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जिया खान सुसाइड केस: 10 साल बाद CBI कोर्ट का फैसला, जानिए आखिर किस आधार पर सूरज पंचोली हुए बरी

मुंबई के स्पेशल CBI कोर्ट ने एक्टर सूरज पंचोली को 10 साल बाद बॉलीवुड एक्ट्रेस जिया खान की हत्या मामले में शुक्रवार को बरी कर दिया. कोर्ट के फैसले ने जिया खान की मां को बड़ा झटका दिया है. उन्होंने कहा कि वे इस फैसले को आगे कोर्ट में चुनौती देंगी. जिया खान की मौत 3 जून 2013 को मुंबई स्थित उनके घर में हुई थी. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कैसे सीबीआई कोर्ट ने सूरज पंचोली को इस मामले में बरी कर दिया, बरी करने के पीछे क्या आधार रहा? 

दरअसल, अदालत बहुत ही सीधे तरीके से काम करती है. कोर्ट उपलब्ध कराए गए साक्ष्यों के आधार पर निर्णय देता है और ये प्रोसिक्यूशन का काम होता है कि वे सबूत उपलब्ध कराए. अगर उससे आरोपी व्यक्ति का अपराध साबित हो जाता है तो निश्चित तौर पर कोर्ट उसको सजा देगा. सीबीआई कोर्ट ने फैसला दिया और चूंकि सीबीआई जो कि इस देश का एक प्रीमियर इंस्टिट्यूशन है और उसके द्वारा कोर्ट में रखे गए साक्ष्य के आधार पर कोर्ट ने यह पाया कि सूरज पंचोली के खिलाफ कोई भी केस नहीं बनता है. चूंकि कोर्ट में रखे गए साक्ष्य उतने मजबूत नहीं थे, ऐसे में उन्हें बरी कर दिया गया.

मैं ऐसा मानता हूं कि सामान्य मामलों की तरह अगर प्रोसिक्यूशन एजेंसी साक्ष्य ही नहीं दे पाया कि फलां व्यक्ति आरोपित है, ऐसे में कोर्ट उसे कैसे दोषी करार दे सकती है. हमारा जो क्रिमिनल जुरिस प्रूडेंस है उसमें प्रिजम्पश ऑफ इनोसेंस यानी मर्डरर को भी प्रिज्यूम किया जाता है कि वह निर्दोष है तब तक की जब तक उस पर लगाए गए आरोप साबित नहीं कर दिये जाते हैं. कोर्ट इसी ज्यूरिस प्रूडेंस के आधार पर किसी भी व्यक्ति को न्याय देती है.

इसी को फॉलो करते हुए कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में सूरज पंचोली को बरी किया है. क्योंकि इसमें IPC की धारा 306 के तहत उन्हें आरोपित बनाया गया था और 306 अबेटमेंट टू सुसाइड का मामला होता है और इससे संबंधित कोई उनके खिलाफ सबूत नहीं थे. जिसके आधार पर कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया है.

सुसाइड के लिए उकसाना साबित करना बड़ी चुनौती

हम सब को ये बात पता है कि देश में त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली की व्यवस्था है. हर व्यक्ति के पास ये अधिकार है कि वो लोअर कोर्ट के फैसले को हाई कोर्ट में और अगर हाई कोर्ट से भी न्याय नहीं मिलती है तो वह सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज करे. अगर पीड़ित परिवार यह बात कह रही है कि वे आगे इसे चैलेंज करेंगे तो इसमें कुछ भी वह गलत नहीं कह रही हैं. इसके लिए उनके पास संवैधानिक अधिकार है. जहां तक यह सवाल है कि कौन सा ऐसा पक्ष है जिसे वो आगे पेश करेंगी तो इस बार में जिया खान की मां ही ज्यादा जानकारी रखती होंगी.

मेरे अनुसार या जो मैं समझ पा रहा हूं, उसमें सूरज पंचोली को लेकर जो कोर्ट ने निर्णय दिया है अब ये डबल प्रिजम्पशन वाला मामला हो गया है. चूंकि पहले तो प्रिज्मपशन ऑफ इनोसेंस का मामला था लेकिन अब यह डबल प्रिजम्पशन हो गया चूंकि एक कोर्ट ने उनके फेवर में निर्णय दे दिया है. ऐसे में हाई कोर्ट में उस फैसले को ओवर टर्न करना बड़ा मुश्किल हो जाता है. चूंकि एक बार जब कोर्ट ने कोई फाइंडिंग दी है और वह प्रथम दृष्या में गलत हो तब तो हाई कोर्ट उसे पलट सकती है. लेकिन अगर सबूत के अभाव में किसी को बरी कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से हाई कोर्ट उस फैसले को नहीं बदलेगी.

आत्महत्या का जो मामला होता है वह ब्लाइंड नेचर का होता है. उसे प्रूफ कर पाना बहुत मुश्किल होता है. बहुत कम ऐसे मामले होते हैं जिसमें सुसाइडल नोट बरामद होते हैं. ऐसे में जब केस ब्लाइंड हो जाता है तो पुलिस के भी उसे सुलझा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. चूंकि पुलिस के पास भी इतने इन्वेस्टिगेटरी टूल्स नहीं हैं जिसके आधार पर वह किसी व्यक्ति को दोषी साबित कर सके. अब चूंकि सीसीटीवी कैमरे और मोबाइल फोन का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है इसलिए 306 के मामलों में दोषी साबित कर पाना थोड़ा आसान हो गया है. लेकिन पहले तो इस मामले में किसी को पनिशमेंट मिलता ही नहीं था. आज की जो परिस्थिति है उसमें आपको सोशल मीडिया पर चैट्स के प्रूफ मिल सकते हैं, इंस्टाग्राम हो सकता है.

संभावना के दम पर नहीं लड़ा जा सकता केस

आईपीसी की धारा 306 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एम मोहन बनाम स्टेट मामले में बड़ा ही स्पष्ट तरीके से कहा है कि इसमें आरोपित व्यक्ति के साथ इन सभी चीजों का लिंक होना चाहिए. और लिंक दोनों के बीच होना चाहिए और वो भी आरोपित व्यक्ति के व्यावहार में और जो खुदकुशी की घटना हुई है उसके बीच में और इसे बहुत सारे सबूतों के आधार पर साबित भी किया जाना चाहिए. वैसे सबूत हो जैसे की चैट्स में इस तरह की बात हो कि आप अगर नहीं मरोगे तो मार दिये जाओगे. इस तरह की चीजों को साबित करने के लिए हमारा जो कानूनी पक्ष है, उसमें आपको कोई भी फैक्ट को ऐसे प्रूफ करना होता है जिसमें कोई संदेह करने की स्थिति नहीं रह जाए. यहां पर संभावना के दम पर केस नहीं लड़ा जा सकता है.

वस्तुतः इसमें होना ये चाहिए था कि पीड़ित परिवार की जगह सीबीआई कोर्ट को ही आगे जाना चाहिए था और नहीं तो फिर स्टेट का मामला है तो स्टेट को आगे अपील के लिए जाना चाहिए कि लोअर कोर्ट ने गलत निर्णय दे दिया है. लेकिन पीड़ित परिवार भी जा सकता है अगर उसे ऐसा लग रहा है कि सीबीआई ने जांच अच्छे तरीके से नहीं की है. इसमें दो बातें हो सकती हैं. पहला यह कि उनकी जांच में गड़बड़ी है ऐसे में इनको पहले ही अपील के लिए जाना चाहिए था. गलत इन्वेस्टिगेशन का मामला अलग होता है और लोअर कोर्ट का जो फैसला है उसको चैलेंज करना एक अलग मामला है.

इसमें 2 केस उनको करना पड़ेगा. फेयर ट्रायल तो सभी का होता है. उसके लिए फिर इनको अगल से चैलेंज करना पड़ेगा. अपील के लिए अलग से जाना पड़ेगा. चूंकि यहां पर वे लोअर कोर्ट के जजों की गलतियों को बता रहे हैं और अगर संवैधानिक सवाल है कि फेयर ट्रायल हीं हुआ तो उसके लिए इन्हें हाई कोर्ट में जाना पड़ेगा. ये एक बड़ा प्रश्न है और मैं समझता हूं कि कोर्ट इसे गंभीरता से लेगी और फिर निर्णय करेगी.    

[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]

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