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BLOG: बीजेपी के लिए उच्च सदन फ़तह करना अहम क्यों है?

एनडीए की सरकार जबसे केंद्र में बनी, तभी से बीजेपी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही थी कि राज्यसभा में दबदबा कायम किया जाए. इसका मुख्य कारण तो यही था कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यसभा में आकर अटक गए.

संसद का उच्च सदन यानि राज्यसभा देश का एकमात्र ऐसा सदन है जिसमें 23 अगस्त 1954 को हुए इसके गठन के बाद से कांग्रेस हमेशा नंबर वन पार्टी बनी रही है. लेकिन मध्यप्रदेश कोटे से पिछले हफ्ते हुए उपचुनाव में सम्पतिया उइके का निर्वाचन होने के साथ ही बीजेपी ने अपने 58 सदस्यों के साथ राज्यसभा में बढ़त ले ली है. अब 57 सदस्यों वाली कांग्रेस दूसरे नंबर पर पिछड़ गई है. बीजेपी के लिए इसका राजनीतिक महत्व और देश पर पड़ने वाला विधायी असर बड़ा परिवर्तनकामी सिद्ध हो सकता है.

एनडीए की सरकार जबसे केंद्र में बनी, तभी से बीजेपी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही थी कि राज्यसभा में दबदबा कायम किया जाए. इसका मुख्य कारण तो यही था कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यसभा में आकर अटक गए. कई बार कांग्रेस, वामपंथी और विपक्षी दल मिलकर लोकसभा से पारित होकर आए विधेयकों में संशोधन करा देते थे और सत्तारूढ़ एनडीए की बड़ी किरकिरी होती थी. हालांकि यूपी और उत्तराखंड में मिले प्रचंड बहुमत और बिहार में जेडीयू के साथ आ जाने से राज्यसभा में एनडीए की ताकत अब लगातार बढ़ती ही जाएगी, लेकिन निकट भविष्य में निर्णायक बहुमत प्राप्त करना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा.

कभी न भंग होने वाली राज्यसभा का गठन भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों के हितों की रक्षा करने के लिए किया गया था, इसीलिए इसके सदस्यों का चुनाव राज्यों के विधायक ही करते हैं. संसद और विधान परिषदों के सदस्य मतदान के अधिकारी नहीं होते. इसमें राष्ट्रपति द्वारा विविध क्षेत्रों के 12 विशेषज्ञ सदस्य भी नामित किए जाते हैं ताकि लोकसभा से पारित प्रस्तावों की सम्यक जांच हो सकें और मंत्रिपरिषद को बेहतर स्वरूप दिया जा सके. यह बात और है कि आज महज पद और प्रतिष्ठा के लोभ में राज्यसभा पहुंचना ‘चोर दरवाज़े से प्रवेश’ पाने के तौर पर कुख्यात हो चुका है!

यद्यपि सदन की चुनाव प्रक्रिया ऐसी है कि मतदाताओं को सब्ज़बाग दिखाकर इसकी सीटें नहीं जीती जा सकतीं. चुनाव जीतने के लिए न्यूनतम मतों की संख्या का निर्धारण कुछ इस प्रकार होता है- यूपी विधानसभा में कुल 403 विधायक हैं और 11 राज्यसभा सीटें हैं. इनमें 1 जोड़ने पर प्राप्त 12 से 403 को विभाजित करने और ठोस शेषफल में पुनः 1 जोड़ने पर 34 की संख्या प्राप्त होती है. अर्थात्‌ वहां की हर सीट जीतने के लिए कम से कम 34 मत प्राप्त करने होंगे. इसमें विधायक उम्मीदवारों को वरीयता के अनुसार अपना मत देते हैं.

स्पष्ट है कि जिन राज्यों में रिक्त हुई सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं, वहां जिस राजनीतिक दल और उसके सहयोगी दलों के विधायकों की संख्या अधिक होगी, वही सीटें भी अधिक जीतेंगे. इस लिहाज से वर्तमान स्थिति बीजेपी के लिए पर्याप्त अनुकूल है क्योंकि 2018 में रिटायर होने वाले 68 में से 58 सांसद आगामी अप्रैल में ही रिटायर हो जाएंगे, जिनमें से 9 सांसद यूपी और 6 बिहार के होंगे. राष्ट्रपति की अनुशंसा पर 6 साल के कार्यकाल वाले कुछ नामित सदस्य भी बदले जाएंगे क्योंकि हर दो साल में राज्यसभा के एक तिहाई सदस्य बदल जाते हैं.

राज्यसभा में संख्या बल की कमी के चलते मोदी सरकार को अपने सुधारों का एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए आर्टिकल 123 के सहारे बार-बार अध्यादेशों की बैसाखी पकड़नी पड़ती है. उनकी सरकार शुरुआती छह महीनों में ही टेक्सटाइल्स, कोयला क्षेत्र, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन संशोधन और ट्राई संशोधन समेत दर्ज़नों अध्यादेश ला चुकी थी. भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश चौथी बार लाने के लिए तो केंद्र सरकार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की नसीहत भी सुननी पड़ी. शत्रु-सम्पत्ति संशोधन जैसे कई अध्यादेशों को बार-बार पुनर्जीवित करने का रवैया देखकर महामहिम अपने विदाई समारोह तक में मशविरा दे गए कि अध्यादेशों का इस्तेमाल सिर्फ अपरिहार्य परिस्थितियों में ही करना चाहिए और वित्त मामलों में अध्यादेश का प्रावधान नहीं होना चाहिए. लेकिन फिलहाल मोदी जी के हाथ बंधे हुए हैं.

केंद्र को आगे भी अध्यादेश जारी करने पड़ सकते हैं. इससे यही संदेश जाएगा कि सरकार राज्यसभा का सामना करने से डरती है. यह बात काफी हद तक सच भी है. वर्ष 2015 में शीतकालीन सत्र के दौरान राज्यसभा में विपक्ष के गतिरोध की वजह से एनडीए सरकार महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों से जुड़े कई विधेयक पारित कराने में नाकाम रही थी. एक और अजीब चीज देखने को मिली कि संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण बिना किसी संशोधन के पास करने की परंपरा रही है लेकिन पिछले कुछ सालों से विपक्ष लगातार इसमें जोड़-घटाव करवा कर सरकार को शर्मिंदा कर रहा है. साल 2015 में धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने कालाधन और भ्रष्टाचार का मुद्दा अभिभाषण में जुड़वाया और 2016 में कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद ने सभी नागरिकों के चुनाव लड़ने के मौलिक अधिकार वाला वाक्य जोड़ने पर मजबूर किया. साल 2017 में तो रिकॉर्ड 651 संशोधन प्रस्तावित किए गए!

मौजूदा सत्र में ही पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए राज्यसभा में पेश 123 वें संविधान संशोधन विधेयक पर विपक्ष ने न सिर्फ केंद्र सरकार बल्कि समूचे सदन को गंभीर तकनीकी पेंच में उलझा दिया था. इस पर हुए मतदान में सरकार की हार भी हो गई. इसीलिए अब आगे इस तरह की किसी शर्मिंदगी को झेलने से बचने के लिए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह राज्यसभा में सीटें बढ़ाने के मिशन को युद्धस्तर पर आगे बढ़ा रहे हैं. 8 अगस्त को होने जा रहे मतदान के बाद स्वयं उनका और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी का गुजरात से जीतकर राज्यसभा में जाना तय है और कांग्रेस के लिए नाक का सवाल बन चुकी राज्य की तीसरी सीट अहमद पटेल की झोली में न जाने देने के लिए वह कोई कसर नहीं छोड़ रहे.

कांग्रेस, एसपी, बीएसपी, आरजेडी, डीएमके और वामदल अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में ढलान पर हैं. जाहिर है सदन में इनकी संख्या तेजी से घटेगी. दूसरी ओर बीजेपी और उसका समर्थन करने वाले जेडीयू, बीजेडी, शिवसेना, एआईएडीएमके और टीडीपी आदि का आधार अपने-अपने राज्यों में बरकरार है. यदि गुजरात से लेकर 2019 तक होने वाले विभिन्न विधानसभाई तथा अगले आम चुनाव में कोई नाटकीय बदलाव नहीं आता तो 2020 तक एनडीए राज्यसभा में बहुमत के लिए जरूरी 123 के जादुई आंकड़े के बेहद करीब पहुंच जाएगी. आशंका यही है कि दोनों सदनों में अपनी निर्णायक उपस्थिति के दंभ पर बीजेपी सुधारों का एजेंडा आगे बढ़ाने के बजाए सहयोगी दलों को दरकिनार करते हुए मनमानी पर न उतर आए!

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नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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