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एक ऐसा फॉर्मूला जो ममता बनर्जी को बना सकता है प्रधानमंत्री, समझिए TMC ने क्यों किया अकेले लड़ने का फैसला?

टीएमसी की उपस्थिति कुछ पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर किसी भी दूसरे राज्य में नहीं है. टीएमसी के पास बंगाल के बाहर कैडर, नेता, मतदाता या समर्थक नहीं हैं. 

हाल ही में ममता बनर्जी ने ऐलान किया कि वह जनता के समर्थन के साथ 2024 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी. ममता बनर्जी ने ये फैसला बंगाल उपचुनाव में मिली हार और पूर्वोत्तर राज्यों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद लिया है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई ममता बनर्जी देश की अगली प्रधानमंत्री हो सकती हैं? क्या ममता से बड़ा चेहरा विपक्ष में और कोई नहीं है? या फिर ममता के पास ऐसा कौन सा फॉर्मूला है जिससे वो देश की प्रधानमंत्री बन सकती हैं.  

क्यों किए जा रहे ऐसे दावे ?

ममता बनर्जी का लगातार दिल्ली का दौरा करना इस बात का संकेत देता है कि वह 2024 के आम चुनावों की तैयारी में लग चुकी है. ममता बनर्जी ने एक रैली में कहा था, ‘मैं अपने एक पैर पर खड़ी हो कर बंगाल जीतूंगी और भविष्य में मैं अपने दोनों पैरों पर खड़ी होकर दिल्ली में जीत हासिल करूंगी.’

पश्चिम बंगाल में मनाए जाने वाले शहीद दिवस पर ममता ने अपना भाषण बंगाली में ना देने के बजाए हिंदी और अंग्रेजी में दिया था. ममता पिछले 28 सालों से 21 जुलाई को बंगाल में एक प्रदर्शन के दौरान मारे गए अपने 13 कार्यकर्ताओं की याद में शहीद दिवस मनाती आ रही हैं, लेकिन उन्होंने अपना भाषण इससे पहले कभी भी हिंदी और अग्रेंजी में नहीं दिया था. 

ममता बनर्जी ने एक संबोधन में ये भी कहा था, 'मैं नहीं जानती 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए तैयारियां करनी होंगी. समय नष्ट करने से देरी के सिवाए और कोई फायदा नहीं होगा. बीजेपी के खिलाफ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा.'

वरिष्ठ पत्रकार महुआ चटर्जी ने ममता के इस बयान पर बीबीसी को बताया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विपक्ष को साथ लाने की एक कोशिश चंद्रबाबू नायडू ने भी की थी. तब समय कम था और वक्त की कमी के चलते उन्हें कोई खास कामयाबी नहीं मिली थी. 

कितनी ताकतवर है ममता की पार्टी ?

तृणमूल पार्टी लोकसभा में चौथी सबसे बड़ी पार्टी और राज्यसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है और अब इसका मकसद बंगाल के बाहर पंख फैलाने के साथ केंद्र में प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने का है. याद दिला दें कि तृणमूल पार्टी के पास तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा विधायक हैं. संसद में यूपी के 80 सांसद हैं, महाराष्ट्र के 48 और उसके बाद में 42 सांसद पश्चिम बंगाल से हैं. 

टीएमसी को अस्तित्व में आए हुए 25 साल हो गए हैं, और 13 सालों से वो बंगाल पर शासन कर रही है, लेकिन 2019 में टीएमसी को तब झटका लगा था जब बीजेपी ने राज्य में महत्वपूर्ण पैठ बनाई और टीएमसी की संख्या 34 से घटाकर 22 पर सिमट गई. वहीं ममता की पार्टी ने 2021 के राज्य चुनाव में भाजपा को हराकर 3/4 बहुमत की शानदार जीत दर्ज की. 

अब टीएमसी 2024 के आम चुनाव भी जीत की उम्मीद कर रही है. हालांकि 2021 की जीत के बाद पार्टी ने छोटे और पूर्वोत्तर राज्यों में विस्तार योजना तो जरूर तैयार की थी, लेकिन चुनावी नतीजों सीमित सफलता मिली है. 

वहीं 2022 में गोवा में टीएमसी की हाई-पिच अभियान, 'गोनिची नवी सकल' को एक भी सीट नहीं मिली. वहीं त्रिपुरा में, जहां 60 प्रतिशत से ज्यादा बंगाली भाषी आबादी है, वहां पर पार्टी का वोट शेयर कम था. मेघालय में भी टीएमसी 14 प्रतिशत वोट शेयर कर सकी जो काफी कम था.

चुनौतियों का अंबार, किस्मत पर भरोसा कर रही पार्टी?

टीएमसी की उपस्थिति कुछ पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर किसी भी दूसरे राज्य में नहीं है. मौजूदा हालात को देखते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि वह बंगाल के बाहर के राज्यों में आम आदमी पार्टी की तरह खुद को मजबूत करने में लगी है. टीएमसी के पास बंगाल के बाहर कैडर, नेता, मतदाता या समर्थक नहीं हैं. 

जानकार ये भी मानते हैं कि ममता को बंगाल के बाहर कोई खास आकर्षण हासिल नहीं है. वहीं गैर-हिंदी पृष्ठभूमि के दूसरे राज्यों में उनकी विस्तार योजनाओं में भी बाधा आती है. जानकार ये भी कहते हैं कि ममता देश की सबसे कामयाब महिला नेता नहीं हैं . 

ये भी साफ है कि अधिकांश क्षेत्रीय दल प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं ऐसे में अगर बीजेपी जादुई आंकड़े से पीछे रह जाती है तो वे ममता दीदी को मौका नहीं देंगे. इसी लड़ाई में के चंद्रशेखर राव ने एक राष्ट्रीय पार्टी बनाई है और ममता को कड़ी टक्कर देते हुए गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे  के रूप में उभरने के लिए हर संभव कोशिश भी कर रहे हैं. 

आपको याद होगा 2014 में आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को चैलेंज करके कुछ दिनों के लिए अपना कद राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी विरोधी बना लिया था. लेकिन ममता बनर्जी के साथ दिक्कत ये है कि वो ये सब गुस्से में आकर करती हैं. ममता का गुस्से में लिये गए फैसले का एक उदाहरण नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव लड़ने का भी है. आज भी ये फैसला ममता के जी का जंजाल बना हुआ है. 

दूसरी तरफ कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त के साथ ही गांधी परिवार के साथ ममता के रिश्तों में खटास आ गई है. अन्य क्षेत्रीय दल भी तृणमूल की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं से सावधान हैं. इस लिस्ट में नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल और केसीआर जैसे नेता शामिल हैं. 

बंगाल में ममता प्रभावशाली लेकिन राज्य के बाहर नहीं है अस्तित्व

पश्चिम बंगाल के लोगों के मन में ममता बनर्जी का एक अलग जगह जरूर रखती है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि यहां के लोगों ने ममता का शुरुआती संघर्ष देखा है. जब ममता बनर्जी किसी सभा का आयोजन करती है तो राज्य के अलग-अलग हिस्सों से लोग उनके भाषण को सुनने आते हैं. राज्य के युवाओं में भी ममता बनर्जी के प्रति अलग उत्साह देखने को मिलता है. बंगाल और मेघालय के बाहर कोई बड़ी उपस्थिति नहीं होने की वजह से ममता के पास देश का नेतृत्व करने का मौलिक अधिकार भी नहीं है. ऐसे में  प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले नेता शायद उन्हें नेता के रूप में स्वीकार भी न करें. 

ममता ने खुद को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने में जल्दबाजी कर दी

खुद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के बारे में भी कहा जाता है कि 2024 को ही ध्यान में रखकर वो पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार करने नहीं आए थे.  इसकी वजह ये मानी जाती है कि बंगाल में वाम मोर्चे के साथ चुनाव लड़ रही कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलना चाहती. ऐसे में अपने को पहले से ममता ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर शायद जल्दीबाजी कर रही हैं.

ममता को ये जरूर लगता है कि उनकी पार्टी को बंगाल में 40 के आसपास सीटें मिलती हैं तो वो दौड़ में शामिल हो सकती है. लेकिन ये बात भी किसी से नहीं छुपी कि राजनीति नंबर का खेल है और ममता के लिए राज्य  के बाहर नंबर लाना फिलहाल एक बड़ी चुनौती है. केंद्र से बीजेपी को हटाने के मकसद से विपक्ष को एकजुट करना ही ममता के लिए बहुत बड़ी चुनौती मानी जा रही है. 

ममता पहले भी कर चुकी हैं कोशिश

साल 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ममता बनर्जी और टीआरएस प्रमुख चंद्रशेखर राव ने देश में एक गैर बीजेपी और कांग्रेस गठजोड़ बनाने की कोशिश की थी. तब कुछ पार्टियां इसके लिए तैयार भी हुई थी , लेकिन ज्यादातर दलों ने या तो कांग्रेस या फिर बीजेपी के साथ ही रहना सही समझा था. इसके मायने ये होते हैं कि बिना किसी राष्ट्रीय पार्टी के केंद्र में सरकार चलाना एक बहुत ही मुश्किल काम है. देश का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि सरकार चाहे कोई भी हो बिना किसी बड़ी पार्टी के समर्थन के बगैर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है ऐसी सरकारें बीच में ही गिरी हैं. 

शरद पवार भी हैं प्रधानमंत्री बनने की लाइन में

हाल ही में शिवसेना के नेता संजय राउत ने भी एक बयान में कहा था कि UPA में संशोधन करने की जरूरत है, और इसका नेता एनसीपी प्रमुख शरद पवार को बनना चाहिए. यूपीए का नेता मतलब विपक्ष का तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना है. हो सकता है एनसीपी प्रमुख शरद पवार इससे खुश हों, लेकिन इससे कांग्रेस पार्टी जरूर नाराज हो गई थी. क्योंकि दशकों से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या  यूपीए की बागडोर कांग्रेस ही संभाल रही है. कांग्रेस की तरफ से 2014 और 2019 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गांधी थे और आगे भी कांग्रेस राहुल गांधी को ही विपक्ष के चेहरे और प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर देखना चाहती है.

आखिर टीएमसी इतना बड़ा दांव क्यों लगा रही है 

टीएमसी की बड़ी उम्मीद यह है कि ममता बनर्जी 1996 में जनता दल के देवगौड़ा की तरह आम सहमति या समझौता करने वाले उम्मीदवार के रूप में उभरेंगी. अगर जनता दल को 1996 में 46 सीटों के साथ प्रधानमंत्री मिल सकता है, तो 2024 में ममता को क्यों नहीं?

लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए ममता बनर्जी के दावे को मजबूत करने के लिए टीएमसी को बंगाल में जीत हासिल करने की जरूरत है. उसे किसी भी कीमत पर 2024 में सीटवार पार्टियों के टॉप 3 पोडियम पर आना ही पड़ेगा. टीएमसी के लिए जरूरी है कि बंगाल में कम से कम वो 40 सीटें जीतकर आए. इसके साथ ही सबसे जरूरी है कि बीजेपी या कांग्रेस सभी बहुमत के आंकड़े से ठीकठाक पीछे रहें.

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