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नेपाल में प्रचंड सरकार क्या चीन के लिए खोलेगी रास्ता, भारत को इस इलाके में भी घेरेबंदी का खतरा!

पहले कार्यकाल में प्रचंड ने भारत का पुरजोर विरोध किया था. हालांकि, दूसरे कार्यकाल में भारत से विदेश नीति को लेकर उनका रूख थोड़ा नरम था. इस बार प्रचंड-ओली के मिलन से स्थिति अलग होने के पूरे आसार हैं.

नेपाल में चुनाव परिणाम आने के बाद 35 दिनों से जारी सत्ता का गतिरोध खत्म हो गया है. माओवाद केंद्र के पुष्प कमल दहल प्रचंड नए प्रधानमंत्री बने हैं. रविवार को हुए एक बड़े सियासी उलटफेर में नेपाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा.

डेढ़ साल बाद नेपाल में केपी ओली की पार्टी ने फिर से वापसी की है. ओली प्रचंड की गठबंधन सरकार में किंगमेकर की भूमिका निभाएंगे. नेपाल में माओवाद की सरकार बनने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रचंड को बधाई दी है.

प्रचंड को बधाई संदेश चीन की ओर से भी भेजा गया है. प्रचंड को चीन का समर्थक माना जाता है और चीन के पूर्व प्रमुख माओत्से को वे अपना आइडल मानते हैं. 


नेपाल में प्रचंड सरकार क्या चीन के लिए खोलेगी रास्ता, भारत को इस इलाके में भी घेरेबंदी का खतरा!

(प्रचंड को सात दलों का समर्थन मिला है)

प्रचंड की सत्ता में वापसी से राजनतिक, सामरिक और मधेस के मुद्दों पर भारत की मुश्किलें बढ़ सकती है. नेपाल में हुए राजनीतिक बदलाव का क्या असर होगा? आइए इसे विस्तार से जानते हैं...

कैसे फिसली कांग्रेस की हाथ से सत्ता, 5 प्वाइंट्स...

1. सत्ता हस्तणांतरण को राजी नहीं- प्रचंड और देउबा के बीच सत्ता हस्तणांतरण को लेकर बात नहीं बन पाई. प्रचंड शुरुआत के ढाई साल खुद को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रहे थे. 

2. राष्ट्रपति की कुर्सी भी वजह- प्रचंड माधव कुमार नेपाल के लिए राष्ट्रपति की कुर्सी चाहते थे. देउबा किसी कांग्रेसी को इस पर बैठाना चाहते थे. इस वजह से बात नहीं बन पाई. 

3. सत्ता में भागीदारी पर रार- प्रचंड सभी पार्टियों के लिए सत्ता में अनुपातिक भागीदारी की मांग कर रहे थे. देउबा सांकेतिक भागीदारी देने के लिए तैयार थे.

4. कांग्रेस में देउबा का विरोध- सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी कांग्रेस में देउबा का विरोध शुरू हो गया. महासचिव गगन थापा और शेखर कोइराला गुट मिलकर देउबा का विरोध कर दिए. 

5. ओली का समझौतापूर्ण रवैया- कांग्रेस से गठबंधन टूटने के बाद ओली ने तुरंत प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया. 2021 में प्रचंड की वजह से ओली की सत्ता गई थी, फिर भी दोनों एकजुट हो गए. 


नेपाल में प्रचंड सरकार क्या चीन के लिए खोलेगी रास्ता, भारत को इस इलाके में भी घेरेबंदी का खतरा!

3 मोर्चे पर भारत की मुश्किलें बढ़ेंगी...
1. राजनीति मोर्चे पर- प्रचंड ने एक बार फिर कट्टर चीन समर्थक केपी ओली की पार्टी से समझौता किया है. 2018 में केपी ओली और प्रचंड ने पार्टी विलय का फैसला किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की वजह से यह हो नहीं पाया. 

फिर से दोनों के बीच राजनीति समझौता हुआ है. माओवाद और नेकपा (एमाले) के बीच गठबंधन हो गया, तो राजनीतिक रूप से नेपाल में माओवाद केंद्र मजबूत हो जाएगी. 

नेपाल के राजनीतिक विश्लेषक झलक सुबेदी ने कांतिपुर से बात करते हुए कहा है कि इस राजनीति समझौते से ओली की पार्टी को फायदा होगा. सभी प्रांत में उनकी सरकार बनेगी. सरकार बनने की वजह से देश में फिर से ओली की पार्टी मजबूती की ओर बढ़ेगी. 

2. कूटनीतिक मोर्चे पर- नेपाल में माओवाद समर्थित पार्टियों को चीन का करीबी मान जाता है. ऐसे में प्रचंड-ओली सरकार का झुकाव भी चीन की ओर ही रहेगा. नेपाल में चीन का प्रोजेक्ट BRI (बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव) अटका हुआ है.

नई सरकार बनने के बाद माना जा रहा है कि इस पर तेजी से काम होगा. अगर यह प्रोजेक्ट पूरा हो गया तो सड़क और रेल के रास्ते चीन से नेपाल आना आसान हो जाएगा. इस प्रोजेक्ट की मंजूरी भी प्रचंड ने ही दी थी. 

ORF इंडिया में लिखे एक लेख में सामरिक विशेषज्ञ हर्ष वी पंत की माने तो  BRI प्रोजेक्ट के पूरा होने पर चीन नेपाल के रास्ते भारत की सीमा पर घेराबंदी कर सकता है.

नेपाल में नई सरकार बनने के बाद लिपुलेख और कालापानी का विवाद फिर से सुलग सकता है. ओली सरकार में चीन ने नेपाल को नया नक्शा जारी करने के लिए मना लिया था. इस नक्शे में भारत का लिपुलेख और कालापानी को नेपाल अपना बता रहा था. 

3. मधेसियों के अधिकार पर- भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में रह रहे मधेसियों को नेपाल के संविधान में बहुत कम अधिकार दिए गए हैं. इसको लेकर 2015 में मधेस आंदोलन की शुरुआत हुई थी. नेपाल में मधेसियों की 3 प्रमुख मांगे हैं.

  • सीटों का परिसीमन सही तरीके से हो. पहाड़ी क्षेत्र में ज्यादा सीटें दी गई है, जबकि मधेस इलाकों में कम सीटें दी गई है.
  • नौकरी और रोजगार में बराबर का आरक्षण हो, जिससे मधेस के लोगों को भी सरकारी नौकरी में जगह मिल सके.
  • तराई के प्रांतों का पुनर्गठन हो, जिससे सीमावर्ती इलाकों का विकास हो सके. अभी नेपाल में 7 प्रांत है.

भारत सरकार ने इस आंदोलन का समर्थन किया था. नेपाल में कांग्रेस की सरकार ने इस मुद्दे को सुलझाने की बात कही थी, लेकिन अब इसे सुलझने के आसार कम हैं.

अब कहानी पुष्प कमल दहल प्रचंड की...
शिक्षक से नेता बने, देउबा सरकार ने वारंट निकाला था
प्रंचड की राजनीति में एंट्री 1980 के दशक में हुई. राजनीति में आने से पहले प्रचंड एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे. नेपाल मूवमेंट में कम्युनिष्ट पार्टी ने प्रचंड को पहले चितवन और फिर तराई की कमान सौंपी. 

प्रचंड चीनी नेता माओत्से के विचारों से प्रेरित थे और आंदोलन में भी इसकी छाप दिखी. नेपाल की शाही सरकार से वारंट निकलने के बाद करीब 12 सालों तक प्रचंड अंडर ग्राउंड रहे. 1990 में माओवाद और सरकार के बीच समझौता के बाद प्रचंड बाहर आए.

1992 में प्रचंड को पहली बार कम्युनिष्ट पार्टी (माओवाद) की कमान मिली. इसके बाद नेपाल में राजशाही के खिलाफ सिविल वार में तेजी आई. 2002 में शेर बहादुर देउबा ने प्रचंड के खिलाफ वारंट निकाला था. 

2 बार सत्ता मिली, लेकिन कुर्सी पर टिक नहीं पाए
नेपाल में लोकतंत्र आने के बाद प्रचंड अब तक 2 बार प्रधानमंत्री रहे हैं. पहली बार 2008 में गिरिजा प्रसाद कोइराला को हटाकर वे पीएम बने, लेकिन नेपाल के सैन्य प्रमुख को लेकर हुए टकराव के बाद उन्हें 9 महीने में ही कुर्सी छोड़नी पड़ी. 

दूसरी बार 2016 में प्रचंड प्रधानमंत्री बने और समझौते के तहत एक साल बाद कुर्सी छोड़ दी. प्रचंड ने कुर्सी छोड़ते वक्त कहा था कि नेपाल की राजनीति में विश्वसनीयता की कमी है. हम कोशिश कर रहे हैं कि ये फिर से बहाल हो.

पार्टी में टूट हुई, फिर भी मजबूत हैं प्रचंड
शुरुआती दौर में प्रचंड के साथ बाबूराम भट्टराई, माधव कुमार नेपाल, मोहन वैद्य जैसे दिग्गज नेता साथ होते थे, लेकिन 2009 के बाद हालात बदल गए. धीरे-धीरे माओवाद केंद्र में टूट होती गई और अब प्रचंड अकेले पड़ गए. 

कभी नेपाल में सबसे बड़ी पार्टी रही माओवाद केंद्र हाल ही में हुए चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. हालांकि, किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की वजह से प्रचंड का पलड़ा भारी हो गया. 

 

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