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बिहार में जातिगत गणना का लोक सभा चुनाव पर पड़ेगा असर, सामाजिक प्रभाव पर भी सोचने की ज़रूरत

बिहार में जातिगत सर्वेक्षण बहुत ही सकारात्मक और सही दिशा में क़दम है.न्याय की दृष्टि से और देश में जातिगत विषमता को दूर करने के लिए एक अच्छा क़दम उठाया गया है. यह बात सही नहीं है कि आज़ादी के बाद पहली बार जाति के आँकड़े इकट्ठे किये गये हैं. सच यह है कि हर 10 साल पर जो जनगणना होती है, उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आँकड़े जमा किये जाते हैं. उनमें से हर जाति के अलग-अलग आँकड़े इकट्ठे किये जाते हैं. केवल जनसंख्या ही नहीं, उनकी सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति के बारे में आँकड़े जमा किये जाते हैं.

सिर्फ़ राजनीतिक असर पर चर्चा सही नहीं

जो बिहार में हुआ है, उसमें बस क़दम आगे बढ़ाया गया है. उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा बाक़ी जातियों के आँकड़े भी  इकट्ठे किये गये हैं. यह पूरे देश की ज़रूरत है. किसी भी बीमारी को ख़त्म करने से पहले एक्स-रे और बाक़ी टेस्ट करना पड़ता है. अगर जाति की बुराई को ख़त्म करना है, तो जातिगत सर्वेक्षण बिल्कुल वैसा ही है.

मुझे हैरानी होती है कि इस सर्वेक्षण के बारे में जब भी बात की जाती है..सबको इसमें केवल राजनीति नज़र आती है. केवल राजनीति पर ही चर्चा होती है. जातिगत गणना के बारे में पहला प्रश्न होना चाहिए कि इससे क्या पता लगा है. मैं हैरान हूं कि देश में इसमें किसी को दिलचस्पी नहीं है. कोई आँकड़ों पर चर्चा ही नहीं करना चाहता.

सामाजिक वर्चस्व से जुड़े पहलू पर हो मंथन

सबसे पहले तो उस सच का सामना करना चाहिए, जो आँकड़ों से हमे पता लगा है. सच यह है कि बिहार में ओबीसी की संख्या 50 नहीं बल्कि 63 फ़ीसदी है. बिहार में आम तौर पर जिन अगड़ी जातियों का सामाजिक वर्चस्व रहा है, उनकी संख्या मात्र 10.6% है. मैं समझता हूं कि पहली चर्चा इन पर होनी चाहिए. राजनीति में किसे लाभ होगा और किसे नुक़्सान होगा, यह सब बाद की बातें हैं. हर चीज़ में किसी न किसी को राजनीतिक फ़ाइदा-नुक़्सान तो होते ही रहेगा. प्रश्न यह होना चाहिए कि इससे देश में सामाजिक न्याय की नीति आगे बढ़ेगी या नहीं. इस पर चर्चा होनी चाहिए. दुर्भाग्यवश इस पर चर्चा होती नहीं है.

पहले भी होती रही है इस तरह की गणना

यह बात सच नहीं है कि देश में पहली बार इस तरह की जनगणना हुई है. देश के तमाम राज्यों में एक बार नहीं कई बार ऐसी गणना की जा चुकी है, मगर वो केवल एक वर्ग विशेष के लिए थी. जैसे ओबीसी को लेकर जनगणना कर्नाटक में 70 के दशक में हुई थी. देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग आयोग ने इस तरह की गणना करवाया है. इस बार की जनगणना की विशेषता केवल यह है कि इस बार हर जाति की गणना की गई है. इससे पहले कर्नाटक में देवराज अर्स की सरकार ने ऐसी गणना करवायी थी.

बीजेपी को रुख़ करना होगा स्पष्ट

बीजेपी इस सवाल पर कहाँ खड़ी है, कुछ पता ही नहीं लगता है. प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह देश की एकता को तोड़ने की कोशिश है. मगर वो भूल जाते हैं कि अगर बिहार में जातीय गणना देश को तोड़ने की कोशिश है, तो उसकी शुरूआत करते वक़्त बीजेपी बिहार सरकार में शामिल थी. प्रधानमंत्री भूल जाते हैं कि 2010 में संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ था कि जातीय जनगणना करवायी जाय. उस वक़्त बीजेपी ने इसका बढ़-चढ़कर समर्थन किया था. प्रधानमंत्री भूल जाते हैं कि 2018 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोक सभा के पटल पर आश्वासन दिया था कि ऐसी जनगणना करवायेंगे. अगर यह देश की एकता को तोड़ने का काम है, तो क्यों उस वक़्त देश के गृह मंत्री ऐसी बातें कह रहे थे. मेरा मानना है कि बीजेपी को मन बना लेना चाहिए कि वो इसके पक्ष में है या विपक्ष में है.

कांग्रेस के रुख़ में बहुत बड़ा बदलाव

कांग्रेस ने जब रायपुर में अपने प्रस्ताव में जातीय गणना को लेकर यह कहा कि वो ऐसा करायेगी, तो यह कांग्रेस के रुख़ में बहुत बड़ा बदलाव था. 2010 से पहले कांग्रेस इन चीज़ो का समर्थन नहीं करती थी. राहुल गांधी ने इसे बार-बार दोहराया है. कांग्रेस वादा कर रही  है कि 2024 में सरकार में आने पर वो ऐसा करेगी. 'इंडिया' गठबंधन के अधिकांश सहयोगी भी इस बात में कांग्रेस के साथ हैं.

सवाल है कि क्या इसका लोक सभा चुनाव पर असर होगा. मैं समझता हूं कि अगर विपक्षी दल इसको ज़मीन पर मुद्दा बनायें, तो इसका व्यापक असर होगा. इस मुद्दे को किस शिद्दत से विपक्षी दल उठाते हैं, कहाँ तक लेकर जाते हैं, सब इस पहलू पर निर्भर करता है. अभी यह बिहार में उठा है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सहयोगियों ने इसके लिए दबाव डालना शुरू किया है. ओडिशा में भी सरकार ने कहा कि आँकड़े जारी करेंगे. कर्नाटक में आँकड़े पड़े हुए हैं.

बीजेपी पर भविष्य में पड़ेगा दबाव

अगर यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है, तो ज़ाहिर है इससे दबाव पड़ेगा. ऐसे में बीजेपी कोई स्टैंड लेना पड़ेगा. अगर बीजेपी इसके ख़िलाफ़ खड़ी होती है, तो उसे ओबीसी के ख़िलाफ़ माना जायेगा. ऐसे में बीजेपी को इससे काफ़ी परेशानी हो सकती है. लेकिन अभी से निष्कर्ष निकाल लेना कि यह 2024 चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा, यह अभी से नहीं कह सकते हैं.

कांग्रेस को एहसास हुआ होगा  कि उसको वोट कहाँ से आ रहा  है. कांग्रेस को पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से ही अधिक वोट मिलता है. ऐसे में जहाँ से वोट आता है, कांग्रेस ने उन लोगों के सवालों को उठाना शुरू किया है. मुझे इस पहलू का दबाव ज़ियादा दिखता है. विपक्षी गठबंधन के सहयोगियों का दबाव इसमें कम महत्वपूर्ण है. कांग्रेस विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' बनने से पहले ही पिछले साल यह स्टैंड ले चुकी थी.

सामाजिक असर पर हो अधिक चर्चा

जहाँ तक जातीय गणना के सामाजिक असर का सवाल है, मेरा मानना है कि इस देश में जाति व्यवस्था नामक बीमारी है, उस बीमारी का इलाज करने में इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है, उस पर मंथन की ज़रूरत है. कई लोगों को संदेह है कि इससे जाति की बीमारी बढ़ सकती है. जातीय विद्वेष बढ़ सकता है.

जातीय विषमता से जुड़ी हो या औरत-पुरुष गैर-बराबरी से जुड़ी हो..चाहे अमेरिका में नस्लीय बराबरी से संबंध हो..किसी भी बीमारी का इलाज करने से पहले ज़रूरी है  कि हम बीमारी को पहचानें, उसका परीक्षण करें. उसके बाद उसकी दवा शुरू करें. मैं जातीय जनगणना को एक एक्स-रेकी तरह देखता हूं, एमआरआई की तरह देखता हूं, जो बिहार में हो गया है. अब उस बीमारी का इलाज शुरू करना चाहिए. अगर इलाज किया जाता है, तो इससे निश्चित ही लाभ होगा.

न्यायपूर्ण समाज में ही एकता संभव

जो लोग बहुत समय से जातीय सत्ता में रहे हैं, समाज के जिन वर्गों को 5 हज़ार साल से सत्ता में बैठने की आदत पड़ गई है, ज़ाहिर है उनकी परेशानी कुछ बढ़ेगी. इस देश का  ऐसा कुछ स्वभाव हो गया है कि जो कुर्सी पर बैठा है और अगर उसकी कुर्सी हिलती है, तो उसे लगता है कि दुनिया हिल रही है, देश हिल रहा है, नैतिकता हिल रही है. लेकिन ऐसा होता नहीं है. मेरा ऐसा मानना है कि इससे शुरू में कुछ हड़कंप हो सकता है, लेकिन अंतत: इससे सामाजिक न्याय बेहतर होगा. एक न्यायपूर्ण समाज में कहीं ज़ियादा समरसता होती है. न्यायपूर्ण समाज में ही एकता हो सकती है. जो एकता अन्याय पर आधारित है, वो एकता नहीं, बल्कि दिखावा है.

आँख मूँद लेना नहीं है समाधान

जाति के प्रति आँख मूँद लेने से जाति ख़त्म नहीं हो जायेगी. जाति है, जाति की विषमताएं हैं. यह विषमताएं तब ख़त्म होंगी, जब इसके बारे में एक्शन लेना शुरू करेंगे. सिर्फ़ रिजर्वेशन नहीं, और भी तमाम चीज़ो की ज़रूरत है. वो सब चीज़ अगर की जाती हैं, तो मैं समझता हूं कि इसका समाज पर बहुत अच्छा असर पड़ेगा.

बाबा साहेब अंबेडकर की जो मूल धारणा थी कि जाति व्यवस्था को तोड़ना होगा. वे चाहते थे कि आरक्षण जाति की गैर-बराबरी को तोड़ने का औज़ार बने. यह अवधारणा बिल्कुल सही है. मैं समझता हूं कि अगर आरक्षण का विस्तार होता है और इसके दायरे में ऐसे वर्ग आते  हैं, जो वंचित हैं.. तो यह बाबा साहेब के दर्शन के बिल्कुल अनुरूप है. जो वर्ग वंचित नहीं हैं, अगर उनको आरक्षण मिलना शुरू हो जाता है, तो यह निश्चित ही जाति तोड़ो की बाबा साहेब के दर्शन के विरुद्ध होगा.

समाज में वंचित वर्गों की पहचान ज़रूरी

अगर आपको पता करना है कि कोई वर्ग वंचित है या नहीं..क्या अलग-अलग जाति के लोगों का शैक्षणिक स्तर अलग-अलग है या नहीं है.. क्या आर्थिक विषमता ही सबसे महत्वपूर्ण विषमता है..इन सब सवालों का अगर उत्तर देना है, तो उसका एक ही तरीक़ा है और वो है जातीय जनगणना.

जातीय जनगणना का सबसे प्रमुख आँकड़ा तो अभी बिहार में आना बाकी है. वो आँकड़ा होगा कि किस जाति के लोगों के पास कितनी ज़मीन है, कितने लोगों के पास कार है, कितने लोगों के पास कंप्यूटर है. इस तरह के आँकड़े आयेंगे तो हमे पता लग जायेगा कि सचमुच वंचित वर्ग कौन है और कौन नहीं. जो वंचित वर्ग नहीं है, उनको आरक्षण का लाभ बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए.जो लोग चाहते हैं कि आरक्षण का लाभ सचमुच वंचित वर्ग को मिले, उन लोगों को तो बढ़-चढ़कर जातीय गणना का समर्थन करना चाहिए.

सामाजिक न्याय और आरक्षण अलग-अलग

हम सामाजिक न्याय और आरक्षण को एक बराबर मान लेते हैं, जो सही नहीं है. इसमें  कोई शक नहीं है कि हमारे देश में जातीय विषमता हर क्षेत्र में है. सरकारी के साथ ही प्राइवेट नौकरी में तो यह विषमता और भी अधिक है. जो सवर्ण अगड़ा समाज  है, उनका प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में पूरा वर्चस्व है. यह बात तमाम रिसर्च से साबित हो चुकी है. उसे ठीक करने की ज़रूरत है. मगर ठीक करने के लिए आरक्षण ही एकमात्र औज़ार है, मैं ऐसा नहीं मानता. मैं समझता हूं कि प्राइवेट सेक्टर में सामाजिक न्याय लाने के लिए कई और औज़ार इस्तेमाल किये जा सकते हैं.

अपने यहाँ ज़्यादातर लोगों को पता भी नहीं है कि अमेरिका में हर कंपनी को अपने हर साल के प्रतिवेदन में लिखना पड़ता है कि हमारे यहाँ कितने कर्मचारी हैं, उनमें से कितने श्वेत हैं और कितने अश्वेत हैं. हमारे देश में क्यों नहीं पूछा जाता कि कितने एसटी हैं, कितने एससी हैं या कितने ओबीसी या कितने सामान्य कैटेगरी से हैं. इन सब आँकड़ो को जमा करके इनके बारे में एक आयोग भारत में क्यों नहीं बन सकता है. ब्रिटेन में एक अपॉर्च्यूनिटी कमीशन है. प्राइवेट सेक्टर में सामाजिक न्याय के बहुत तरीक़े हो सकते हैं. मेरे विचार से आज के समय में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण सबसे प्रभावी औज़ार नहीं है. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में अवसर में सामाजिक न्याय होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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