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बॉब डिलेन को नोबेल... तो गुलजार साहब को क्यों नहीं?

बॉब डिलेन को साहित्य का नोबेल मिलने से ज्यादातर लोग हैरान हैं. दुनिया जानती है कि बॉब एक संगीतकार और गीतकार हैं और उन्हें साहित्य का नोबेल देकर कला के दायरे को बढ़ाने की कोशिश की गई है. कला की परिभाषा सभी अपनी-अपनी तरह से करते हैं. बॉब ने एक लंबे अरसे तक अपने गीतों में सामाजिक संवेदनाएं जाहिर की हैं. इस लिहाज से उनके गीत साहित्य कहे जा सकते हैं. साहित्य सिर्फ कहानी-उपन्यास नहीं, काव्य और गीत भी है. गीतांजलि के साथ टैगोर को मिले नोबेल ने एक सौ तीन साल पहले ही यह साबित कर दिया था. इस लिहाज से बॉब को नोबेल मिलना कोई नाजायज बात नहीं है.

कला और कलाकार संवेदनाओं से भरा होता है. समाज में जो कुछ भी घटित होता है, उसकी रचनाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वह आ ही जाता है. बॉब के गीतों ने वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सरकार की धज्जियां उड़ाईं तो हर क्रांतिकारी को महसूस हुआ कि वह उसी की मन की बात कर रहे हैं. साठ के दशक में बॉब के गीतों को सुनने वाले जानते हैं कि उनमें रंजकता के साथ-साथ द्रोह भी था. इसीलिए उनके गीत युद्ध विरोधी आंदोलनों के लिए एंथम का काम करते थे.

पर आह... यह सब साठ और सत्तर के दशक की बात है. इसके बाद बॉब एकाएक रोमांटिक हो गए और प्यार-मोहब्बत के गीत गाने लगे. इसके बाद अब बॉब डिलेन क्या करते हैं- हमें ज्यादा नहीं पता. क्या सोचते हैं- यह भी नहीं जानते. अमेरिका ने जब अपने विरोधियों के खिलाफ बिन लादेन को खड़ा किया तब बॉब क्या सोचते थे? इराक में सद्दाम हुसैन को नेस्तानाबूद करने के दौरान बॉब का क्या मानना था? इस्राइल और साउदी अरब के संगी बनने पर बॉब अमेरिका के खिलाफ थे या उसके साथ? पाकिस्तान और चीन पर उनका क्या कहना है? हम यह भी जानना चाहते हैं कि सीरिया में मासूम बच्चों की मौत पर क्या वह फिर कुछ लिखना और गाना चाहेंगे? बॉब चुप हैं तो यह किसी साहित्यकार की नहीं, एक गीतकार और एक कलाकार की भी हार है.

जाहिर सी बात है, बॉब पश्चिम में लोकप्रिय हैं इसलिए वह नोबेल के हकदार बन जाते हैं. व्यक्ति की संवेदना के आधार पर अगर वह किसी सम्मान का हकदार बन जाता है तो अपने यहां ऐसे सैकड़ों कलाकार हैं जिन्हें साहित्य का नोबेल मिलना ही चाहिए. खुद अमेरिका में ओल्ड मैन रिवर वाले पॉल रॉबसन, डेंजरस सांग्स वाले पीट सीगर और बॉब डिलेन की साथिन रही जोन बायज भी इस कतार में शामिल हैं. ये सभी अपने-अपने दौर के सोशल एक्टिविस्ट थे और गीत-संगीत का इस्तेमाल उन्होंने इसीलिए किया. वे सिर्फ लोकगीत नहीं, जनगीत गाने वाले कलाकार थे. अपने यहां कैफी आजमी और साहिर लुधियानवी से लेकर गुलजार साहब से लेकर जावेद अख्तर तक तमाम संवेदनशील गीत लिखते रहे हैं. दलित गीत रचने और गाने वाले संभाजी भगत भी हैं. इन लोगों ने जनांदोलनों में हिस्सा भी लिया और अपनी सामाजिक चेतना भी जताई.

लेकिन नोबेल पर किसी का जादू नहीं चला. वह नोबेल जिसकी आधारभूमि हथियारों की खरीद-फरोख्त से तैयार हुई. नोबेल पुरस्कार जिस एल्फ्रेड नोबेल ने शुरू किए थे, वह बोफोर्स के मालिक थे. डायनामाइट उनकी ईजाद थी. जब हथियारों की बिक्री को लेकर दुनिया भर में उनकी थू-थू हुई तो उन्होंने नोबेल की नींव रख दी. बंदे की जयजयकार हो गई. यही वजह है कि हेनरी किसिंजर से लेकर बराक ओबामा तक को नोबेल शांति पुरस्कार बांटे गए. इस साल भी कोलंबियाई राष्ट्रपित मैनुअल सांतोस को सिर्फ गुरिल्ला आर्मी के साथ पीस एकॉर्ड साइन करवाने की कोशिश करने पर शांति पुरस्कार दे दिया गया. उनके बारे में इतनी जानकारी और है कि देश के रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने इक्वेडोर में विद्रोहियों पर बमबारी की थी और वह भी इक्वेडोर को बताए बिना. हां, विद्रोहियों के कब्जे से उन्होंने अमेरिका नागरिकों को रिहा जरूर करवाया था. इसके अलावा भी वह बहुत से सैन्य अभियानों का नेतृत्व कर चुके हैं. बेशक, युद्ध से कमाई दौलत से शांति फैलाने की अदा पश्चिम की खास शैली है. पूरी दुनिया में प्रिवेलेज्ड क्लास ही तय करता है कि कब लड़ाई का बिगुल बजाया जाए और कब सफेद कबूतर उड़ाकर शांति का संदेश दिया जाए.

नोबेल की यह हालत है. किसे देना है, क्यों देना है- इस पर पश्चिम के ही नजरिये से सोचा-समझा जाता है. इसी कारण महात्मा गांधी से लेकर लियो टॉलस्टॉय तक को किसी पुरस्कार के लायक नहीं समझा गया. ऐसे कितने ही साहित्यकार हुए जिन्हें नोबेल से नवाजा ही नहीं गया- फ्रांज काफ्का, वर्जिनिया वुल्फ, व्लादिमीर नोबोकोव, चिनुआ अचेबे और बहुत से. इसके अलावा कितने ही भारतीय साहित्यकार नोबेल से नहीं नवाजे गए. पंजाबी के गुरदयाल सिंह, ओड़िया के सीताकांत महापात्र, कन्नड़ के यू.आर. अनंतमूर्ति, मलयालम के के. सच्चिदानंद, गुजराती के गुल मोहम्मद शेख, मराठी के नामदेव ढसाल, बांग्ला की महाश्वेता देवी और सुनील गंगोपाध्याय... अपने यहां भी ढेरों नाम हैं.

अब बॉब डिलेन को नोबेल देकर एक रास्ता खोल दिया गया है- पॉपुलर म्यूजिक को साहित्य में सेंध लगाने के लिए. हमारे यहां बरसों तक इस बात पर तू-तू मैं-मैं होती रही कि गुलशन नंदा को पॉपुलर उपन्यास लिखने पर साहित्यकार कहा जाए या नहीं. सामाजिक चेतना उनके उपन्यासों में कम थी क्या. राजेश खन्ना पर एक कमेंट करके नसीरुद्दीन शाह फंस गए क्योंकि काका अब स्वर्ग सिधार गए हैं. काका ने भी ह्रषिकेश मुखर्जी के साथ कई शानदान फिल्में दी थीं- आनंद और बावर्ची को आप भूल सकते हैं क्या. लेकिन पॉपुलर क्लासिक की जगह नहीं ले सकता. हीरो हीरो ही रहता है, ऐक्टर नहीं बन सकता. बॉब प्रेमचंद और महाश्वेता देवी की जगह नहीं ले सकते. अगर उन्हें नोबेल से नवाजना है तो गुलजार साहब के लिए दावा करना किसी लिहाज से कम नहीं है. वैसे भी हम बॉब डिलेन के फैन नहीं, कैफी, गुलजार, साहिर के फैन हैं. उससे पहले गालिब और मीर के. फैज और मंटो के. प्रेमचंद और शरतचंद्र के. जहां तक गुलजार साहब का सवाल है, उनके लिखे गीतों में लोकध्वनियों को सुना जा सकता है. कितने ही गीतकारों ने उनके लिखे गीतों को सुनकर कहा है कि इस दृश्य पर हमें ऐसे शब्द क्यों नहीं सूझते. बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आने पर उन्होंने भी कार मैकेनिक के तौर पर काम करना शुरू किया और खाली समय में लिखना शुरू किया. चौरस रात, जानम, रावी पार, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, खराशें उनकी लिखी बेहतरीन किताबें हैं. अपने गीतों के लिए उन्हें ऑस्कर और ग्रैमी तक मिल चुका है. ऐसे ही हर गीतकार-संगीतकार-साहित्यकार की अपनी-अपनी कहानियां हैं. इसीलिए बॉब को मिले सम्मान पर तालियां पीटते हुए हम अपने एक बंदे की दावेदारी तो पेश कर ही सकते हैं.

नोट- ब्लॉग में लिखे गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं एबीपी न्यूज इसके लिए उत्तरदायी नहीं है. 

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