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Blog: इस वर्ष राजनीतिक विमर्श की भाषा पहुंच गई रसातल में

आज 31 दिसंबर है जो साल 2017 की अंतिम तारीख है. जीवन के किस क्षेत्र में सामाजिक, राजनीति, आर्थिक, सांस्कृतिक और अन्य आयामों में किसने क्या पाया, क्या खोया- इसका आकलन निजी और सार्वजनिक तौर पर विभिन्न माध्यमों के जरिए से किया किया जा रहा है.

आज 31 दिसंबर है जो साल 2017 की अंतिम तारीख है. जीवन के किस क्षेत्र में सामाजिक, राजनीति, आर्थिक, सांस्कृतिक और अन्य आयामों में किसने क्या पाया, क्या खोया- इसका आकलन निजी और सार्वजनिक तौर पर विभिन्न माध्यमों के जरिए से किया किया जा रहा है. 2017 को अलविदा कहते हुए मैंने सोचा कि क्यों न पूरे साल हुई राजनीतिक बयानबाजी के गिरते मयार पर नजर दौड़ाई जाए!

ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद पक्ष और प्रतिपक्ष एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक नहीं रहे, लेकिन मर्यादा का खयाल रखा जाता था. राजनीतिक हमलों के लिए व्यंग्य, कटाक्ष और विनोद का सहारा लेना आम चलन था. सत्ता के गलियारों में मिलते थे तो विपक्षियों की तरह मिलते थे, दुश्मनों की भांति नहीं. उन्हें खयाल रहता था कि कभी जब दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों. दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है- “पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं / बात बस इतनी कि कोई पुल बना है.” लेकिन मुझे यह भी याद आता है कि एक टीवी चैनल के कॉन्क्लेव में जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से एंकर ने पूछा कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ उनके कैसे रिश्ते हैं तो शाह साहब ने जवाब दिया था कि सोनिया जी से उनके मित्रता के रिश्ते नहीं हैं और वह रखना भी नहीं चाहते!

Blog: इस वर्ष राजनीतिक विमर्श की भाषा पहुंच गई रसातल में

अमित शाह की वह स्वीकृति आज के राजनीतिक परिदृश्य, उद्देश्य, सुचिता और प्रवृत्ति को स्पष्ट करने के लिए काफी थी. वे दिन लद गए जब अटल बिहारी वाजपेयी नेहरू जी के निधन पर आंसू बहाते हुए उन्हें देश की रोशनी करार देते थे और इंदिरा गांधी को दुर्गा का प्रतीक बताते थे. अब तो होड़ मची हुई है कि विपक्ष के बड़े से बड़े नेता के प्रति किस हद तक गिर कर अपशब्दों का प्रयोग किया जाए! और वही नेता यदि अपने पक्ष में आ जाए तो उसकी स्तुति में कितना जोरदार चालीसा बांचा जाए! डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि लोकराज लोकलाज से चलता है, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान तो नेतागण यह भी भूल जाते हैं कि लोक क्या होता है और लाज क्या होती है! वे आलोचना, विरोध, स्पर्धा और जय-पराजय की भावनाएं ताक पर रख देते हैं.

इस साल भी मीडिया की घनी मौजूदगी, कैमरे की चकाचौंध और दो मिनट की लोकप्रियता के लोभ ने राजनेताओं और पार्टी प्रवक्ताओं को बनारस का सांड बनाए रखा. वे अपने दल में व्याप्त भ्रष्टाचार, जातिवाद और परिवारवाद की अनदेखी करते रहे और विपक्षियों की सीडियां बांटते रहे. इससे उनके दूसरे और तीसरे रैंक के नेताओं ने प्रेरणा ली और वे अपने-अपने नेताओं के सम्मान की रक्षा हेतु गाली-गलौज में मुब्तिला रहे. सोशल मीडिया, खास तौर पर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में आपत्तिजनक तस्वीरें, मीम, वीडियोज और झूठे किस्से कहानियां पढ़ाते रहे!

गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर ने पीएम मोदी को ‘नीच प्रवृत्ति’ का नेता करार दे दिया, जो मर्यादाहीन वक्तव्य था. उसके बाद प्रचार के दौरान स्वयं पीएम नरेंद्र मोदी ने उस बयान को विकृत करके कहा कि उन्हें नीच जाति का बताया गया है. इतना ही नहीं उन्होंने अपनी रैलियों में मणिशंकर के घर उसी दौरान आयोजित डिनर पार्टी को गुजरात चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए पाक द्वारा हस्तक्षेप की साजिश करार दे दिया! जबकि इस डिनर में पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री कुंवर नटवर सिंह, नई दिल्ली में पाक के राजदूत सोहैल महमूद, कुछ रक्षा विशेषज्ञ तथा जाने-माने पत्रकार उपस्थित थे. चुनावी लाभ के लिए पीएम द्वारा बोला गया यह सफेद झूठ था.

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गुजरात चुनाव के ही दौरान राहुल गांधी के मंदिर-भ्रमण के बाद उनके हिंदू होने को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गईं. उससे पहले सितंबर में जब गुजरात विधानसभा चुनाव की हवा बन ही रही थी तब बीजेपी प्रवक्ता प्रेम शुक्ला ने कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी को सरेआम रूपजीवा प्रवक्ता कह दिया. बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा की टीवी चैनलों पर बरसों से जारी तीखी और अमर्यादित वाणी तो जगजाहिर है ही. हिमाचल प्रदेश के चुनावों के दौरान एक बहस में उन्होंने कांग्रेस को आदमखोर पार्टी तक कह दिया था! नवंबर में कांग्रेस के यूपी प्रमुख राज बब्बर ने अलीगढ़ में तलवार चलाने की बात कह डाली तो जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पप्पू यादव ने एक के सिर पर ईनाम घोषित कर दिया था.

इसी साल बिहार बीजेपी के अध्यक्ष नित्यानंद राय प्रधानमंत्री पर उंगली उठाने वाले की उंगली तोड़ देने और हाथ काट डालने की बात कर रहे थे. बिहार के ही पूर्व स्वास्थ-मंत्री और लालू के सुपुत्र तेज प्रताप यादव बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी को घर में घुस कर मारने की धमकी दे चुके हैं! बीजेपी सांसद और फिल्म अभिनेता परेश रावल ने मोदी जी और सोनिया जी की तरफ इशारा करते हुए ट्वीट कर डाला- “चाय वाला बनाम बार बाला.” नेहरू की बहन के साथ वाली तस्वीर को गर्लफ्रेंड बताने वाले बीजेपी आईटी सेल के श्रीयुत मालवीय जी ने तो माफी भी नहीं मांगी. कितना गिनाया जाए! सोशल मीडिया पर भाई लोग इस साल भी उड़ाते ही रहे कि नेहरू जी अय्याश थे, उनके पुरखे मुसलमान थे और नेहरू जी की मौत किसी ‘गुप्त रोग’ के चलते हुई थी!

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आज हम देखते हैं कि वामपंथी दलों को छोड़ दिया जाए तो अब लगभग हर प्रमुख राजनीतिक दल के अपने-अपने बेलगाम आदित्यनाथ हैं, दिग्विजय सिंह हैं, अय्यर हैं, पात्रा हैं, साक्षी महाराज हैं, गिरिराज सिंह हैं, आजम खां हैं, ओवैसी हैं, जीवीएल हैं, तोगड़िया हैं, साधु-साध्वियां हैं- और यह पूरी रणनीति के साथ राजनीतिक विमर्श को सड़क छाप बना डालने के उद्देश्य से उतारे जाते हैं. ऐसे में नव-नियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की शालीन राजनीति उम्मीद जगाती है, पार्टी कार्यकर्ताओं से उनका सच्चाई का दामन न छोड़ने का आवाहन आशा का संचार करता है, पीएम और राजनीतिक विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने से रोकना मर्यादित राजनीतिक आलोचना के नए द्वार खोलता है. जबकि राहुल के विपक्षी कालिख पोतने में ही व्यस्त दिखे! बीजेपी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने दिसंबर में अपने ट्विटर हैंडल से राहुल गांधी को 'बाबर भक्त' और 'खिलजी का रिश्तेदार' बताया. बीजेपी सांसद साक्षी महाराज जीवीएल से एक कदम आगे निकल गए और राहुल को 'खिलजी की औलाद' बता डाला!

अगर हम यहां विभिन्न दलों के राजनेताओं की घटिया राजनीतिक बयानबाजी को प्रस्तुत करने लग जाएं तो यह पृष्ठ ही प्रदूषित हो जाएगा! उन्हें न तो पद का लिहाज है, न उम्र का, न भाषा का. जो देश चला रहे हैं और जो चलाना चाहते हैं वे अपने ही कैडर को राजनीतिक विमर्श के निचले स्तर पर धकेल रहे हैं. यह इसके बावजूद है कि भारतवर्ष में बहस की वैदिक काल से एक स्वस्थ परंपरा रही है. आदि शंकराचार्य, मंडन मिश्र और उनकी धर्मपत्नी के बीच हुआ मर्यादित शास्त्रार्थ जगतविख्यात है और हमारी थाती है.

महज चुनावी लाभ के लिए अगर राजधानियों में बैठे शीर्ष नेता बहस को स्वयं गटर में डालने पर उतारू हैं, तो देश के चौक-चौबारों के राजनीतिक पतन को कौन रोक लेगा? उम्मीद की जानी चाहिए कि 2018 में अर्थात्‌ अगले साल सभी दल इस मुद्दे पर सिर जोड़ कर बैठेंगे और राजनीतिक विमर्श की भाषा को मर्यादित करने का कोई जतन करेंगे.

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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