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नोटबंदी: फैसला तो अच्छा था लेकिन तैयारी बहुत ही बुरी!

आज 16वां दिन है. लोगों ने अपने ही पैसे अपने ही बैंक या एटीएम से निकालने का प्रयास करते-करते पूरा दिन बिता दिया लेकिन आज भी सफलता हाथ नहीं लगी. नक़दी की किल्लत के चलते बैंकों ने अपनी ही लिमिट बना रखी है. किसी के घर में शादी है तो किसी की मां अस्पताल में भर्ती है. उधर सरकार नक़दी निकालने और पुराने नोट बदलने के दिशानिर्देशों को लेकर पूरी तरह दिग्भ्रमित नज़र आ रही है और बैंककर्मियों के साथ-साथ खाताधारकों को भी दिग्भ्रमित कर रही है. जेटली जी का वित्त मंत्रालय रोज नए बदलाव की घोषणा करता है. इन नित-नई घोषणाओं के चलते पहले ही ओवरटाइम कर रहे बैंककर्मी हलकान हो चुके हैं.

शुरू में घोषणा हुई कि बैंक से एक दिन में 4000 रुपए तक के पुराने नोट बदलवाए जा सकेंगे. फिर कहा गया कि 4000 की जगह 4500 रुपए के नोट बदलवाए जा सकेंगे. उसके तीन दिन बादफरमान आ गया कि 4500 नहीं, सिर्फ 2000 रुपए ही बदले जाएंगे. इसी तरह शुरू में एटीएम से नोट निकलने की सीमा 2000 रुपए रखी गई थी जिसे बाद में 2500 रुपए कर दिया गया. बचत खातों के लिए पैसे निकालने की सीमा एक दिन में 10000 रुपए थी और हफ्ते की 20000 रुपए. बाद में रोज़ की सीमा समाप्त करके हफ्ते की सीमा 24000 रुपए कर दी गई. पहले किसी भी बैंक में नोट बदलवाने की छूट थी, लेकिन फिर यह व्यवस्था हो गई कि अपने खाते वाले बैंक में ही यह काम हो सकेगा. को-ऑपरेटिव बैंकों के लिए किसानों के हज़ार-पांच सौ के पुराने नोट तो पहले दिन से ही कागज का टुकड़ा हो गए थे लेकिन अब फरमान आया है कि वे पुराने नोटों से बीज ख़रीद सकते हैं. कभी बैंक वाले आधार कार्ड की फोटोकॉपी मांगते हैं तो कभी मोबाइल नंबर. कभी निर्धारित फॉर्म में कुछ डिटेल भरावाया जाता है तो कभी कुछ.

मोदी जी की यह महत्वाकांक्षी योजना काला धन जमा करने वाले बेईमान समाजकंटकों को लक्ष्य करके बनाई गई थी लेकिन इसकी ज्वाला की तपिश देश का ईमानदार आदमी अधिक महसूस कर रहा है. नोट बदलवाने की लाइन में खड़े-खड़े अब तक कई लोग दम तोड़ चुके हैं. लेकिन इन मौतों को लेकर सत्तारूढ़ दल का रवैया इतना संवेदनहीन है कि भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय शहस्रबुद्धे कहते हैं कि कई बार लोग राशन की लाइनों में इंतजार करते हुए भी मर जाते हैं! यूपी भाजपाध्यक्ष फरमाते हैं कि लोग तो किसी भी वजह से मर सकते हैं, इसका इल्जाम नोटबंदी के सर मत मढ़िए.

सरकार पहले दिन से ही कह रही है कि ईमानदार लोगों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है लेकिन कतारों में मरने वाले यही ईमानदार लोग हैं. दुकान-डलिया और मझोले व्यवसाय चौपट हो जाने का ख़ामियाजा भुगतने वाले यही लोग हैं. मोदी जी की नोटबंदी के निशाने पर जो लोग थे उनके पास पैसा है, सम्पर्क हैं, सुविधाएं हैं. वे इस खेल के पुराने खिलाड़ी हैं. लेकिन गरीब की मरन है. बिना फुल-प्रूफ तैयारी किए बिना इतना बड़ा फैसला वही ले सकता है जो ख़ुद को अवतारी पुरुष मानता हो. कोई और होता तो सोचता कि काला धन समाप्त करने के ऐसे उपाय अपनाने चाहिए जिससे जनता को न्यूनतम परेशानी हो. वह होमवर्क करता कि भारत के साढ़े 6 लाख गांवों पर इस फैसले का क्या असर होगा और उन तक पहुंचकर उन्हें कैसे चिंतामुक्त किया जाएगा. परदेश में पड़े मजदूर को राशन कैसे मिलेगा और पूरे देश में सप्लाई लाइन का चक्का कैसे घूमेगा? 2 लाख एटीएमों और बैंक शाखाओं में नया कैश निर्बाध कैसे पहुंचेगा? वैसे भी नोटबंदी के फैसले की तुलना कुछ अर्थशास्त्रियों ने मच्छर मारने के लिए तोप लगाने से की है.

जब कोई शासक किसी आमूलचूल परिवर्तन को अपने व्यक्तित्व से जोड़ देता है तो ऐसे ही दृश्य देखने को मिलते हैं जैसे कि आज हर शहर और हर कस्बे में देखने को मिल रहे हैं. ऐसा ही एक बड़ा फैसला बिहार में नितीश कुमार ने किया था- पूर्ण शराबबंदी का. उसमें उनकी पर्सनैलिटी की छाप प्रबल थी और लोगों की तकलीफें गौण. उनके फैसले से सिर्फ शराब बनाने, बेचने या पीने वाला ही नहीं, उसका पूरा परिवार ही अपराधी हो गया. विरोध करने वालों को पियक्कड़ बताया गया. लेकिन मोदी जी और नीतीश जी अपने फैसलों को अपना मिशन चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है कि नीतीश कुमार मोदी जी के इस मिशन का खुलकर समर्थन कर रहे हैं. मोदी जी तो लोगों से राष्ट्र के लिए ‘त्याग’ करने की अपील भी कर रहे हैं. वह संसद में गैरहाज़िर रहकर अपने ‘एनएम एप’ पर नोटबंदी को लेकर लोगों की राय मांग रहे हैं. उनके सर्वे में दसियों सवाल हैं लेकिन वे लोगों से यह नहीं पूछ रहे कि आप कितनी जल्दी घर से निकलते हैं और कितनी दूर चल कर बैंक या एटीएम की लाइन में लग जाते हैं? घंटों लाइन में लगे रहने के बावजूद पैसा न मिलने पर कैसा महसूस होता है?

यकीन मानिए, नोटबंदी के फैसले से होने वाली तमाम तकलीफें सहने को तैयार बैठे वाले आम लोग अब क्रोधित होने लगे हैं और मोदी समर्थक भी कहने लगे हैं कि फैसला तो अच्छा था लेकिन तैयारी बहुत ही बुरी!

-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

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