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एज ऑफ कंसेंट और अदालती उलझन, सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट की चाहत, घटे सहमति की उम्र, विधि आयोग ने केंद्र से मांगी है राय

एक बार फिर से एज ऑफ कंसेंट यानी सहमति की उम्र को लेकर बहस तेज़ हो गई है. दरअसल सहमति की उम्र को लेकर देश के अदालतों में कई तरह की उलझनें आ रही हैं. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई हाईकोर्ट में ये मुद्दा उठा है कि क्या देश में सहमति की उम्र को 18 से घटाकर 16 साल कर देना चाहिए.

ताजा मामला कर्नाटक और मध्य प्रदेश हाईकोर्ट से जुड़ा है.  इन दोनों हाईकोर्ट में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें नाबालिग लड़किया प्रेम की वजह से अपने प्रेमियों के साथ घर भागीं. 16 साल से ऊपर की इन लड़कियों का अपने प्रेमियों के साथ शारीरिक संबंध भी बने. हालांकि पॉक्सो एक्ट के तहत 18 साल सहमति की उम्र होने की वजह से ये सारे संबंध अपराध की कैटेगरी में आ जाते हैं.

विधि आयोग ने केंद्र सरकार से मांगी है राय

कर्नाटक और मध्य प्रदेश हाईकोर्ट से इस सिलसिले में विधि आयोग को रेफरेंस भेजा गया है कि आयोग सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की न्यूनतम उम्र पर जमीनी हकीकत को देखते हुए पुनर्विचार करे. इस रेफरेंस के बाद विधि आयोग ने केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय से इस मुद्दे पर राय मांगी है. कहा जा रहा है कि महिला और बाल विकास मंत्रालय से इस मसले की समीक्षा कर रहा है और जल्द ही विधि आयोग को मंत्रालय के जवाब से सूचित किया जाएगा.

एज ऑफ कंसेंट को लेकर अदालती उलझन

सहमति की उम्र घटाने  से जुड़ी मांग कोई नई मांग नहीं है. सहमति की उम्र और नाबालिगों से जुड़े कई कानूनों में विरोधाभास और कोर्ट में आने वाले मामलों में फैसले देने में परेशानियों को देखते हुए इसकी मांग लंबे वक्त से की जा रही है.

हालांकि जब दिसंबर 2022 में मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मुद्दे पर बयान दिया था, तो उसके बाद से सहमति की उम्र को घटाने को लेकर बहस तेज हो गई. उस वक्त चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़  ने कहा था कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के तहत सहमति की उम्र 18 वर्ष है और इससे ऐसे मामलों से निपटने वाले जजों के सामने कठिन सवाल खड़े हो जाते हैं. चीफ जस्टिस ने कहा था कि इस मुद्दे पर बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संसद को विचार करने की जरूरत है.

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी जता चुके हैं चिंता

दरअसल सहमति की उम्र को लेकर समस्या तब आ रही है, जब सहमति से बने रोमांटिक रिश्तों के मामले पॉक्सो एक्ट के दायरे में आकर अपराध की श्रेणी में आ जा रहे हैं. इन मामलों की बढ़ती संख्या और अदालतों के सामने वाली उलझनों को देखते हुए ही चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने चिंता जाहिर की थी. चीफ जस्टिस ने अपनी चिंता तब जाहिर की थी जब पॉक्सो एक्ट को बने 10 साल हो गए थे और 10 दिसंबर को पॉक्सो एक्ट पर यूनिसेफ के सहयोग से सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में इस कानून के तमाम पहलुओं पर लॉ एक्सपर्ट अपनी बात रख रहे थे.

अदालतों को फैसले लेने में होती है दिक्कत

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ से पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने भी सहमति की उम्र को 16 से बढ़ाकर 18 किए जाने से जुड़ी परेशानियों का जिक्र करते हुए कहा था कि एक रिश्ते में शामिल 17 साल के लड़के और लड़कियां जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं और इसके नतीजों से भी परिचित होते हैं. इसलिए उन पर मुकदमा चलाना सही नहीं है. उससे पहले मद्रास हाईकोर्ट ने भी किशोरों के बीच प्रेम संबंधों से जुड़े मामलों को सही तरीके से निपटाने के लिए पॉक्सो कानून के तहत सहमति की उम्र पर विचार करने की जरूरत बताई थी.

दिल्ली हाईकोर्ट ने तो इतना तक कहा था कि पॉक्सो कानून का मकसद बच्चों को यौन शोषण से बचाना है और सहमति से बने रोमांटिक संबंधों को अपराध बनाना नहीं है. कर्नाटक हाईकोर्ट की हुबली-धारवाड़ बेंच ने 5 नवंबर 2022 को विधि आयोग से अपील की थी कि जमीनी हकीकत के मद्देनजर सहमति की उम्र के मानकों पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए.

पॉक्सो एक्ट से सहमति की उम्र बढ़ी

बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए कानून पॉक्सो कानून यानी Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012.लाया गया. ये कानून 14 नवंबर 2012 से लागू हुआ. इसमें 18 साल से कम के हर व्यक्ति को बालक या child माना गया है. पॉक्सो कानून के इसी प्रावधान से भारत में सहमति की उम्र 16 साल से बढ़कर 18 साल हो गई. यानी 18 साल से कम की उम्र होने पर सहमति का मतलब नहीं रह गया. इस कानून से 18 साल से कम उम्र के लोगों के लिए किसी भी तरह की यौन गतिविधि अपराध बन गई, चाहे उनके बीच सहमति ही क्यों न हो. 

2012 से सहमति की उम्र 18 साल है

पॉक्सो एक्ट में चाइल्ड से जुड़े प्रावधान से अदालतों के लिए सहमति की आयु की व्याख्या जरूरी हो गई. 1940 से भारत में सहमति की उम्र  16 साल रही थी. पॉक्सो कानून के तहत ये भी प्रावधान कर दिया गया कि डॉक्टर, अस्पताल, स्कूल कर्मचारियों और माता-पिता समेत हर नागरिक की जानकारी के बावजूद बच्चों के यौन शोषण की रिपोर्ट नहीं करना एक गंभीर अपराध माना जाएगा.

दरअसल सहमति की उम्र से कई पहलू जुड़े हुए हैं. जिन मुद्दों को लेकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने चिंता जाहिर की थी, उसका ताल्लुक हमारे सामाजिक परिवेश और बदलते वक्त से ही है. हम आज तकनीक के उस दौर में जी रहे हैं, जहां 14-15 साल की उम्र से ही बच्चों में यौन गतिविधियों को लेकर उत्सुकता होती है. 18 साल से कम उम्र के लड़के-लड़कियों के बीच आकर्षण और रोमांटिक रिश्ते आम बात है. इन रिश्तों में बंधने के बाद लड़का-लड़की के घर से भागने की भी घटनाएं घटती हैं और बाद में इन मामलों में आपराधिक केस भी दर्ज होते हैं. इस उम्र के लड़के-लड़कियों में सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की घटनाएं भी सामने आती हैं, लेकिन सहमति की उम्र की वजह से ये अपराध की श्रेणी में आ जाते हैं. ऐसे में जजों के सामने इन मामलों में फैसला देने में कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं.

दिसंबर 2012 में देश की राजधानी  दिल्ली में हुए निर्भया रेप मामले के बाद यौन उत्पीड़न कानून को और सख्त बनाने की जरूरत महसूस हुई.  जस्टिस जे एस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के बाद संसद से क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट, 2013 बना. इसमें आईपीसी के लिए भी सहमति की उम्र को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई. पॉक्सो एक्ट और क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट इन दो कानूनों के बाद से एज ऑफ कंसेंट को लेकर लगातार बहस हो रही है.

2012 से लड़का-लड़की दोनों पर लागू

गौर करने की बात है कि 2012 से पहले सहमति की उम्र सिर्फ लड़कियों के नजरिए से परिभाषित थी. पॉक्सो कानून से पहले आईपीसी के सेक्शन 375 के तहत लड़कियों के लिए सहमति की आयु 16 वर्ष थी. 2012 के पॉक्सो कानून से ये उम्र सीमा लड़के और लड़कियों दोनों के लिए बढ़ गई. यानी पॉक्सो एक्ट के जरिए सहमति की उम्र का पैमाना लड़के और लड़कियों दोनों पर लागू होने लगा.

1860 में 10 साल थी सहमति की उम्र

आजादी के पहले से भारत में सहमति की उम्र को लेकर कई पड़ाव आए हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान सबसे पहले थॉमस बबिंगटन मैकाले  के बनाए गए 1860 के इंडियन पीनल कोड  में 10 साल को सहमति की उम्र माना गया था. उस वक्त आईपीसी में वैवाहिक बलात्कार यानी marital rape को सिर्फ तब अपराध माना गया था, जब पत्नी सहमति की उम्र से कम यानी 10 साल से छोटी हो.

1889 में 10-11 साल की बंगाली बच्ची की मौत उसके कई साल बड़े पति के जबरन यौन संबंध बनाने से हो जाती है. इसके बाद पारसी समाज सुधारक वी. एम. मालाबारी ने सहमति की उम्र को बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किए. इसी का नतीजा था कि ब्रिटिश हुकूमत ने आईपीसी में संशोधन कर भारत में  विवाहित या अविवाहित सभी लड़कियों के लिए सहमति की आयु 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी. 1925 में आईपीसी में संशोधन करके सहमति की उम्र को बढ़ाकर 14 साल कर दिया गया. हालांकि वैवाहिक संबंधों में लड़कियों के लिए सहमति की उम्र में बदलाव करते हुए इसे 14 से एक साल घटाकर 13 वर्ष कर दी गई.

1940 में सहमति की उम्र 16 साल हो गई

भारत में 1929 में बाल विवाह रोकथाम अधिनियम बना. इसे बनवाने में समाज सुधारक हर विलास शारदा का महत्वपूर्ण योगदान था. इस कानून के जरिए भारत में लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष और पुरुषों के लिए 18 वर्ष कर दी गई. वैवाहिक संबंधों में लड़कियों के लिए सहमति की उम्र पहले की तरह ही 13 वर्ष बरकरार रही. यानी विवाह की न्यूनतम उम्र तय होने के बावजूद वैवाहिक संबंधों में सहमति की उम्र को कम ही रखा गया.

हालांकि पहली बार कानूनी तौर पर इस अंतर को 1940 में जाकर खत्म किया गया. 1940 में आईपीसी और बाल विवाह रोकथाम कानून में संशोधन कर लड़कियों के लिए सहमति की उम्र 16 साल कर दी गई. लेकिन 1978 में लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाकर 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष की गई. इसके बावजूद भी लड़कियों के लिए सहमति की उम्र 16 साल ही थी. हद तो ये थी कि वैवाहिक संबंधों में लड़कियों के लिए ये उम्र 15 साल रखी गई. पॉक्सो कानून बनने से पहले 2012 तक सहमति की उम्र 16 साल ही रही. आजादी से पहले से ही भारत में सहमति की उम्र गैर-शादीशुदा लड़कियों के लिए अलग और शादीशुदा लड़कियों के लिए अलग रखी गई. इस अंतर की वजह से कानूनों में भी विरोधाभास की स्थिति बनी रही.

सहमति की उम्र और ज़मीनी हकीकत

अभी भी भारत के अलग-अलग समाज में यहां सहमति की उम्र जैसे मुद्दों पर बात करने से लोग कतराते हैं. हालांकि किशोरों के बीच अपोजिट जेंडर को लेकर आकर्षण कोई नई बात नहीं है. लेकिन उनमें कानून के तहत सहमति की उम्र से जुड़े सारे पहलुओं की जानकारी का अभाव होता है.

विवाह से पहले शारीरिक संबंध के मसले पर भले ही लोग चुप्पी साध लें, लेकिन ये भी सच्चाई है कि 18 साल से कम उम्र की लड़के-लड़कियां सेक्सुअल एक्टिविटी को लेकर सक्रिय रहते हैं. ये कई तरह से सर्वे से जाहिर भी हुआ है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण NFHS-4 (2015–16) के आंकड़ों के मुताबिक 11% लड़कियों ने 15 साल से पहले और 39% लड़कियों ने 18 की उम्र से पहले ही पहली बार यौन संबंध बना लिया था. यूनिसेफ के मुताबिक निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 10 से 12% किशोरों ने 15 साल की उम्र से पहले यौन संबंध बनाए हैं. ऐसे हालात में सहमति की उम्र 16 से 18 होने के बाद अदालतों में कई तरह की समस्याएं आने लगीं.

किशोरों के बीच प्रेम संबंध आम बात

पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज मामलों में एक बड़ी संख्या ऐसी होती है, जिनका सरोकार प्रेम संबंध से होता है. ये सच है कि नाबालिग लड़की से सहमति के साथ भी यौन संबंध अपराध है, लेकिन कानून में बदलाव से ही जमीनी हकीकत बदल जाए, ऐसा मुमकिन नहीं है. सहमति की उम्र भले ही 16 से 18 हो गई. कानून में तो बदलाव हो गया, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर दिखाती है. एक स्टडी से पता चलता है कि पॉक्सो कानून के तहत दायर चार मामलों में से एक रोमांटिक रिश्तों से संबंधित होता है. इनमें बरी होने की दर (acquittal rate) भी 93.8% है.

पॉक्सो के तहत दर्ज मामलों में प्रेम संबंधों का बड़ा हाथ

बेंगलुरु के एनजीओ अनफोल्ड प्रोएक्टिव हेल्थ ट्रस्ट ने यूनिसेफ इंडिया और यूएनएफपीए (UNFPA) के साथ पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज मामलों पर एक स्टडी की थी. इसके तहत असम, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज ऐसे 1,715 'प्रेम संबंधों से जुड़े  मामलों' का विश्लेषण किया गया. ये सारे मामले 2016-2020 के बीच के थे. इस दौरान दर्ज 24.3% केस प्रेम संबंधों से जुड़े थे. इनमें से 80% केस को लड़कियों के माता-पिता या रिश्तेदारों ने दर्ज कराया था. ये ऐसे मामले होते हैं जिनमें नाबालिग लड़के-लड़कियां शादी के इरादे से सहमति से घर से चले जाते हैं और बाद में उन दोनों के माता-पिता एक दूसरे के खिलाफ पॉक्सो कानून के तहत मामले दर्ज करवाते हैं. इनमें से करीब 86 फीसदी मामलों में लड़कियों ने आरोपी के साथ सहमति से संबंध बनाने की बात मानी. करीब 62 फीसदी मामलों में अदालतों ने भी स्वीकार किया है कि संबंध सहमति से बने थे. ऐसे मामलों में अदालतों से 93.8% आरोपी दोषमुक्त करार दिए गए हैं. इन मामलों में आरोपी एफआईआर दर्ज होने के औसतन डेढ़ से ढाई साल के भीतर कोर्ट से बरी कर दिए गए.

अदालतों में साबित करना होता है मुश्किल

ऐसे मामलों में फैसले देने में कई बार अदालतों के सामने अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती है. ऐसे मामलों में बरी होने की ज्यादा संभावना एक आधार है, जिससे कहा जा सकता है कि किशोरों के बीच पनपते रिश्तों और प्रेम संबंधों के साथ पॉक्सो कानून का सामंजस्य नहीं है. अदालतों ने भी प्रेम संबंध से जुड़े मामलों में पॉक्सो कानून के घातक प्रभाव को स्वीकार किया है. इतना ही नहीं  कई दर्ज मामलों में सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के बीच आपसी सुलह के बाद लड़के-लड़कियों के बीच शादी हो जाती है. इस कारण से अदालतों को पॉक्सो कानून के तहत दर्ज मामलों को रद्द भी करना पड़ता है.

बाल यौन शोषण के वास्तविक मामलों की जांच पर असर

किशोरावस्था में सहमति से सेक्सुअल एक्टिविटी उस उम्र के बच्चों को नॉर्मल लगती है. ये जरूरी नहीं है कि इस तरह का हर रिश्ता शादी  तक पहुंच पाए. इसमें कई समस्याएं आती हैं, जैसे अभिभावकों से अनुमति नहीं मिलना या फिर बाद में लड़के-लड़कियों के बीच में अनबन हो जाना..इसी तरह की और भी कई दिक्कतें आती हैं.

हालांकि पॉक्सो एक्ट के तहत इन नाबालिगों के बीच का किसी तरह का सेक्सुअल एक्टिविटी अपराध के दायरे में होता है और बाद में किसी भी पक्ष की ओर से केस दर्ज होने पर इसके परिणाम अंत में उन किशोरों को ही भुगतना पड़ता है. ये दलील उन मामलों तक ही सीमित है, जहां 16 से 18 साल के किशोरों के बीच प्रेम संबंध का मामला है. ऐसे में अगर इस तरह के मामले में किसी लड़के को सज़ा होती है, तो इससे उसकी गरिमा, आजादी, गोपनीयता पर चोट के साथ ही विकास की क्षमता भी धुंधली हो जाती है.

इतना ही नहीं पॉक्सो एक्ट के तहत प्रेम प्रसंग से जुड़े मामलों की बड़ी संख्या दर्ज होने की वजह से अदालतों पर बोझ भी बढ़ता है. इतना ही नहीं बाल यौन शोषण के वास्तविक मामलों की जांच और सुनवाई पर पर्याप्त फोकस नहीं हो पाता है या फिर ऐसे मामलों में देरी होते रहती है. सहमति की उम्र को 18 से घटाकर 16 किए जाने के समर्थन में एक दलील ये भी दी जाती है कि ऐसा होने से न्यायिक प्रणाली पर पड़ने वाले असर को रोका जा सकता है.

लड़कियों के लिए बेहद संवेदनशील मुद्दा

हालांकि सहमति की उम्र को घटाने से पहले कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विचार किए जाने की जरूरत है. बदलते माहौल और सामाजिक परिवेश की वजह से भले ही 16 से 18 साल के लड़के-लड़कियों के बीच प्रेम संबंध बन जाते हैं और इस उम्र के किशोर सेक्सुअल एक्टिविटी में भी सक्रिय होते हैं. लेकिन इससे जुड़े परिणाम को लेकर इन किशोरों में उस तरह की जागरूकता नहीं होती है. लड़कियों को ज्यादा परिणाम भुगतने पड़ते हैं. इसी से प्रेगनेंसी और एबॉर्शन का मुद्दा जुड़ा है.

पॉक्सो कानून के जरिए सहमति की उम्र को बढ़ाने का एक मकसद ये भी था कि 18 साल की लड़कियों को इतनी समझदारी और हिम्मत आ जाती है कि वो परिवार, रिश्तेदार या नजदीकी मित्र की हरकतों का विरोध कर सकें क्योंकि ऐसे मामलों की एक बड़ी संख्या है, जिनमें बच्चों को अपने ही रिश्तेदारों या परिचितों से यौन शोषण की प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है.  इस विषय को लेकर जिस तरह से समाज में संवेदनशीलता होनी चाहिए, वैसा नहीं है. यही वजह है कि भारत में सहमति की उम्र घटाने से पहले इस पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए.

हमारे देश में कई ऐसे समुदाय हैं, जहां अभी भी 18 साल से कम उम्र में विवाह हो रही हैं. ये भी दलील दी जा रही है कि पॉक्सो कानून से  सहमति की उम्र बढ़ने की वजह से आदिवासी समुदायों पर असर पर रहा है, जहां 18 साल से कम उम्र में शादी की मनाही नहीं है.

ये भी नहीं कहा जा सकता है कि पॉक्सो कानून से बच्चों का यौन शोषण पूरी तरह से रुक गया है. कानून होने के बावजूद 18 साल से कम उम्र लड़के-लड़कियों को यौन शोषण से जूझना पड़ रहा है. अगर सिर्फ कानून का ही खौफ होता तो ऐसे मामले बहुत कम होते. पॉक्सो कानून के तहत 2019 में 47,324 मामले और 2020 में 47,221 मामले दर्ज किए गए. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों से पता चलता है कि 2021 में पॉक्सो कानून के तहत 53,873 मामले दर्ज किए गए थे. ये मामले बच्चों के खिलाफ सभी अपराधों का 36% हैं. इनमें से 61% मामले रेप से जुड़े थे. NCRB के आंकड़ों से ही पता चलता है कि पॉक्सो के 50 फीसदी मामले 16 से 18 साल के बच्चों के खिलाफ है. ये बताता है कि सहमति की उम्र बढ़ने से पॉक्सो के दायरे में 16 से 18 साल वाले लड़के ज्यादा आरोपी बन रहे हैं.

कानूनों में विरोधाभास को खत्म करने पर हो फोकस

एज ऑफ कंसेंट के 18 साल होने से कानूनों में विरोधाभास की स्थिति भी पैदा हो गई है. हम सब जानते हैं कि सहमति की उम्र यानी सेक्सुअल एक्टिविटी के लिए कौन सी उम्र सही है, इसका सरोकार सिर्फ़ कानून से नहीं है, बल्कि ये एक बायोलॉजिकल सवाल भी है. उसके साथ ही भारत में बिना शादी के सेक्सुअल एक्टिविटी के लिए सहमति और वैवाहिक जीवन में सेक्सुअल एक्टिविटी के लिए सहमति की उम्र हमेशा से अलग-अलग रही है. ये एक ऐसा विरोधाभास जो जेंडर इक्वलिटी यानी लैंगिक समानता से भी जुड़ा है.

गैर-शादीशुदा और शादीशुदा लड़कियों में भेदभाव

भारत में फिलहाल सहमति की उम्र 18 साल है, लेकिन विवाह में इससे कम उम्र की लड़कियों के साथ लड़कों को सेक्सुअल एक्टिविटी की अनुमति है. आईपीसी के सेक्शन 375 में कहा गया है कि अगर कोई अपनी 15 साल तक की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाता है तो ये रेप के कैटेगरी में नहीं आएगा. हालांकि 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि 15 से 18 साल की पत्नी के साथ जबरन संबंध बनाया जाएगा, तो ये रेप के दायरे में आएगा. यानी अब भी 15 से 18 साल की पत्नी की सहमति से पुरुष उसके साथ यौन संबंध बना सकता है. फिर सवाल बरकरार है कि क्या 18 साल से कम उम्र की पत्नी के लिए सहमति की उम्र को क्यों कम रखा जाए. इस नजरिए से भी सहमति की उम्र को या तो 18 से घटाकर 16 साल कर देना चाहिए या फिर विवाह की स्थिति में भी 18 साल से कम उम्र में सेक्सुअल एक्टिविटी पर पूरी तरह से रोक होना चाहिए.

हर लड़की के लिए एक समान हो कानून

ये कानूनों का विरोधाभास गैर-शादीशुदा और शादीशुदा लड़कियों में भेदभाव पैदा करता है. सहमति-असहमति का सारा किस्सा बिना शादीशुदा लड़कियों पर लागू होता है. शादीशुदा लड़कियों के लिए कानून में अलग ही सहमति की उम्र तय है. बाल विवाह निरोधक कानून में प्रावधान है कि 18 साल कम उम्र में लड़कियों की शादी नहीं हो सकती. लेकिन हिंदू मैरिज एक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी को अवैध घोषित नहीं किया जा सकता है. ये भी विडंबना है कि विवाह होने पर 15 से 18 साल की लड़कियों के लिए सहमति की उम्र का कोई मायने नहीं रह जाता और अगर मायने है भी तो कानून के नजरिए से उसे साबित करना बेहद चुनौतीपूर्ण है.

मुस्लिमों में भी 15 साल तक की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने की छूट है. इससे सहमति की उम्र से जुड़े विरोधाभास को समझा जा सकता है. अब तो सरकार लड़कियों के लिए भी विवाह के लिए न्यूनतम आयु लड़कों की तरह 21 साल करने की दिशा में आगे बढ़ रही है. इससे जुड़ा विधेयक भी दिसंबर 2021 में लोकसभा में पेश किया जा चुका है, जिस पर संसद की स्थायी समिति विचार कर रही है. ऐसे में इस भेदभाव को भी खत्म करने पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

 

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