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छोटी सी गौरैया में हैं बड़े गुण, पर्यावरण के चक्र का बेहद जरूरी अंग है बिहार का राजकीय पक्षी

गौरैया मारने का नतीजा झेलने में चीन को बहुत देर नहीं लगी. उन्होंने जो 1958 में किया उसका नतीजा उन्हें अगले तीन वर्षों में ही झेलना पड़ गया. गौरैया अब कीड़ों को खा नहीं रही थी इसलिए कीड़े बेतहाशा बढ़े.

पौराणिक कथाओं के हिसाब से बात करें तो महाभारत के उद्योग पर्व और देवी भागवत पुराण जैसे ग्रंथों में इंद्र के त्वष्टा से संघर्ष की कहानी आती है. त्वष्टा की पत्नी थी विरोचना (या रेचना) जो प्रह्लाद की पुत्री थी यानी असुर कुल की थी. इनका पुत्र हुआ त्रिशिरा जिसका नाम उसके तीन सर होने के कारण था. एक सर से वो सोमपान करता, दूसरे से सुरा और तीसरे से अन्न/भोजन ग्रहण करता था. अपनी मां की आज्ञा से उसने असुरों का पुरोहित होना स्वीकार किया था, इसलिए इंद्र ने वज्र से उसे मार डाला और उसके तीनों सर एक बढ़ई से कटवा दिए. कथाओं के मुताबिक उसके वेदपाठी सर से कपिंजल पक्षी, सुरापान वाले सर से गौरैया और अन्न खाने वाले सर से तीतर पक्षी उत्पन्न हुए.

छोटी सी गौरैया की बड़ी कहानी

गौरैया के जन्म की इस अनोखी सी कहानी को बिहार में शराबबंदी और त्रिशिरा के सुरापान वाले सर से बिहार का राजकीय पक्षी माने जाने वाले गौरया का जन्म होने को जोड़कर भी देख सकते हैं. इसी त्रिशिरा को विश्वरूप नाम से भी जाना जाता है और सर काटने वाले तक्ष (बढ़ई) को यज्ञ में पशु का सर देने का लालच इंद्र ने दिया था, ये कहानी देवी भागवत में भी आती है. जो भी हो, गौरैया लम्बे समय से साहित्य में जगह पाती रही है क्योंकि कृषि के लिए महत्वपूर्ण पक्षियों में से ये एक होती है. खेतों में पाए जाने वाले कीड़ों को ये खाती है, जिससे किसान के लिए ये एक मित्र पक्षी है.

आधुनिक काल की कथाओं में भी “स्पैरोज” नाम की एक प्रसिद्ध कहानी के ए अब्बास ने लिखी थी, जिसे कई लोगों ने पढ़ा होगा. ये रहीम खान नाम के एक गुस्सैल आदमी की कहानी है जिसे उसके पिता ने अपनी पसंद से शादी और काम चुनने नहीं दिया. इसकी नाराजगी वो जिन्दगी भर अपनी पत्नी और बच्चों पर निकालता रहा. अंत में उसका परिवार जब उसे छोड़ गया होता है, उस समय वो अपने घर की छत में घोंसला बना गयी गौरैया के बच्चों की कैसे देखभाल करता है, इसकी ये कहानी है. इन सब की तुलना में अगर कहीं चीन को देख लेंगे, तो वहां इसका उल्टा ही होता दिखेगा. वामपंथी तानाशाही में चीन को ले जाते ही माओ त्से तुंग ने “द ग्रेट लीप फॉरवर्ड” की योजना पर काम करना शुरू किया. उसका इरादा था कि पिछड़े, बिमारियों से ग्रस्त चीन को तरक्की के रास्ते पर किसी तरह ले जाया जाए. इसके लिये उसने प्रकृति पर नियंत्रण पाने का प्रयास शुरू किया. इस दौर में चीन की आर्थिक और सामाजिक ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे क्षेत्रों में भी स्थिति बहुत खराब थी.

चीन में हुआ गौरैया का संहार

इस काल में चीन कई महामारियों से भी जूझ रहा था और 1940 का दशक जब समाप्त हो रहा था उस समय तक टीबी, प्लेग, कॉलरा, पोलियो, मलेरिया, और स्मालपॉक्स जैसी बीमारियों से कई जानें जाती थीं. पानी के जरिये फैलने वाले संक्रामक रोगों से पूरा चीन पीड़ित था और कॉलरा बिलकुल आम महामारी थी. बीमारियों से होने वाली मौतें कितनी अधिक थी इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति 1000 बच्चे जो जन्मते थे, उनमें से 300 तक की मौत हो जाती थी. ऐसे में संक्रामक बिमारियों को फ़ैलाने वाले जीवों को समाप्त करने की कोशिश करनी थी - मच्छरों को मलेरिया के कारण, चूहे प्लेग के वाहक होने के कारण, मक्खियाँ कई बिमारियों का वाहक होने के कारण और अंतिम गौरैया इसलिए क्योंकि वो फसलों को खाती थीं. इस तरह मलेरिया, टाइफाइड-कॉलरा और प्लेग फैलाने वाले मच्छर, मक्खी और चूहों के साथ गौरैया भी मार दिए जाने योग्य जीवों में शामिल हो गयी. कम्युनिस्टों ने जमकर इन “फोर पेस्ट्स” से होने वाले नुकसान का प्रचार किया और किसानों को इनके खात्मे के लिए उकसाया.

मरी गौरैया लाने पर इनाम घोषित हुए, स्कूलों में गौरैया मारने वालों को सम्मानित किया जाने लगा. चीनी वामपंथियों का कहना था कि एक गौरैया प्रति वर्ष 2 किलो तक अनाज खा जाती है और उसे मार देने से किसानों का फायदा होगा. ये उल्टी बात जैसे ही किसानों को सिखाई गई, गौरैया और दूसरे पक्षियों के घोंसले उजाड़े जाने लगे, उनके अंडो को फोड़ा गया. हुजूम बना कर वामपंथी ढपली-नगाड़ों और बर्तन बजाते निकलते और गौरैया शोर से परेशान होकर भागती. उन्हें तबतक खदेड़ा जाता जबतक वो थककर गिरे और दम न तोड़ दे. गुलेल और बंदूकों से गौरैया का शिकार किया जाता. चीन में गौरिया समाप्त हो रही थी लेकिन पोलैंड की एम्बेसी ने चीनी वामपंथियों का गौरैया मारने का हुक्म मानने से इनकार कर दिया. नतीजा ये हुआ कि वामपंथी भीड़ ने पोलिश एम्बेसी को घेरकर अपनी ढपली-नगाड़ों से शोर मचाना शुरू किया और शोर न झेल पाने वाली छोटी चिड़िया – गौरैया एक-एक करके मरने लगी. पॉलिश एम्बेसी से बेलचों-तसलों में भर-भर कर मरी गौरैया फेंकी गयी.

चीन को झेलने पड़े दुष्परिणाम

गौरैया मारने का नतीजा झेलने में चीन को बहुत देर नहीं लगी. उन्होंने जो 1958 में किया उसका नतीजा उन्हें अगले तीन वर्षों में ही झेलना पड़ गया. गौरैया अब कीड़ों को खा नहीं रही थी इसलिए टिड्डों और फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले दूसरे कीड़ों की आबादी बेतहाशा बढ़ी और फिर अकाल आये. ऐसा माना जाता है कि इन अकालों में 4.5 से 7.8 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई. वामपंथियों ने गौरैया को “फोर पेस्ट्स” से हटाया और गौरैया के बदले वहाँ खटमल डाला लेकिन तबतक देर हो चुकी थी. चीनी साहित्य और फिल्मों में कई बार इस गौरैया मारने के अभियान का जिक्र आता है. पर्यावरण पर गौरैया के न होने का जो परिणाम होता है, वो पूरी दुनिया देख चुकी है, इसके बाद भी लोग चेते हों, उन्होंने अपने बर्ताव में बदलाव लाया हो, ऐसा नहीं है. गौरैया की गिनती लगातार कम हो ही रही है और भारत पर भी इसका असर तो दिखेगा ही.

बिहार में अगर शहरों की बात करें तो देश के सबसे अधिक प्रदूषित दस शहरों में बिहार के तीन शहर – पटना, गया और मुजफ्फरपुर तो होते ही हैं. आजकल सहरसा भी तेजी से सबसे प्रदूषित भारतीय शहरों की सूची में अपनी जगह बना रहा है. धुल-धुंए के अलावा ध्वनि प्रदुषण भी होता है और जाहिर है कि शोर से दूर रहने वाली गौरैया ऐसे प्रदुषण में तो रहेगी या पनपेगी नही. बिहार के शहरों में रहने वाले लोगों से पूछकर आप देख सकते हैं कि अंतिम बार गौरैया उन्होंने कब देखी थी. एक दो “पॉकेट्स” को छोड़ दें, तो गौरैया बिहार में नहीं दिखती. गौरैया के कम होने का एक और कारण भी है. वो दिखने में बिलकुल बगेरी जैसी होती है. संरक्षित पक्षी बगेरी का खाने के लिए शिकार किया जाता है. कई बार शौकीनों को ठगकर, बगेरी के बदले गौरैया भी खिला दी जाती है. इसके कारण भी गौरैया की गिनती घट रही है. संरक्षित पक्षी बगेरी का शिकार नहीं होता होगा, शिकारियों को जेल होती होगी, ऐसे भ्रम में हैं तो एक बार इन्टरनेट पर ही ढूंढ लीजिये, बगेरी बनाने की रेसिपी आसानी से यू-ट्यूब पर मिल जाएगी.

कुल मिलाकर बिहार के राजकीय पक्षी के संरक्षण और संवर्धन के लिए किये जाने वाले बिहार सरकार के प्रयास खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं हैं. कहने को गौरैया दिवस पर चिड़ियाघर में एक-आध आयोजन होते नजर आयेंगे और ऐसा ही चलता रहा तो थोड़े दिनों में बिहार का राजकीय पक्षी बिहार में नहीं, केवल बिहार के चिड़ियाघर में दिखाई दे पायेगा. पर्यावरण परिवर्तन पर सोच रहे हों, तो एक बार गौरैया को भी याद कर लीजियेगा!

आनन्द ने मार्केटिंग एवं मीडिया से स्नातकोत्तर की पढ़ाई के बाद कुछ वर्षों तक डाटा एनालिटिक्स में काम किया. पत्रकारिता और सोशल सोशल रिसर्च में रुचि की वजह से पूरी तरह लिक्खाड़ बन गए. वह यूनिसेफ से भी जुड़े रहे हैं और फिलहाल अपने शौक की वजह से कई संस्थानों के लिए स्वतंत्र लेखन और शोध करते हैं.
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