ऐसा हुआ तो क्या पासवान और कुशवाहा एनडीए में टिके रह पाएंगे?
ये दोनों पार्टियां वोट दिलवाने में कामयाब नहीं रहीं और ये बात बीजेपी का नेतृत्व बखूबी समझता है. लिहाजा सीट बंटवारे में इनकी बात सुनी जाएगी कह पाना मुश्किल है.

नई दिल्ली: बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव के वक्त रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी बिहार में बीजेपी की अहम सहयोगी थी. चुनाव रिजल्ट से पहले ऐसा लग रहा था कि जैसे एससी-एसटी का सारा वोट रामविलास पासवान एनडीए में शिफ्ट कराने वाले हैं. छह फीसदी आबादी वाले कुशवाहा जाति की राजनीति करने वाले उपेंद्र कुशवाहा को लेकर भी कुछ ऐसा ही सोचा जा रहा था.
लेकिन जब रिजल्ट आया तो पासवान की पार्टी 42 सीटों पर लड़कर दो सीटें जीतीं तो वहीं कुशवाहा की पार्टी भी 23 सीटों पर लड़कर दो सीटें जीत पाने में ही कामयाब हो सकी. यानी जो बातें कहीं जा रही थी वो सच साबित नहीं हुईं. चुनावी नतीजों का विश्लेषण हुआ तो ये बात निकलकर आई कि न तो पासवान वोट ट्रांसफर करा पाए और ना ही उपेंद्र कुशवाहा एनडीए को वोट दिलवा पाए. लेकिन अब जब लोकसभा चुनाव का वक्त आया है तो कथित तौर पर बढ़ी हुई ताकत का एहसास दिलाकर इन दोनों पार्टियों के नेता मोल भाव में लगे हैं.
लेकिन इन दोनों पार्टियों की ताजा हालत ये है कि 2014 में तीन सीटें जीतने वाली आरएसएसपी के एक सांसद अरुण कुमार पार्टी छोड़ चुके हैं. 2014 में छह सीटें जीतने वाली एलजेपी के तीन सांसद इन दिनों पार्टी से नाराज हैं. ऐसे में क्या वाकई में बीजेपी के ये दोनों सहयोगी इस स्थिति में हैं कि वो अमित शाह और नीतीश कुमार से सीटों का मोल भाव कर सकें?
ये दोनों पार्टियां वोट दिलवाने में कामयाब नहीं रहीं और ये बात बीजेपी का नेतृत्व बखूबी समझता है. लिहाजा सीट बंटवारे में इनकी बात सुनी जाएगी कह पाना मुश्किल है. ऐसे में बहुत मुमकिन है कि बीजेपी और जेडीयू दोनों 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ें और बाकी की छह सीटें इन दोनों पार्टियों के खाते में जाए. ऐसा होने पर बराबर बराबर की जो मांग है वो पूरी भी हो जाएगी और जेडीयू के लिए हर कोई अपने अपने कोटे से कुर्बानी दे देगा. अब सवाल ये है कि ऐसा हुआ तो क्या पासवान और कुशवाहा एनडीए में टिके रह पाएंगे? अभी बिहार की राजनीति में कई मोड़ आने बाकी हैं.
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Source: IOCL





















