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आजम खान की जिस केस में गई विधायकी, कोर्ट से बरी होने के बाद जानें अब क्या बचा है विकल्प

समाजवादी पार्टी के नेता और रामपुर के पूर्व विधायक आजम खान को रामपुर की विशेष एमपी-एमएलए कोर्ट ने बुधवार 24 मई को बड़ी राहत दी है. हेट स्पीच से जुड़े एक केस की सुनवाई के बाद आज ही कोर्ट ने सपा नेता को बरी कर दिया है. यह वही केस है, जिसमें उनको सजा मिली थी और इसी वजह से आजम खान अपनी विधायकी गंवा बैठे थे. रामपुर के निचले कोर्ट ने उनको 3 साल की सजा सुनाई थी. विधायकी रद्द होने के बाद उनकी सीट पर उपचुनाव भी हो गया था. अब एक बहस इस बात पर शुरू हो गई है कि आजम को सदस्यता मिलेगी या नहीं. यह अपनी तरह का पहला और अनूठा मामला है, इसलिए संविधान विशेषज्ञ और कानूनविद भी इस पर पशोपेश में हैं. 

अभी सदस्यता बहाली का सवाल नहीं

आजम खान को जिस आरोप के लिए 27 अक्टूबर 2022 को सजा सुनाई गई, वह दो साल से अधिक की थी. दो साल से अधिक की सजा होने पर सदस्यता खत्म करने का प्रावधान है. उस मुकदमे में ही ये बरी हो गए. एमपी-एमएलए कोर्ट के एडीजे की अपीलेट कोर्ट ने इनको आरोपमुक्त कर दिया है. अब कानूनी पक्ष यह है कि वर्तमान में इनकी सदस्यता रद्द होने के पश्चात इनकी सीट पर मतदान भी हो चुका है और नए सदस्य ने तो शपथ भी ले ली है. कानूनी पक्ष से ये कहा जाए कि एक और अड़चन है, आजम खान के सामने. करीबन 15 साल पुराना एक मामला मुरादाबाद में है, जिसमें आजम खान को तीन साल की सजा हो चुकी है. वह मामला अभी भी इन पर भारी पड़ेगा. उस मामले को छजलैट विवाद कहा जाता है. इसमें आजम खान और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम को कोर्ट ने दोषी करार दिया. दोनों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी और दोनों पर 2000 रुपए का जुर्माना भी लगाया गया था. इसी की वजह से अब्दुल्ला की सदस्यता भी गई थी. यह आजम के लिए अड़चन का विषय है. अभी जिस मामले में इनकी रिहाई हुई है, वह मामला भी खुला हुआ है. वह प्रकरण उच्च न्यायालय में जा सकता है. अगर उच्च न्यायालय ने बुधवार 24 मई के आदेश पर हस्तक्षेप किया और स्टे दिया, तो अलग बात है. हालांकि, पहली बार इस तरह की विषम परिस्थिति पैदा हुई है, लेकिन चूंकि इनको एक और प्रकरण में सजा हो चुकी है, तो सदस्यता बहाल होने का तो अभी कोई सवाल ही नहीं होता है. 

संवैधानिक संकट की स्थिति तो है

निश्चित रूप से यह अभूतपूर्व और मौलिक प्रकरण है. इस तरह का मामला पहली बार आया है जिसमें सजा के तौर पर विधायकी गयी, उसको ऊपरी अदालत ने ही रद्द कर दिया. हालांकि, द्रष्टव्य है कि समकक्ष अदालत ने ही एक और ऐसे मामले में आजम खान को सजा हो चुकी है, तो सदस्यता का सवाल अभी नहीं है. पहली बार न्यायालय या विधायी व्यवस्था के समक्ष यह प्रश्न आया है, जहां आरोपी की सदस्यता जिस मामले में रद्द हुई है, वह सजा ही खत्म कर दी गयी है. सामान्य परिस्थितियां होतीं तो उनकी सदस्यता की बहाली का प्रश्न तो उठता ही. इस पूरे मामले में ही कई स्तर पर अभी विचार होना है. कानून में जो रिक्तियां और विसंगतियां हैं, वह अभी पहली बार दिखी हैं तो सुप्रीम कोर्ट को इसे व्याख्यायित करने की जरूरत पड़ेगी. चूंकि विधायिका और न्यायपालिका दोनों ही के सामने इस तरह का सवाल पहली बार उठा है, तो जाहिर तौर पर सुप्रीम कोर्ट की तरफ ही सलाह के लिए लोग देखेंगे. आपको अगर याद हो तो 2013 मेंं सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश के तहत यह व्यवस्था दी थी कि किसी को भी अगर दो या दो से अधिक साल की सज़ा होती है, तो उसकी सदस्यता स्वतः रद्द कर दी जाएगी. ये व्यवस्था भी वहीं से शुरू हुई. इस प्रश्न को लेकर फिर से मंथन वहीं से शुरू होगा ही. 

2013 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला मिसाल

2013 के उस आदेश की वजह से न केवल राहुल गांधी की, बल्कि कई अन्य प्रदेशों में कई जनप्रतिनिधियों की सदस्यता गयी है. राहुल गांधी का विषय इनसे बिल्कुल अलग है. दूसरी किसी अन्य अदालत से इस तरह का आदेश या प्रारूप नहीं है, तो उनकी स्थिति अलग है. दूसरी बात यह कि वायनाड में चूंकि चुनाव नहीं हुए हैं, तो अगर ऊपरी अदालत उस आदेश को रद्द करती है, या स्टे लगाती है तो उनकी सदस्यता के रिवाइवल की स्थिति बन सकती है. सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश है 2013 का, वह पूरे देश में एक समान लागू होता है और कानून की तरह मान्यता रखता है. साथ ही, यूपीए सरकार का वह अधिनियम याद कीजिए, जिसमें इस सजा के विपरीत सरकार ने उसे पांच साल तक की अवधि का करने का प्रावधान किया था. माननीय राहुल गांधी ही थे, जिन्होंने कैबिनेट के अप्रूव्ड बिल को सार्वजनिक तौर पर फाड़ दिया था. यह अलग बात है कि जिस बिल को उन्होंने फाड़ा, वही उनकी सदस्यता जाने का भी कारण बना. उससे न केवल राहुल सदस्यता खोने से बचते, बल्कि कई अन्य लोग भी जिनकी सजा 2 साल या 3 साल थी, उनकी भी सदस्यता जाने से बचती. 

अभी तो रामपुर से जो नवनिर्वाचित विधायक हैं, उनको रोकने का कहीं से कोई सवाल ही नहीं है. अभी वह स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है, क्योंकि उच्च स्तर पर कोई इंटरफेयरेंस नहीं है. दूसरी बात, आजम खान के प्रकरण में सरकार या अन्य प्रभावित पक्ष भी उच्च न्यायालय जा सकते हैं. आजम खान के समर्थक जिस तरह खुशी मना रहे हैं, वह तो राजनीतिक मामला है, लेकिन यह तो तय है कि आजम खान के लिए यह सुखद तो है ही, एक तरह से नैतिक जीत तो उनकी हुई ही है. 

इस तरह की स्थिति चूंकि अनूठी है, तो सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार तो करेगा ही. व्यवस्था इस पर भी आएगी कि किस तरह इस तरह की परिस्थिति से बचा जा सके. आगे के लिए मानक दृष्टिकोण और गाइडलाइन्स कोर्ट की तरफ से तो आ ही जाएंगे, लेकिन चूंकि वहां चुनाव हो चुका है, तो यह बड़ी समस्या और चिंतन का विषय होगा कि न्यायपालिका और विधायिका इस स्थिति पर क्या निर्णय लेकर आती है. 

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

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