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Hostile Takeover: एक झटके में छिन सकती है आपकी कंपनी की बड़ी हिस्सेदारी! जानें क्या होता है 'होस्टाइल टेकओवर'

Hostile Takeover: सरल भाषा में समझिए कि आखिर कैसे होस्टाइल टेकओवर के जरिए किसी कंपनी का अधिग्रहण किया जाता है.

Hostile Takeover and Open Offer: अगर आप किसी बड़ी कंपनी के मालिक हैं और अचानक आपको पता लगता है कि आपकी खुद की कंपनी में अब आपकी हिस्सेदारी न के बराबर रह गई है तो ये पैरों तले जमीन खिसकने जैसा होगा. अब सवाल ये है कि क्या ये वाकई में मुमकिन है? तो इसका जवाब हां है... यानी किसी बड़ी कंपनी को एक ही झटके में हड़पा जा सकता है. बिजनेस की भाषा में इस पूरे प्रोसेस को होस्टाइल टेकओवर (Hostile Takeover) कहा जाता है. इसका एक बड़ा उदाहरण हाल ही में एनडीटीवी में अडानी ग्रुप की हिस्सेदारी में देखने को मिला. 

दरअसल अचानक खबर सामने आई कि अडानी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड ने बड़ी मीडिया कंपनी एनडीटीवी की 29 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली है. इसके बाद रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि जल्द ही अडानी ग्रुप एनडीटीवी के बाकी शेयर भी खरीदने जा रहा है, हालांकि इसी बीच एनडीटीवी की तरफ से एक बयान जारी हुआ, जिसमें कहा गया कि कंपनी के फाउंडर्स प्रणय रॉय और राधिका रॉय से चर्चा के बिना ही अडानी ग्रुप ने ये शेयर खरीद लिए. 

अब वही सवाल सामने आता है कि क्या ऐसे कोई भी किसी कंपनी के शेयर अपने नाम कर सकता है? इसका जवाब जानने के लिए आपको होस्टाइल टेकओवर को समझना होगा. चलिए जानते हैं क्या होता है होस्टाइल टेकओवर...

क्या होता है होस्टाइल टेकओवर?
होस्टाइल टेकओवर के कई उदाहरण दुनिया के तमाम देशों में देखने को मिल जाते हैं. सीधी भाषा में समझाएं तो एक कंपनी का दूसरी कंपनी को हड़पने के तरीके को ही होस्टाइल टेकओवर कहा जाता है. इसे होस्टाइल यानी शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें शेयर खरीदने से पहले मालिकाना कंपनी के फाउंडर्स या बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से कोई सलाह नहीं ली जाती है. मैनेजमेंट को सीधे बायपास करके कंपनी के शेयर अपने नाम कर लिए जाते हैं. अब ऐसा होता कैसे है, ये आपको समझाते हैं. 

कैसे होता है टेकओवर?
अब अगर कोई बड़ी या यूं कहें कि हजारों करोड़ की कंपनी है तो उसमें कोई एक मालिक नहीं होता है. इसमें कई कंपनियों या लोगों की हिस्सेदारी होती है. इन्हीं से बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स चुने जाते हैं और उनसे पूछे बिना कोई भी फैसला नहीं लिया जा सकता है. अब एनडीटीवी का उदाहरण लेते हुए इसे समझते हैं. एनडीटीवी की प्रमोटर कंपनी RRPR ने साल 2009 में एक कंपनी VCPL से कर्ज लिया. ये करीब 403 करोड़ रुपये का कॉर्पोरेट लोन था. इसके बदले  VCPL को RRPR के वारंट दे दिए गए. जन्हें शेयर्स में बदला जा सकता है. सीधी भाषा में समझें तो सामने वाली कंपनी से कर्ज लेकर गारंटी के तौर पर अपने शेयर गिरवी रखे जाते हैं. 

अब एक तरीके से VCPL के पास एनडीटीवी के करीब 29 फीसदी शेयर थे. इसी का फायदा उठाते हुए अडानी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड ने इस पूरी कंपनी को ही खरीद लिया. यानी जो एनडीटीवी के शेयर VCPL के पास थे, वो अब अडानी ग्रुप को मिल गए. इनडायरेक्ट तरीके से अडानी मीडिया को 29.18 फीसदी हिस्सेदारी मिल गई. इस तरह यहां होस्टाइल टेकओवर पूरा हो गया. 

होस्टाइल टेकओवर के बड़े उदाहरण
बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2009 में इसका एक बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला था, जब क्राफ्ट फूड्स ने कैडबरी (Cadbury) का अधिग्रहण किया था. क्राफ्ट ने 16.7 अरब अमेरिकी डॉलर का ऑफर दिया था, जिसे कैडबरी के चेयरमैन ने खारिज कर दिया. कैडबरी की तरफ से इसके लिए होस्टाइल टेकओवर डिफेंस टीम बनाई गई थी. ब्रिटिश सरकार ने भी इस ऑफर का विरोध किया था. हालांकि इसके बाद 2010 में क्राफ्ट ने 19.6 अरब डॉलर का ऑफर देकर आखिरकार कैडबरी को खरीद लिया था. 

इसके अलावा 1990 के दशक में ब्रिटानिया ग्रुप के टेकओवर की लड़ाई भी काफी चर्चा में रही थी. टेक्सटाइल टाइकून नुस्ली वाडिया ने राजन पिल्लई से ब्रिटानिया को टेकओवर किया था. 

अब कहा जा रहा है कि अडानी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड ओपन ऑफर लाने वाला है, जिससे वो एनडीटीवी में 50 फीसदी से ज्यादा का हिस्सेदार बन सकता है. अब आप होस्टाइल टेकओवर के बारे में तो समझ गए, लेकिन आखिर ये ओपन ऑफर क्या है, जिससे किसी कंपनी के शेयर आसानी से खरीदे जा सकते हैं? आइए हम आपको समझाते हैं...

क्या होता है ओपन ऑफर?
मान लीजिए आप किसी कंपनी के शेयर हर हाल में खरीदना चाह रहे हैं. जैसा कि हमने आपको बताया कि कंपनी के अलग-अलग हिस्सेदार होते हैं, मालिक कभी भी कंपनी के शेयर आसानी से बेचना नहीं चाहेगा, लेकिन बाकी हिस्सेदारों को तोड़ा जा सकता है. ओपन ऑफर के जरिए भी यही किया जाता है. अधिग्रहण करने वाली कंपनी शेयर खरीदने के लिए प्रति शेयर एक ऐसा मूल्य तय करती है जो काफी आकर्षक होता है. यानी सामने वाली कंपनी शेयर का बड़ा से बड़ा दाम भी देने के लिए तैयार होती है. ऐसे में कंपनी में छोटी हिस्सेदारी रखने वाले लोग या कंपनी मौके का फायदा उठाकर इस ऑफर को एक्सेप्ट करते हैं और अपने शेयर बेच देते हैं. 

हालांकि ओपन ऑफर लाने के लिए SEBI ने कुछ नियम भी बनाए हैं. जिनमें एक नियम ये भी है कि अगर आपके पास किसी कंपनी के 25 फीसदी से ज्यादा शेयर नहीं हैं तो आप ओपन ऑफर नहीं ला सकते हैं. इसके लिए एक पूरा प्रोसेस है, जिसे अधिग्रहण करने वाली कंपनी को फॉलो करना होता है. जिसमें अखबार में विज्ञापन देने से लेकर सेबी को जानकारी देने तक का नियम है. सेबी की तरफ से शेयर होल्डर्स तक लेटर ऑफ ऑफर की जानकारी पहुंचाई जाती है, जिसमें अधिग्रहण का मकसद और बाकी जानकारी भी शामिल होती है. 

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