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चीन ने अफगानिस्तान में राजदूत नियुक्त कर दिए हैं अपनी विस्तारवादी मंशा के संकेत, मानवीय सहायता के जरिए भारत कर रहा है काउंटर

चीन ने तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान में अपने राजदूत की नियुक्ति कर दी है. इसको लेकर दुनिया बहुत शंकित तरीके से चीन की तरफ देख रही है. अफगानिस्तान से 2021 में जब अमेरिका निकला और तालिबान ने वहां कब्जा कर लिया, तब से ही दुनिया के किसी देश ने उस सरकार को मान्यता नहीं दी है. हालांकि, कुछ देशों के दूतावास और राजदूत अब भी वहीं हैं, लेकिन वे तालिबान के कब्जे से पहले के हैं. जाहिर तौर पर चीन का लक्ष्य कोई मानवतावादी नहीं है. वह अफगानिस्तान के संसाधनों पर अपनी नजर गड़ाए है और इसीलिए वहां निवेश के बहाने अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है. भारत को रोकना तो खैर उसके एजेंडे में है ही. 

अमेरिकी शून्य को भरना चाहता है चीन

अमेरिका ने जब 2021 में अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाई, तो चीन ही एकमात्र ऐसी बड़ी ताकत दिख रहा था, जो अमेरिका के निकलने से पैदा हुए शून्य को भर सके. चीन ने हाल-फिलहाल बहुत सारा निवेश भी अफगानिस्तान में किया है. दोनों देशों के बीच अभी हाल ही में 450 मिलियन डॉलर का समझौता भी हुआ है. यह समझौता गैस और तेल की खोज, तांबे की खदानों, लोहा और सोने की खोज के साथ लिथियम के लिए भी हुआ है. चीन की मुख्य नजर लिथियम पर भी है, क्योंकि वह आज की दुनिया में बहुत महत्वपूर्ण पदार्थ हो गया है. बैटरी से लेकर कंप्यूटर चिप तक में उसकी जरूरत पड़ती है. चीन की रणनीतिक मजबूरी भी अफगानिस्तान की स्थिरता में है. चीन बीआरआई के विस्तार के लिए भी अफगानिस्तान पर निर्भर है और उसके शिनकियांग क्षेत्र से यूरोप तक जोड़ने की उसकी योजना के लिए भी यह जरूरी है. साथ ही, अफगानिस्तान में वह अतिवादी तत्वों पर नकेल इसलिए भी चाहेगा कि उसके शिनकियांग प्रांत में भी शांति बनी रहे.

भारत की भी अफगानिस्तान में रुचि

भारत का हित मजबूत अफगानिस्तान में ही है और इसीलिए भारत ने भी अपना दूतावास और तकनीकी दल वहां बनाए रखा है. तालिबान के कई सारे नेता भारत अपना इलाज करवाने भी आते हैं  भारत लगातार खाद्यान्न और मानवीय सहायता वहां भेजता रहता है. पिछले साल दिसंबर तालिबान ने भारत के इस जज्बे का वैसा ही जवाब दिया था और भारत के जो 20 से भी अधिक इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट वहां रुके हुए थे, उनको पूरा करने के लिए कहा था. इससे भारत जरूर ही चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट को टक्कर दे सकता है. भारत ने भी कई सारे कार्यक्रमों के लिए फंड दिया है, ताकि अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण किया जा सके. भारत चीनी प्रभाव को हालांकि कम करने में पूरी तरह तो सफल नहीं रहा है, लेकिन हमें यह देखना है कि दीर्घकालीन तौर पर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के और पाकिस्तान और चीन के जो रिश्ते हैं, उसके आधार पर उनके रिश्ते कैसे रहते हैं?

दक्षिण एशिया पर चीनी प्रभाव

भारत अब तक चीन के प्रभाव को दक्षिण एशिया में संतुलित या कम नहीं कर पाया था. उसके पीछे पहले की हमारी विदेशनीति की कुछ ऐतिहासिक गलतियां रही हैं. लंबे समय तक हमने अपने पड़ोसियों की अनदेखी की. चीन-नेपाल, चीन-श्रीलंका, चीन-बांग्लादेश हो या चीन-पाकिस्तान को देखें, हम पाएंगे कि हरमनटोटा बंदरगाह (श्रीलंका) से लेकर ग्वादर बंदरगाह हो या चटगांव में अरबों का निवेश हो, चीन भारत को घेर रहा है. पिछले कुछ वर्षों में भारत अपने पड़ोसियों के साथ संबंध सुधार रहा है, वहां निवेश कर रहा है. अभी बांग्लादेश को भारत ने जी20 में आमंत्रित किया था, प्रधानमंत्री मोदी बांग्लादेश को पूरी तवज्जो दे रहे हैं. श्रीलंका से हमारे संबंध बेहतर हुए हैं. अफगानिस्तान के साथ हमारे पुराने संबंध हैं, बाकी तो निवेश पर निर्भर करता ही है. डिप्लोमैसी और इकोनॉमी साथ-साथ चलता है.

हालांकि, चीन का हालिया दिनों में जो दबदबा है, वो भी कम हुआ है. उसके पीछे सांस्कृतिक अलगाव और चीन का स्वार्थ भी एक कारण है. चीन का जो विभिन्न देशों में संबंध होता है, उसे वहां के स्थानीय लोग या सरकार भी बहुत पसंद नहीं करते. इसके पीछे उसका डेट-ट्रैप है, चीन का विस्तारवादी रवैया है और चीन की तानाशाही है. भारत को नेबर्स फर्स्ट की नीति अपनानी पड़ेगी, तो वह द्विपक्षीय हो या बहुपक्षीय, इन संबंधों के जरिए दक्षिण एशिया में अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है.

चीन का तिलिस्म दरक रहा

चीन की आर्थिक नीति और राजनय साथ ही चलने चाहिए. एससीओ में भारत एकमात्र देश है, जिसने बीआरआई का विरोध किया है. चीन उसे पीओके से निकालना चाह रहा है, इसलिए वह चीन की तानाशाही है. हमारी छोटी-मोटी झड़पें चलती रहती हैं. चीनी जब किसी देश में जाते हैं, तो वे स्थानीय लोगों से मिलते नहीं, खाना-पीना भी अपना लाते हैं, उनकी आर्थिक नीति ऐसी है कि स्थानीय लोगों को रोजगार भी नहीं मिलता. जो पैसा वो लगाते हैं, वह वापस चीन में ही खींच लेते हैं. वह अपने निवेश से दूसरों को बर्बाद ही करते हैं. पाकिस्तान में जो भी चीन ने निवेश किया, उसका परिणाम हम देख ही रहे हैं.

अफगानिस्तान में वह कितना निवेश करते हैं, वह इस पर भी डिपेंड करेगा कि तालिबान अपनी सत्ता बचाने के लिए कितना रखता है और निवेश कितना करता है? चीन की कर्ज देकर फांसने की नीति (डेट-ट्रैप) और अलग-थलग रहने का स्वभाव भी दिक्कत पैदा करता है. उनका कोई कल्चरल इंटरैक्शन नहीं है और वे जिस भी देश में रहते हैं, उनके अपने सेक्टर होते हैं, जहां उनका ही राज चलता है. चाहे वो श्रीलंका हो, पाकिस्तान हो, बांग्लादेश हो, नेपाल या कोई भी देश हो, चीनी लोग बिल्कुल अलग-थलग रहते हैं.

बहुत दिन पहले ट्रेवल करते हुए एक इटैलियन ने मुझे कहा था कि जब भी चीनी कहीं जाते हैं, तो वहीं रहते हैं. आप किसी चीनी की लाश नहीं देखते. वे जितने आते हैं, उतने ही रहते हैं, न तो बढ़ते हैं ना घटते हैं. असल में तो जब डिप्लोमैटिक या इकोनॉमिक संबंध आप किसी देश से बनाते हैं, तो उसके लिए केवल पैसे ही काफी नहीं हैं, आपको इंगेज करना पड़ता है, सांस्कृतिक संबंध बनाने पड़ते हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि मानवतावादी रुझान ही काम देगा, चाहे वह यूरोप हो या पाकिस्तान हो. यही भविष्य की राह है औऱ भारत इसी पर चल रहा है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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