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महंगा इंसाफ पाने के लिए भी क्यों करना पड़ता है इतना इंतजार?

अभी चार दिन पहले ही इस दुनिया से विदा हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके आर. सी लाहोटी ने अपने विदाई भाषण में कहा था, "मैन देश की सर्वोच्च अदालत की प्रमुख कुर्सी पर बैठकर ये नजारा देखा है कि यहां एक गरीब,आम इंसान को इंसाफ मिलना तो बहुत दूर की बात है, अगर वह अदालत की चौखट तक पहुंच जाए,यही बहुत बड़ी बात है. क्योंकि न्याय मिलना भी अब इतना महंगा हो चुका है जिसके बारे में कभी सोचा तक नहीं था. इसलिये आज मेरी आंखें नम हैं, क्योंकि मैं चाहते हुए भी देश की न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाया." भारत के 35वें मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस लाहौटी ने एक नवंबर 2005 को अपने दिल से में छुपे इन अल्फ़ाज़ को तब अपनी जुबान दी थी,जब सुप्रीम कोर्ट की बार ने उनके विदाई सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था.

इस देश के सॉलिसिटर जनरल रह चुके मशहूर वकील हरीश साल्वे ने शनिवार को एबीपी न्यूज़ के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए बेहद अहम बातें की हैं, जिसका सरोकार इस देश के करोड़ों लोगों से जुड़ा हुआ है, जो इंसाफ के इंतज़ार में बेवजह ही जेलों की सिंखचों में है. लेकिन उन्होंने जो कहा है,उससे पहले हम जिक्र करते हैं, देश के एक मशहूर हिंदी लेखक की न्याय को लेकर कही गई बातों की,जो आज भी हमें ये सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या एक लेखक इतना बड़ा भविष्यदृष्टा भी हो सकता है. बरसों पहले मुंशी प्रेमचंद ने लिखा था-"न्याय वह है जो कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे.यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखंडियों के जाल में फंस जाए."

एक सदी बीत जाने के बाद भी हम सब आखों पर पट्टी बांधे इंसाफ की उस देवी को देख रहे हैं कि वो किस सच्चाई के साथ अपने तराजू से अन्याय का पलड़ा भारी नहीं होने देती? लेकिन हरीश साल्वे ने उस कार्यक्रम में कुछ गंभीर व बुनियादी सवाल उठाए हैं,जिस पर देश के हुक्मरानों को फौरन गौर करने की जरुरत भी है.इसलिये कि समूची दुनिया में न्याय का एक प्राकृतिक सिद्धांत है कि सबूतों के अभाव में भले ही दस कसूरवार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए. एबीपी न्यूज़ के कार्यक्रम में हरीश साल्वे से एक बेहद अहम सवाल ये पूछा गया था कि क्या भारत में न्याय मिलने में देरी होती है? साल्वे ने इसका जो जवाब दिया,वह हमारी खोखली न्याय व्यवस्था के काले सच को उजागर करता है.उन्होंने न्याय- प्रणाली में गंभीर रूप से जल्द सुधार करने की वकालत करते हुए कहा कि अगर कोई शख्स अदालत में याचिका दाखिल करता है और उसके निपटारे में ही 10 साल का समय लगता है तो आप नहीं कह सकते हैं कि सिस्टम सही तरीके से काम कर रहा है.इसीलिये उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि न्याय प्रणाली का काम तब सही होता है, जब जरूरतमंद इंसान को आप जल्द से जल्द न्याय दे सकें.

दुनिया के तमाम बड़े कानूनविदों ने कहा है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि वह होते हुए दिखाई भी देना चाहिए लेकिन  देरी से मिलने वाला न्याय एक और नए जुर्म की जमीन तैयार कर देता है.ईस लिहाज से साल्वे का ये कहना बिल्कुल दुरुस्त है.देश के लोगों को जल्द न्याय उपलब्ध कराने के लिए निचली अदालतों से लेकर राज्य के हाई कोर्ट तक में जजों के खाली पदों को भरने की तत्काल जरूरत है लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी सरकार इस तरफ खास तवज्जो इसलिये नहीं देती क्योंकि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच होने वाला टकराव इसकी बडी वजह है. हरीश साल्वे ने देश के लोगों की तकलीफों को समझते हुए ही ये कहा है कि याचिकाओं को दाखिल करने के बाद सालों बीत जाते हैं. जस्टिस डिलीवरी सिस्टम वो होता है कि याचिका दाखिल करने के बाद उस पर कितनी जल्दी फैसला होता है.लेकिन ऐसा अमूमन बहुत कम ही देखने को मिलता है.उन्होंने मुंबई का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां अंतरिम याचिका दाखिल करने के बाद भी मामले में सालों बीत जाते हैं.

देश की न्याय व्यवस्था पर शोध करने वाली एजेंसी पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक देशभर के न्यायालयों में 15 सितंबर 2021 तक लंबित मामलों की संख्या 4.5 करोड़ से ज्यादा थी. इसमें अधीनस्थ न्यायालयों (सबऑर्डिनेट कोर्ट) में 87.6 फीसदी मामले लंबित पाए गए, वहीं उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों का आंकड़ा 12.3 प्रतिशत रहा. अगर बात करें सुप्रीम कोर्ट की तो वहां लंबित मामलों की संख्या 70 हजार से ज्यादा है. अध्ययन के मुताबिक देश में 2010 और 2020 के बीच लंबित मामलों की संख्या में 2.8 फीसदी की दर से सालाना वृद्धि हुई.आंकड़ों के मुताबिक अगर इसके बाद कोई नया मामला दर्ज नहीं होता तो भी सुप्रीम कोर्ट को सभी बचे मामलों को निपटाने में 16 महीने  का समय लगेगा. वहीं हाईकोर्ट और सबऑर्डिनेट कोर्ट (अधीनस्थ न्यायालय) को लंबित मामलों को खत्म करने में 3-3 साल का समय लग जाएगा.

अगर पिछले 10 सालों से देश में लंबित मामलों पर गौर करें,तो विभिन्न राज्यों की हाईकोर्ट्स में पिछले 5 वर्ष या उससे अधिक समय से लंबित मामलों का आंकड़ा 41 फीसदी है. वहीं अधीनस्थ न्यायालयों में हर 4 में से 1 मामला कम से कम पिछले 5 वर्षों से लटका हुआ है. अधीनस्थ और उच्च न्यायालयों में करीब 45 लाख मामले 10 डाल या उससे भी ज्यादा समय से लंबित है. इसमें उच्च न्यायालयों में 21 फीसदी और अधीनस्थ न्यायालयों में 8 फीसदी मामले 10 सालों से ज्यादा समय से लंबित हैं. जिस बात पर साल्वे ने जोर दिया है,वही इस रिसर्च का भी नतीजा है कि कोर्ट में जजों की कमी ही लंबित मामलों की सबसे बड़ी वजह है.ये जानकर हैरानी जोती है कि 1 सितंबर 2021 तक हाईकोर्ट्स में जजों के कुल स्वीकृत पदों में से 42 फीसदी पद खाली थे, यानी 1098 में से 465 पद रिक्त थे. इसमें तेलंगाना, पटना, राजस्थान, ओडिशा और दिल्ली में 50 फीसदी से ज्यादा पद खाली थे. अधीनस्थ न्यायालयों की बात करें  फरवरी 2020 तक 21 फीसदी पद खाली थे. यानी 24018 में से 5146 पद रिक्त थे. जजों की कमी की वजह से फास्ट ट्रैक कोर्ट और फैमिली कोर्ट्स (ट्रिब्यूनल्स और स्पेशल कोर्ट) को गठित किया गया लेकिन यहां भी लंबित मामलों की संख्या काफी अधिक है. यही नहीं यहां खाली पदों की संख्या भी काफी ज्यादा है. 2020 के अंत तक इन न्यायालयों में 21 हजार से ज्यादा मामले लंबित थे.

इस हक़ीक़त को ध्यान में रखते हुए ही साल्वे ने सरकार के बंद कानों को खोलने पर जोर देते हुए कहा कि हमें ज्यादा जजों की जरूरत है, सिर्फ नंबर्स की बात नहीं है. हरीश साल्वे ने कहा कि अगर आप कोई पीआईएल दाखिल करते हैं तो कोर्ट कोई न कोई एसआईटी गठित करता है. फिर कई एजेंसियां काम करती हैं. ऐसे में इस तरह के इको सिस्टम पर फिर से विचार करने की जरूरत है, जिससे न्याय तेजी से दिया जा सके. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इंसाफ दिलाने में तेजी लाने के लिए हमारी कार्यपालिका कुछ ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएगी,जो अक्सर न्यायपालिका के निशाने पर होती है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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