(Source: ECI / CVoter)
आनंद मोहन प्रकरण से नीतीश कुमार का असली चेहरा उजागर, वैसे भी नहीं रहे थे कभी भी वह ''सुशासन बाबू''...बस गद्दी बचाने में जुटे
डी एम जी कृष्णैया हत्याकांड में अपराधी घोषित और आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे पूर्व सांसद आनंद मोहन को मुक्त करने का आदेश दे दिया गया है. आनंद मोहन के भाग्य से एक दर्जन जेलों में बंद 27 अपराधियों का भी छींका टूटा है, यानी उनकी भी रिहाई का आदेश हो गया है. पूर्व डीएम की पत्नी ने इस पर निराशा जताई है तो वहीं बिहार में सियासी बयानबाजी तेज हो गई है. सत्ताधारी गठबंधन जहां इसे जायज ठहरा रहा है, वहीं विपक्ष गठबंधन को घेरने के प्रयास में जुट गया है.
आनंद मोहन या उस जैसे बाहुबली नहीं, अपराधी हैं
आनंद मोहन के लिए बाहुबली शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है, उसके लिए अपराधी शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए. एक हत्यारे को राज्य सरकार ने नियमों में संशोधन कर छोड़ दिया है और ये संकेत दिया है कि अपने स्वार्थ के लिए वह किसी भी हत्यारे को माफ भी कर सकती है, संबंध भी बना सकती है. अब ये तो मानवता का तकाजा है कि जो व्यक्ति सरकारी ड्यूटी कर रहा है, सरकारी कर्मचारी है और उसकी हत्या कोई कर देता है, जो अधिकारी निर्दोष है, तो इसको तो 'रेयर ऑफ द रेयरेस्ट' मामला मानकर ही नियम बनाया गया था, तो अब पता नहीं कि कैसा राजनीतिक हित साधने के लिए लालूजी और नीतीश जी ने ये तमाशा किया है, तो इसका जवाब अब पब्लिक देगी.
वैसे, जनता के बारे में भी क्या बोला जाए? उसको तो अंधा बनाकर ये लोग वोट लेते हैं. जाति की दुनिया है और वही चलता है. बिहार की राजनीति पूरी तरह से जातिवादी राजनीति है. आनंद मोहन पहले भी मायावी के तौर पर रहा था. लालूजी और नीतीशजी हमेशा से राजपूतों को साधने में लगे थे. लालूजी को पहले भी राजपूतों का साथ मिला था. इधर वो बिखरता हुआ दिखाई पड़ रहा था. हो सकता है कि आनंद मोहन के जरिए राजपूतों का वोट साधने की कोशिश की जाए. वैसे, इनकी लड़ाई अब कमजोर पड़ चुकी है. मुसलमान वोट भी इनके साथ एकमुश्त रहा नहीं. आनंद मोहन के जरिए ये जो भी गणित बिठाना चाह रहे हों, लेकिन 90 में जिस गणित के जरिए इन्हें वोट मिला था, अब वो इनको नहीं मिलेगा.
बिहार सरकार का फैसला बस वोट बैंक के लिए
इसको समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है. वोटबैंक के लिए ही मैनुअल में बदलाव किया गया. आखिर, ऐसी क्या जरूरत पड़ गई थी राज्य सरकार को? कोई कारण तो इन्होंने न्यायालय में बताया नहीं है कि किस मानवता के चलते इन्होंने यह बदलाव किया. ये सरकार विरोधी वोटों को मैनेज करने के लिए आनंद मोहन से अनंत सिंह तक पर नजरे इनायत होगी. वैसे भी, हमारी समझ तो यही कहती है कि नीतीश जी की छवि कभी भी अच्छी नहीं थी. ये शुरू से ही त्रिवेणी संघ के नायक के रूप में काम कर रहे थे. यादवों से इनकी नहीं पटी, तो इन्होंने भूमिहारों को पटाया. ये सवर्ण वोटों को बिखेर कर, दलितों-अतिपिछड़ों को मायाजाल दिखाकर बस खेल रहे हैं. अपनी राजगद्दी बचा रहे हैं. अब ये तो जनता को देखना है कि वह इनका खेल समझती है या नहीं.
आनंद मोहन के पैरोकार या वह खुद भले बोल लें कि आजीवन कारावास का मतलब जीवन भर कारावास नहीं होता, लेकिन कानून तो साफ है न. 485 आइए में तो लिखा हुआ है कि आतंकियों को, बलात्कारियों को और सरकारी कर्मचारियों की ड्यूटी के दौरान हत्या करनेवालों को यह छूट नहीं मिलती न कि 14साल के बाद उनको अच्छे बर्ताव के आधार पर छोड़ दिया जाए. आनंद मोहन जैसों के लिए तो आजीवन कारावास का अर्थ है- मृत्यु तक जेल. तीन वर्गों में ये छूट नहीं थी कि अच्छे व्यवहार के आधार पर रिहाई हो जाएगी- बलात्कारियों के लिए, आतंकियों के लिए और सरकारी कर्मचारी जो ड्यूटी पर हैं, उनकी अकारण हत्या में शामिल होनेवालों के लिए.
सरकार है. उसका तो मोटो ही है- समरथ को नहीं दोष गुसाईं. हमारे हिसाब से तो जनता को जवाब देना चाहिए. अब जनता देखेगी. बाहुबली क्या होता है, बाहुबली जिसे कहते हैं, वह किसी का खिलौना नहीं बनते. ये जो अपराधी हैं ये तो सत्ता के नचनिया हैं. नीतीश जी और लालूजी इनको नचाएंगे और ये नाचेंगे, उनकी ऊंगलियों के इशारे पर. इन लोगों को बाहुबली नहीं, नचनिया कहिए अपराधी कभी बाहुबली नहीं होते. आखिर, इनका हश्र वही होता है जो किसी भी बुरे आदमी का होता है. कानून-व्यवस्था पर इससे बुरा असर क्या होगा कि सरकार हत्यारों को छोड़ रही है. अब तो इससे मोराल डाउन होगा ही. हालांकि, ये बता दूं कि नीतीश जी और लालूजी बहुत दिनों तक सत्ता में रहेंगे नहीं. उन्होंने इस काम से अपने बाहर निकलने का रास्ता खोल लिया है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]