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DETAIL: ब्राह्मण पेशवा शासक के खिलाफ आखिर दलितों ने क्यों दिया अंग्रेजों का साथ?
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महाराष्ट्र में कई जगहों पर दलित समुदाय इस दिन(1 जनवरी) को शौर्य दिवस के रुप में मनाते हैं. इस लड़ाई को पिछड़ी जातियों की उच्च जातियों की दलित विरोधी व्यवस्था को खत्म करने के तौर पर देखा जाता है.
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इसी तरह एक और क्रूर नियम दलितों पर थोपा गया था. दलितों को सड़क पर चलते वक्त अपने पीछे एक झाडू बांध कर चलना होता था ताकि वे जिस रास्ते से गुजर रहे हों उसे साफ करते चलें. इन सभी बातों को आप बी आर अंबेडकर की किताब "एनहिलेशन ऑफ कास्ट" में पढ़ सकते हैं.
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बता दें कि पेशवा के शासन में दलितों पर कई अमानवीय नियम थोपे गए थे. इस दौर में सार्वजनिक जगहों पर चलते समय दलितों को गले में हांडी लटकाकर चलना पड़ता था. उनके लिए ये नियम बनाए गए थे कि वे कहीं खुले में थूक नहीं सकते हैं और अगर उन्हे थूकना है तो वे अपने गले में लटकती हांडी में थूकें.
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इस लड़ाई में अंग्रेज की फौज में भारी संख्या में महार दलित शामिल थें. भीमराव अंबेडकर भी महार जाति के थे. इतिहासकारों का मानना है कि दलितों ने पेशवा साम्राज्य की ब्राह्मणवादी और दलित विरोधी नीतियों को खत्म करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ाई लड़ी थी.
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इसलिए दलित समुदाय और संगठन इस दिन को इन अमानवीय नीतियों पर जीत का जश्न मनाते हैं. लेकिन कई दक्षिणपंथी हिंदू संगठन इस जीत को अंग्रेजों की जीत मानते हैं और दलितों के शौर्य दिवस का विरोध करते हैं.
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भीमा-कोरेगांव की लड़ाई आज से 200 साल पहले एक जनवरी 1818 को ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा के बीच लड़ी गई थी. इस लड़ाई में अंग्रेजों के हाथों पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार हुई थी. भीमा-कोरेगांव पुणे और अहमदनगर के बीच है.
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कल महाराष्ट्र के पुणे में शौर्य दिवस पर दलितों के जश्न मनाने पर हिंसा भड़क उठी जिसमे एक की मौत हो गई है. जबकि 25 से अधिक गाड़ियां जला दी गईं और 50 से ज्यादा गाड़ियों में तोड़-फोड़ की गई. इस घटना के चलते आठ दलित संगठनों ने महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया है.
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अंग्रेजों ने इस जीत पर इस गांव में विजय स्तंभ बनाया था. 1927 में इस विजय स्तंभ पर बी आर अंबेडकर गए थे.
Published at : 02 Jan 2018 05:52 PM (IST)
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Source: IOCL





















