लॉकडाउन में कैसी है किसानों और खेतीहर मज़दूरों की ज़िंदगी?
कोरोना वायरस की वजह से लगे लॉकडाउन में दिक्कत तो सबको हो रही है. लेकिन सबसे ज्यादा परेशान किसान और खेतीहर मज़दूर हैं, जिनके सामने अगले एक साल तक भोजन जुटाने की बड़ी चुनौती है.

कोरोना के बढ़ते खतरे को देखते हुए 24 मार्च, 2020 को भारत में लॉकडाउन लगा दिया गया. इस फैसले के तुरंत बाद देश के अलग-अलग हिस्सों के रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर लाखों की संख्या में लोग पहुंच गए. उन्हें अपने घर जाना था. लेकिन ये लोग कोई नौकरीपेशा या कॉरपोरेट से जुड़े नहीं थे. ये वो लोग थे, जिन्हें उनकी पेट की भूख शहरों तक खींच लाई थी. ये मज़दूर थे, जो काम की तलाश में अपने गांव छोड़कर शहर आए थे. चार पैसे कमाने, दो पैसे बचाने कि अपने साथ परिवार का भी पेट पाल सकें. लेकिन लॉकडाउन के बाद इन्हे्ं अपना गांव याद आया. ट्रेन, बस और ट्रांसपोर्टेशन के तमाम संसाधन बंद होने के बाद ये लोग पैदल, साइकल से, ठेले से, जैसे भी बन पड़ा, अपने घर निकल गए. ये लोग अब अपने घरों तक पहुंच गए हैं. और यहां भी कमोबेश हालात वैसे ही हैं. कोई काम नहीं है. काम नहीं है तो पैसे नहीं हैं और पैसे नहीं है तो खाना नहीं है.
लॉकडाउन की ये भी एक तस्वीर है. अब इस लॉकडाउन की अवधि पूरी होने वाली है. 15 अप्रैल को लॉकडाउन खुलेगा या नहीं, अभी तस्वीर साफ नहीं है. क्योंकि कोरोना का खतरा टला नहीं है. हर रोज बढ़ता जा रहा है. इस कोरोना का खामियाजा सबको भुगतना पड़ रहा है. जिनके पास पैसे हैं, वो तो और कुछ दिनों तक बर्दाश्त कर ले जाएंगे, लेकिन किसान और मज़दूर अब इस हालत में नहीं है कि लॉकडाउन को बर्दाश्त कर सकें.
सरकारी आंकड़ों की मानें तो देश में फिलहाल करीब 55 करोड़ लोग हर रोज मज़दूरी करके अपना जीवन यापन करते हैं. इनमें से करीब 35 से 40 करोड़ लोग गांवों में मज़दूरी करते हैं और 15 से 20 करोड़ लोग शहरों में मज़दूरी करते हैं. लॉकडाउन है तो शहरों में कोई भी फैक्ट्री नहीं चल रही है. उत्पादन बंद है और इस वजह से इन 15-20 करोड़ लोगों के पास कोई काम नहीं है. इनमें से ज्यादातर लोग अपने गांवों में लौट गए हैं. लेकिन वहां भी तो ऐसे ही हालात हैं. खेती का सीजन है. मसूर, चना, गेहूं की फसल तैयार है. कटाई हो भी रही है. लेकिन गांवों में पहले से मज़दूर भरे पड़े हैं. अब और भी लोग शहरों से गांवों में आ गए हैं, तो मज़दूरी के रेट भी कम हो गए हैं. और वैसे भी खेतों में कटाई के लिए नकद रकम नहीं दी जाती है. अगर उत्तर प्रदेश और बिहार की बात करें तो यहां बड़े इलाके में हर 16 गट्ठर फसल की कटाई पर एक गट्ठर फसल मज़दूर की होती है. अब मज़दूर ज्यादा हैं और खेत कम तो हर मज़दूर के हिस्से में अनाज भी कम आ रहा है. लेकिन अभी मज़दूरों की मुसीबत यहीं पर खत्म नहीं हो जाती है.
लॉकडाउन की वजह से अनाज बाहर मंडियों में नहीं जा रहा है, तो गांवों में रेट भी कम है. सरकार ने जिस गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये प्रति 100 किलो तय किया है, उसी गेहूं को गांव में मज़दूर 12 रुपये-13 रुपये किलो बेचने पर मज़बूर हैं. जिस रबी की फसल की बदौलत ये मज़दूर कटाई करके अपने साल भर के खाने का इंतजाम कर लेते थे, अब उन्हें इसी रबी की फसल में अगले एक महीने के लिए भी अनाज जुटाने में मुश्किल आ रही है. क्योंकि मज़दूरों की संख्या अचानक से बढ़ गई है, मज़दूरी घट गई है और अनाज का दाम मिल नहीं पा रहा है.
शहरों में मेहनत मज़दूरी कर रही ये भीड़ अब गांव में पहुंच गई है और काम की तलाश में है. और चूंकि ये मज़दूर हैं, भीख मांगने वाले नहीं, तो ये किसी के मोहताज भी नहीं होते हैं. खुद खून-पसीना जलाकर मेहनत करते हैं और तब खाते हैं. ये अब भी खून पसीना जला रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं, लेकिन खाने को नहीं मिल पा रहा है. केंद्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारें इन मज़दूरों के खाते में पैसे भेज रही है, अगले तीन महीने के लिए अनाज की व्यवस्था कर रही है, लेकिन उसके बाद क्या. अभी रबी के सीजन में मज़दूर अगर अपने एक साल के खाने की व्यवस्था नहीं कर पाए तो क्या सरकारें उनके अगले साल के लिए खाने की व्यवस्था करेंगी. इसका जवाब खोजना ज्यादा मुश्किल नहीं है. अभी 10 अप्रैल को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने ऐलान किया कि यूपी के 11 लाख मज़दूरों के खाते में एक-एक हजार रुपये डाले गए हैं. अगर मज़दूरों को काम मिल रहा होता तो क्या वो एक हजार रुपये ही कमाते. ये एक हजार रुपये मज़दूरों के लिए फौरी राहत तो हो सकती है, लेकिन भविष्य तो अब भी उनका अंधकार में ही है.
किसानों की फसल तैयार है, लेकिन वो उन्हें मंडी तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं. अब एक और आंकड़ा बताते हैं. ये आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र संघ का है. इस आंकड़े के मुताबिक अब भी भारत में करीब 37 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. यानि कि उनकी हालत बेहद खराब है. लॉकडाउन की वजह से इनकी फिलहाल की स्थिति क्या होगी, आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं. और रही बात गांव के किसानों की. तो उसकी हालत हमेशा से ही खराब रही है. लॉकडाउन में स्थितियां और भी बदतर हो गई हैं. फसल कट गई है, लेकिन अनाज मंडी तक नहीं जा पा रहा है, सरकार ने फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया है, लेकिन सरकारी खरीद नहीं हो रही है. प्याज जैसी कच्ची फसल खेतों से खोदकर निकाली जा चुकी है. बाजार में अब भी प्याज के रेट 25 रुपये के पार हैं, लेकिन किसानों को अपनी प्याज 10 रुपये किलो बेचनी पड़ रही है. वजह वही लॉकडाउन. क्योंकि ट्रांसपोर्टेशन के संसाधन बंद हैं, ट्रकों के पहिए थमे हुए हैं और इसकी वजह से प्याज बाजार तक नहीं पहुंच रही है. किसान इस प्याज को खेतों में नहीं रख सकता, क्योंकि थोड़ी सी भी बारिश पूरी फसल बर्बाद कर देगी.
इसलिए किसान हों या मज़दूर, साधारण नौकरी पेशा हो या कॉरपोरेट का कोई एप्प्लाई, सबकी निगाहें 15 अप्रैल पर टिकी हैं कि क्या उस दिन लॉकडाउन खुलेगा या नहीं. और ये खुलेगा भी तो कितना खुलेगा. क्या इतना खुल पाएगा कि किसान अपनी फसल को मंडी तक ले जा सके. क्या लॉकडाउन खुलने पर इतनी छूट मिलेगी कि मज़दूर अपनी-अपनी फैक्ट्रियों तक जा सकें और क्या लॉकडाउन खुलने पर इतनी सहूलियत मिलेगी कि बेहद ज़रूरी जैसे फल, सब्जी, दूध और दवाइयों के अलावा वो फैक्ट्रियां भी खुल जाएंगी जिनमें कपड़े से लेकर धागे और रंग तक बनते हैं.
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