विपक्ष की कड़वी बातें सुनने का भी तो हौंसला जुटाइये सरकार!

नीतिशास्त्र के सबसे बड़े विचारक आचार्य चाणक्य ने राजनीति को लेकर एक जगह पर बेहद अहम बात लिखी है- "मिश्री भरी बातें बोलकर लोगों का दिल जीतना और उसके बल पर सत्ता में आना तो आसान है लेकिन आपका एक अहंकार ही कब वो सत्ता छीन लेगा,अगर इसे समझ लिया,तो फिर आप देश नहीं बल्कि दुनिया पर बादशाहत करने के लिए पूरी तरह से योग्य हैं."
इसमें कोई शक नहीं कि जब तक राजनीति रहेगी,तब तक चाणक्य के वाक्य भी जिंदा रहेंगे लेकिन ये बात अलग है और न ही आप-हम ये जानते हैं कि आजकल के हमारे नेता चाणक्य की उस नीति को कितना पढ़ चुके हैं या उससे क्या ग्रहण कर चुके हैं.लेकिन इसे तो कोई भी झुठला नहीं सकता कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में विपक्ष को अपनी बात कहने का पूरा हक है लेकिन अगर वह इस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए किसी झूठ का सहारा लेता है,तो फिर ये जनता की अदालत पर ही छोड़ देना बेहतर होगा कि वही ये तय करे कि आखिर सच कौन बोल रहा है.
बुधवार को लोकसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिन तीखे तेवरों के साथ सरकार पर हमला बोला है,उसे लेकर सियासी बवाल मचना तो स्वाभाविक ही था.जाहिर है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ऐन पहले उन्हें अपनी बात देश के लोगों तक पहुंचाने और इसके जरिये अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का इससे बेहतर व प्रभावशाली मंच कोई और मिल ही नहीं सकता था.लेकिन गौर करने वाली बात ये भी है कि इस मुल्क में सदियों से ये परंपरा चलती आई है कि किसी भी हुकूमत में बैठे राजा का पहला धर्म ये बनता है कि वह अपने विरोधियों की आवाज़ न सिर्फ सुने,बल्कि उसकी कही बातों की गहराई को समझते हुए ये भी तलाशे कि आखिर वह गलत कहाँ हैं.तवारीख का इतिहास गवाह है कि जिसने भी 'राजधर्म' के इस उसूल को अपनाने से अपना मुंह मोड़ा, उसे अहंकारी राजा का ही तमगा मिला.
अहंकारी कौन है,इसका फैसला तो हमेशा से देश की जनता ही करती आई है लेकिन राहुल के लोकसभा में दिए गए भाषण के फौरन बाद ही सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों ने उन्हें अहंकारी बताकर असल मुद्दों का जवाब देने से बचने की जो कोशिश की है,उसे भी नज़रंदाज़ करना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता.
दरअसल, कल राहुल गांधी पूरी तैयारी करके लोकसभा में आये थे और पिछले नौ साल में शायद यह पहला ऐसा मौका था,जब उन्होंने एक साथ इतने सारे मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरा हो.सत्तारुढ़ दल उन्हें भले ही 'पप्पू' कहकर उनका मखौल उड़ाता रहे लेकिन बगैर किसी पक्षपात के उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों का अगर गहराई से आकलन करें, तो वे राष्ट्रहित और यहां की जनता की तकलीफों से वास्ता रखने वाले ही हैं.राहुल ने तीन-चार मोटी बातें जो कही हैं,उनमें से सबसे ज्यादा चिंताजनक और अहम बात ये है कि चीन-पाकिस्तान का गठजोड़ आने वाले दिनों में भारत के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है.
उन्होंने भले ही ये बात कल कही है लेकिन हमारे अन्तराष्ट्रीय सामरिक विशेषज्ञ काफी पहले से ही ये चेता रहे हैं कि दोनों मुल्कों की ये दोस्ती भारत के खिलाफ कोई ऐसी खिचड़ी पकाने में लगी हुई है, जिसकी हमें भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. हालांकि राहुल ने तो सीधे तौर पर ये आरोप लगाया है कि "केंद्र सरकार की नीति की वजह से आज पाकिस्तान और चीन साथ आ गए हैं. भारत दुनिया में अलग-थलग हो चुका है. वह चारों तरफ से घिर चुका है.डोकलाम और लद्दाख को लेकर चीन की योजना काफी स्पष्ट है जबकि भारत की विदेश नीति में काफी गलतियां हैं."
लोकतंत्र में सबसे बड़ी बात होती है कि एक मुसीबतजदा इंसान को अगर उसकी लिखी चिट्ठी का जवाब उस मंत्री की तरफ से मिल जाये,तो उसको देख-पढ़कर ही वह अपनी आधी मुसीबतें भूल जाता है कि अब तो मेरा कुछ उद्धार हो ही जायेगा.लेकिन सियासत का उसूल इसके बिल्कुल उलट है. यहां तो हिसाब वहीं चुकता करना होता है.लिहाज़ा,राहुल पर पलटवार करने में जरा भी देरी नहीं हुई. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने राहुल गांधी पर जमकर निशाना साधते हुए कहा कि "राहुल को बोलने का मौका सिर्फ इसलिए मिल रहा है क्योंकि वे गांधी परिवार से हैं... मोदी जी जहां बैठे हैं, राहुल गांधी और गांधी परिवार वाले सोचते हैं ये मेरा स्थान है. इन्हें बहुत अहंकार है जो उनसे ऐसी बात करवा रहा है."राहुल ने बार-बार बोला कि भारत एक देश ही नहीं है. राहुल एक कंफ्यूज आदमी हैं. चीन को सपोर्ट कर रहे थे. राहुल बुद्धिहीन हैं. डायरेक्शनलेस हैं और कन्फ्यूज हैं."
वैसे तो हर कोई यही चाहेगा कि राहुल के ये आरोप गलत साबित हों लेकिन हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी भी यही रही है कि विपक्ष के किसी नेता द्वारा उठाये गए ऐसे बेहद संवेदनशील मुद्दे को पूर्ववर्ती सरकारों ने बेहद गंभीरता से लिया है और उसके मुताबिक ही उससे निपटने की तैयारी भी की है.
दो दिन पहले ही देश का आम बजट पेश हुआ है,जिसके बाद देश की बहुसंख्यक आबादी को समझ आ गया कि उसे इससे कितना बड़ा फायदा मिला है.चूंकि उसमें मिडिल क्लास के लिए कोई बड़ी सौगात नहीं थी,लिहाज़ा राहुल गांधी को ये कहने का मौका मिल गया कि "अब एक भारत नहीं, दो भारत हैं. एक भारत अत्यंत धनी लोगों के लिए है, जिनके पास अपार दौलत है, जिनके पास अपार शक्ति है. एक भारत गरीबों के लिए है." राहुल गांधी ने एक और बड़ा आरोप लगाते हुए कहा है कि केंद्र इस देश को एक छड़ी से नहीं चला सकता है.पिछले कुछ सालों में गैर बीजेपी शासित राज्यों ने कई बार खुलकर ये बोला है कि केंद्र उनके अधिकारों पर हमला कर रहा है या उसे छिनने की कोशिश में लगा है.शायद इसीलिए राहुल कल इस मुद्दे पर भी सरकार को घेरने से बाज नही आये और उन्होंने
कहा कि "संविधान में भारत को राष्ट्र नहीं कहा गया है. भारत राज्यों का संघ है. सरकार को इतिहास का ज्ञान नहीं है. बिना संवाद के लोगों पर राज नहीं कर सकते. हर राज्य की अपनी संस्कृति, भाषा, इतिहास है. केंद्र राज्यों पर कोई दवाब नहीं बना सकता है. हमारा देश सामाज्य नहीं है. देश फूलों के गुलदस्ते के समान है." वैसे राजनीति के जानकार मानते हैं कि संसद में पूर्ण बहुमत में होने के बावजूद नेहरू-इंदिरा-वाजपेयी सरकार ने विपक्ष को जितनी अहमियत दी है,वह हमारी संसदीय प्रणाली की अनूठी मिसाल इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है,लेकिन अब वह न जाने कब देखने को मिलेगी?
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