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(Source: ECI / CVoter)

BLOG: औरत की देह बनाम अजन्मे बच्चे के जीवन का हक

कई वकीलों का यह मानना है कि एमटीपी एक्ट में महिला अधिकारों की वकालत नहीं की गई है. यह मेडिकल राय पर आधारित है. यह कहीं नहीं कहा गया है कि 20 हफ्ते की समय सीमा इसलिए दी गई है क्योंकि भ्रूण इसके बाद वायबल हो जाता है.

BLOG: दुनिया भर में अबॉर्शन पर बहस छिड़ी हुई है. कई देश तो ऐसे भी हैं जहां कानूनन अबॉर्शन की मंजूरी नहीं है. भारत में इसकी इजाजत है पर सिर्फ 20 हफ्ते तक. इसके बाद अबॉर्शन नहीं करवाया जा सकता. इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें इस समय सीमा को 20 हफ्ते से बढ़ाकर 26 हफ्ते करने की मांग की गई थी. इस संबंध में केंद्र सरकार ने साफ किया है कि इस समय सीमा को नहीं बढ़ाया जा सकता. यह एथिकली गलत है. याचिका दायर करने वाले भारत के नागरिकों को अमानवीय बनाना चाहते हैं. फिर अजन्मे बच्चे की हिफाजत करना सरकार का दायित्व है.

भारत में अबॉर्शन पर एमटीपी एक्ट, 1971 लागू है. एमपीटी यानी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी. इसमें मेडिकल प्रैक्टीशनर को 20 हफ्तों के अंदर प्रेग्नेंसी को टर्मिनेट यानी खत्म करने की इजाजत है. यह समय सीमा थोड़ी बदली जा सकती है, अगर मेडिकल प्रैक्टीशनर को ऐसा लगता है कि अबॉर्शन औरत की जान बचाने के लिए जरूरी है. एमटीपी एक्ट में प्रजनन संबंधी अधिकारों की कोई बात नहीं है. न ही इसमें भ्रूण यानी अजन्मे बच्चे के अधिकारों की बात की गई है. फिर भी केंद्र सरकार का पक्ष अजन्मे बच्चे के अधिकार को आधार बनाता है.

केंद्र सरकार ने एक बात और कही है. उसका कहना है कि औरत का प्रजनन का अधिकार, अजन्मे बच्चे यानी भ्रूण के जीवन के अधिकार से बड़ा नहीं है, खास तौर से प्वाइंट ऑफ वायबिलिटी के लिहाज से. प्वाइंट ऑफ वायबिलिटी का अर्थ 20 हफ्ते के बाद का समय है जिसमें अजन्मा बच्चा मां के गर्भ के बिना भी सर्वाइव कर सकता है. सरकार बार-बार यह तर्क भी दे रही है कि एमटीपी एक्ट में 20 हफ्ते की समय सीमा इसलिए भी निर्धारित की गई क्योंकि उसके बाद भ्रूण वायबल हो जाता है, यानी वह खुद सर्वाइव कर सकता है. ऐसे में अबॉर्शन का अर्थ है, उसकी हत्या.

कई वकीलों का यह मानना है कि एमटीपी एक्ट में महिला अधिकारों की वकालत नहीं की गई है. यह मेडिकल राय पर आधारित है. यह कहीं नहीं कहा गया है कि 20 हफ्ते की समय सीमा इसलिए दी गई है क्योंकि भ्रूण इसके बाद वायबल हो जाता है. मेडिकल प्रैक्टीशनरों का साफ कहना है कि अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों की तरह भारत में 20 हफ्ते के भ्रूण को संरक्षित रखने का इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाएं मौजूद नहीं हैं. इसलिए वायबिलिटी वाले तर्क का कोई आधार नहीं बचता.

दरअसल यहां मामला गुड और बैड मदर का उठाया गया है. सरकार का कहना है कि भ्रूण के शारीरिक रूप से विकृत होने के बावजूद एक गुड मदर अपना अबॉर्शन नहीं कराएगी. चूंकि सुप्रीम कोर्ट में याचिका देने वालों में 26 हफ्ते की एक प्रेग्नेंट मां भी थी. उसके अजन्मे बच्चे को एक ऐसी बीमारी थी जिसमें डिलिवरी के बाद बच्चे के मस्तिष्क के कुछ हिस्से नहीं होते. इससे बच्चा आजीवन विकलांग होता. इसीलिए वह अबॉर्शन की मांग कर रही थी. पर सरकार ऐसी मां को गुड मदर नहीं मानती. उसका कहना है कि डेड बच्चे की बजाय मां को गंभीर रूप से डिसेबल बच्चे को प्रिफर करना चाहिए. क्या अजन्मे बच्चे की हत्या करना का अधिकार मां को दिया जाना चाहिए? क्या वह मां के गलत मंसूबों का शिकार होना चाहिए? वैसे असुरक्षित अबॉर्शन्स के कारण भारत में बड़ी संख्या में औरतें मौत का शिकार होती हैं. चूंकि 20 हफ्ते के बाद लीगली अबॉर्शन नहीं कराया जा सकता, इसलिए औरतें असुरक्षित स्थितियों में अबॉर्शन कराती हैं और उनकी सेहत खतरे में पड़ती है. भारत में 20 हफ्ते की समय सीमा को बढ़ाने के पीछे यही तर्क दिया जाता है.

सवाल यह है कि औरतें अपने अजन्मे बच्चे की हत्या क्यों करना चाहेंगी? अगर भ्रूण में कोई समस्या है तो उसके लिए अबॉर्शन की मांग इसलिए भी की जाती है क्योंकि जन्म लेने के बाद स्पेशल चाइल्ड की देखरेख करना अक्सर बहुत मुश्किल होता है. कई लोगों के पास इतने संसाधन नहीं होते, या वे खुद इस स्थिति में नहीं होते कि बच्चे की देखभाल कर सकें. क्या सरकार खुद स्पेशल चाइल्ड की देखरेख की जिम्मेदारी लेती है? स्पेशल चाइल्ड क्या, मिड डे मील में रोटी के साथ नमक खिलाकर प्रशासन खुद यह ऐलान करता है कि सामान्य बच्चों को पोषण देना भी उसका दायित्व नहीं है.

यह सीधे-सीधे अपने शरीर पर हक का मामला है. यूं 20 हफ्ते से पहले अबॉर्शन कराने के लिए भी औरत की सहमति पर्याप्त नहीं होती. इसमें भी पति की इजाजत मांगी जाती है. चूंकि औरत की देह पर उसे छोड़ सबका हक माना जाता है. शादी जैसी संस्था में दाखिल होने से पहले भी नहीं, उसके बाद भी नहीं. शादी आधिकारिक तौर पर अपने शरीर को सौंपने का परमिट होता है. शादी को सेक्स की निहित सहमति मानी जाती है. तभी हमारे यहां मैरिटल रेप कोई अपराध नहीं है. यहां औरत की सहमति की जरूरत ही महसूस नहीं होती.

अबॉर्शन में यह सहमति पति से लेनी पड़ती है, क्योंकि मामला मर्द का होता है. शादी में औरतें शाब्दिक अर्थों में और कानूनन भी अपना तन-मन दोनों सौंपती है. अक्सर लड़के की चाह में बच्चे पैदा करती जाती हैं और गर्भपात के लिए पति की मंजूरी की बाट जोहती रहती हैं. यहां अबॉर्शन के लिए निश्चित समय अवधि को बढ़ाने का मुद्दा है. एमटीपी एक्ट को समय और बदलती तकनीक के हिसाब से बदलने जाने की जरूरत है. और इस बात को मान्यता देने की भी कि औरतों के पास भी अपनी च्वाइस होनी चाहिए.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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