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'राजू पाल हत्याकांड में जब अतीक था फरार, मुलायम सिंह यादव ने इलाहाबाद जाकर दी थी क्लीन चीट'

अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की पुलिस कस्टडी में सरेआम हत्या बहुत ही हैरत में डालने वाली घटना है.इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. लेकिन सच्चाई यही है कि अतीक और अशरफ को कैमरों के सामने पुलिस की मौजूदगी में मार डाला गया.

जो भी हत्यारे थे उनके व्यवहार से यह साफ लगता है कि उनका एकमात्र लक्ष्य दोनों को ठिकाने लगाना था. इसलिए उन्होंने प्लानिंग की होगी कि कब और कहां कैसे इस घटना को अंजाम देना है. तीनों का इरादा इतना पक्का था कि वे घटना के बाद भागे नहीं बल्कि सरेंडर कर दिया. इस घटना के बात पुलिस की राजनीति, प्लानिंग पर सवाल उठ भी रहे हैं और उठने भी चाहिए.

एक कहावत है अंग्रेजी में कि जो तलवार के सहारे जीते हैं, वो तलवार से ही मरते हैं. ये कहावत अतीक और अशरफ पर पूरी तरह से फिट बैठती है. इन दोनों ने अपनी अवैध और हिंसक गतिविधियों से जो आतंक पैदा किया था. जिस तरीके से अपने विरोधियों को मारा था, लगभग उसी तरीके से वो भी मारे गए और इनका आंतक इतना अधिक था लोग इनके खिलाफ गवाही तक देने से कतराते थे. उमेश पाल का अपरहण अतीक अहमद ने 2006 में कराया था लेकिन उस वक्त उसे सत्ता का इतना खुला और निर्लज संरक्षण था कि उमेश पाल ने उस घटना की एफआईआर तब दर्ज कराई जब प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया. मुलायम सिंह की सरकार चली गई और मायावती की सरकार आ गई.

अतीक के गुर्गे और उसके शूटर इतने खतरनाक थे कि उन सबों के लिए कानून-व्यवस्था का कहीं कोई मोल नहीं था. बसपा विधायक राजू पाल की हत्या भी इन दोनों ने ही की थी. चूंकि अशरफ को राजू पाल ने चुनाव में हरा दिया था और ये बात न तो अतीक को हजम हुई और नहीं अशरफ को. जब राजू पाल किसी को अस्पताल से देख कर घर लौट रहे थे, तब अतीक के गुर्गों ने उनके गाड़ी की घेराबंदी करके ताबड़तोड़ फायरिंग कर  उन्हें मौत के घाट उतार दिया था. घटना के बाद जब राजू पाल के साथियों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने की कोशिश की तो फिर से उसके ऑटो को घेर कर अंधाधुंध फायरिंग की गई, ताकि उसके बचने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाए.

अतीक और अशरफ की इलाहाबाद में इतनी कहानियां हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल काम है. लेकिन जो लोग पीड़ित हैं, वो अच्छे से जानते हैं. इस घटना के बाद कानून-व्यवस्था पर सवाल उठने तो स्वाभाविक हैं लेकिन विपक्ष का आक्रोश कानून की नाकामी पर है कि अतीक और अशरफ के मारे जाने पर इसे समझना होगा. अतीक और अशरफ पुलिस कस्टडी में मारा गया. अतीक का बेटा असद और उसका गुर्गा गुलाम पुलिस एनकाउंटर में मारा गया. कई और गुर्गे भी हैं जो फरार चल रहे हैं. इन सबों ने उमेश पाल को भी इसी तरीके से मारा था. यहां पर मीडिया के कैमरे थे, वहां पर सीसीटीवी कैमरे थे. यहां पर पुलिस वालों की संख्या कुछ अधिक थी, उमेश पाल के साथ भी दो पुलिस वाले थे जिन्हें मार दिया गया था. उमेश पाल को मारने आए लोग उतने ही बैखौफ थे जितने की अतीक और अशरफ को मारने वाले ये तीन युवा हैं. ऐसे में जो लोग आज सवाल उठा रहे हैं क्या वे उस वक्त भी सवाल उठाये थे जब उमेश पाल और दो पुलिस कर्मियों की हत्या हुई थी. लेकिन तब स्वर कुछ और थे और आज कुछ और हैं.

चूंकि अतीक और अशरफ एक विशेष समुदाय से जुड़े हैं, इसलिए इस पर ज्यादा चीख-पुकार मचाई जा रही है. दुर्भाग्य से इस पर चीख-पुकार करने वाले वो नेता भी है. जिन्होंने बहुत ही निर्लज्जता के साथ अतीक को सहयोग, संरक्षण और समर्थन दिया था. राजू पाल की हत्या के बाद जब अतीक फरार हालत में घूम रहा था, तब मुलायम सिंह यादव इलाहाबाद जाते हैं और अतीक को क्लीन चिट देते हैं. जाहिर सी बात है कि जब प्रदेश का मुख्यमंत्री ही ऐसे अपराधी को सार्वजनिक मंच से क्लीन चीट देगा तो उसका पुलिस और प्रशासन के मनोबल पर कैसा असर पड़ेगा.

इसलिए इन दोनों की हत्या पर जो चीख-पुकार मचाई जा रही है उसके पीछे वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति है. निश्चित रूप से योगी सरकार को सवालों का सामना करना पड़ रहा है और करना पड़ेगा ही. ये सवाल उठता ही रहेगा कि आखिर पुलिस की मौजूदगी में इस तरह से किसी की हत्या कैसे की जा सकती है. लेकिन इसका एक जवाब यही है कि जैसे उमेश पाल की हत्या की जा सकती है, उसी तरह से इनकी भी की जा सकती है.

लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि अगर एक काम गलत हुआ है तो दूसरे गलत काम को भी जायज ठहराया जाए. मुझे नहीं लगता है कि इस पर सवाल उठा कर किसी को राजनीतिक लाभ मिलेगा, इसकी सूरत नहीं दिख रही है. ये मुद्दा भले ही बनाया जाए लेकिन आम पब्लिक के मन में जो विचार हैं, भाव हैं उस पर बड़ी संख्या में लोग ये कह रहे हैं कि जो हुआ वो अच्छा हुआ. ऐसा लोगों को कहना चाहिए या नहीं, यह अगल मुद्दा है. लेकिन अगर लोग ये कह रहे हैं कि जो हुआ अच्छा हुआ, यह कानून की कमजोरी को दिखाता है.

ये बहुत ही हैरानी की बात है कि अतीक पर 100 से ज्यादा मुकदमे थे और ये वर्षों से चले आ रहे थे, जिसमें हत्या रंगदारी, अपहरण, अवैध कब्जा जैसे मामले शामिल थे. लेकिन उसे सजा होती है 40-42 साल के बाद. तब किसी ने क्यों नहीं कहा था कि जिस अपराधी के खिलाफ 100 मुकदमे दर्ज हैं, उसे इससे पहले सजा क्यों नहीं हुई थी. जिस तरीके से इन लोगों को संरक्षण दिया गया था उनका भी चेहरा सामने आ चुका है. इसमें कोई शक नहीं है कि जिस तरह से इनकी हत्या की गई वो सवालों के घेरे में है और इस पर सरकार को जवाब देना होगा. प्रदेश सरकार ने तीन सदस्यीय न्यायिक जांच बैठा दी है. अभी ये भी नहीं पता चल रहा है कि जिन लवलेश तिवारी, सन्नी और अरुण मौर्या ने दोनों को मारा है, उन तीनों की अतीक से क्या दुश्मनी थी. लेकिन इतना पता चल रहा है कि उनका मकसद हर हाल में दोनों को मार गिराना था.

ये दुर्भाग्य कहा जाएगा कि पुलिस की मौजूदगी में तीनों ने ये काम कर दिया. पुलिस को न केवल इसके पीछे के कारणों के तह तक जाना होगा बल्कि मीडिया को जो तमाशाबाजी करने का मौका दिया जाता है उसे भी बंद करना होगा. भारत के अलावा दुनिया के किसी और देश में ऐसा नहीं होता है कि जब किसी अपराधी को जेल से लाते समय और जेल पहुंचाते समय, अदालत में, अदालत के बाहर, कचहरी में मार दिया जाता हो. मीडिया के कैमरों के सामने उसकी बाइट दिलाने की कोशिश की जाती है. ये जो मीडिया के कैमरों की घेराबंदी होती है, उसे तत्काल प्रभाव से बंद करना होगा. न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में इस परिपाटी को बंद करना होगा. क्योंकि जब तक इस तरह की तमाशाबाजी चलती रहेगी, तब तक इस तरह के वारदातों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा. जब अपराधियों को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान इधर-उधर ले जाना होता है, उस वक्त मीडिया की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए. उम्मीद की जा सकती है, योगी सरकार इस घटना के बाद मीडिया के तमाशेबाजी को बंद करने के लिए कदम उठाएगी. क्योंकि अगर ये कल नहीं हुआ होता तो शायद यह घटना भी नहीं होती.

(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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