐसा होता था.

सवाल बीजेपी, कांग्रेस अथवा किसी अन्य राजनीतिक दल का है ही नहीं. लोकतंत्र में कोशिश यह होनी चाहिए कि कानून बनाते या संशोधित करते समय जनता के पक्ष में पलड़ा ज्यादा से ज्यादा झुका होना चाहिए. लेकिन यहां साफ दिखाई दे रहा है कि आतंकवाद से सख्ती के साथ निबटने की आड़ लेकर सरकार अपना पलड़ा भारी करना चाहती है. 2008 के मुंबई आतंकी हमलों के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा को सीधा खतरा बनने वाले चुनिंदा आपराधिक मामलों की जांच के लिए एनआईए का गठन किया गया था. लेकिन कानून में संशोधन के बाद अब केंद्र यह सुनिश्चित कर सकता है कि किसी भी राज्य में मानव तस्करी, फर्जी मुद्रा, प्रतिबंधित असलहों का निर्माण, सायबर-आतंकवाद और विस्फोटक पदार्थों से जुड़े अपराधों की जांच उस राज्य की पुलिस की बजाए एनआईए को सौंपी जाए. यह कदम भारत के संघीय ढांचे को कितना कमजोर करेगा, यह देखने और सोचने वाली बात है.

देश से आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधियां निरोधक कानून (टाडा) को खत्म ही इसी बिना पर किया गया था कि उसमें अभियुक्त के ही सिर पर खुद को निर्दोष साबित करने के साक्ष्य और सबूत जुटाने की जिम्मेदारी डाल दी गई थी. जाहिर है, टाडा में सरकार का पलड़ा भारी था और खुद को निर्दोष न साबित कर पाने की सूरत में अभियुक्त के सामने सख्त से सख्त सजा भुगतने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (संशोधन) विधेयक में भी यही व्यवस्था जोड़ दी गई है कि सरकार किसी को भी मात्र आतंकवादी संगठन से जुड़े होने के शक के आधार पर आतंकवादी घोषित कर सकती है.

एक बड़ा सवाल केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और केंद्र सरकार की मंशा का भी है. हमने देखा है कि सत्ता में बैठा कोई भी दल विपक्षियों के कान उमेठने और उन्हें भीगी बिल्ली बना देने के लिए सीबीआई से लेकर आईबी, ईडी, एनआईए जैसी एजेंसियों से किस तरह काम लेता है. ऐसे में विरोधियों को आतंकवादी घोषित करने का अभियान नहीं चला दिया जाएगा, इस बात की क्या गारंटी है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तो स्पष्ट कहा है कि उनके दिल में अर्बन नक्सलियों के लिए कोई दया नहीं है. संशोधित ‘यूएपीए’ के लोगों की आवाज कुचलने का हथियार बन कर रह जाने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता.

आशंका इसलिए भी बलवती होती है कि केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 5 अप्रैल 2018 को ही तैयार कर लिया था लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं कर रही थी. जब 12 जुलाई 2019 को मानसून सत्र के लिए लोकसभा के कार्यदिवसों की सूची जारी की गई तब पता चला कि यह विधेयक भी पेश किया जाना है. इस बिल को लेकर प्री-लेजिस्लेटिव कंसल्टेशन पॉलिसी का पालन नहीं किया गया. नियम के मुताबिक अगर कोई संशोधन या नया विधेयक सरकार लाती है तो उसे संबंधित मंत्रालय या डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है और उस पर आम जनता की राय मांगी जाती है. ऐसा कुछ नहीं हुआ और संसद के बाहर हजारों आरटीआई कार्यकर्ताओं के साथ-साथ कई पूर्व सूचनायुक्तों तथा संसद के अंदर विपक्षी दलों की अनसुनी करके विधेयक दोनों सदनों से पास करवा लिया गया. नए कानून में प्रावधान है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे.

सरकार का तर्क है कि केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत स्थापित एक सांविधिक संस्था है इसलिए इनका कद संवैधानिक संस्था के बराबर नहीं हो सकता. तथ्य यह है कि सूचना आयुक्तों को संवैधानिक संस्था के बराबर दर्जा ही इसलिए दिया गया है कि वे स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करें. सूचना आयुक्तों के पास ये अधिकार होता है कि सबसे बड़े पदों पर बैठे लोगों को भी आदेश दे सकें कि वे एक्ट के नियमों का पालन करें. लेकिन इस संशोधन के बाद अब उनका ये अधिकार छिन जाएगा. अब से केंद्र सरकार यह भी तय करेगी कि केंद्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त कितने साल के लिए पद पर रहेंगे. स्पष्ट है कि यह जनता की आवाज बने एक संस्थान को पिंजरे में कैद करने की कवायद है.

विधिनिर्माता जनता और देश के हक में कानून बनाने और उनमें सुधार लाने के लिए ही चुने जाते हैं. लेकिन विपक्ष को भरोसे में लिए बिना, हितधारकों की आशंकाएं दूर किए बिना कानून में संशोधन करना तकनीकी रूप से तो सही हो सकता है; लोकतंत्र भावना के अनुरूप नहीं कहा सकता. फिर चाहे वे देश की सुरक्षा से जुड़े कानून हों, भूमि अधिग्रहण के कानून हों, समाज को प्रभावित करने वाले कानून हों या पर्यावरण, साइबर सुरक्षा और तकनीकी पहलुओं वाले कानून हों. जाहिर है, नए बदलावों से सूचना आयोग पंगु हो सकता है और इससे जनता की बहुत बड़ी हानि होगी. इस संशोधन के बाद सरकार के लिए कानून में अन्य संशोधन करने के रास्ते खुल जाएंगे और आरटीआई एक्ट का लोगों के लिए महत्व ही शून्य हो जाएगा. -

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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