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ज़रूरी नहीं कि हर स्ट्राइक ‘सर्जिकल’ ही हो…

खेल दिलचस्प है. एक सर्जिकल स्ट्राइक और सब चारों खाने चित्त. चाहे देश के भीतर या फिर दुनिया के मंच पर, इस स्ट्राइकर के एक रिबाउंड ने रानी को गोल कुएं में तो ला ही पटका, साथ ही तमाम गोटियां अलग अलग खानों में जा गिरीं. कैरम के खेल में स्ट्राइकर, उंगलियों और नज़र का बेहतरीन तालमेल आपको बाज़ी जिता देता है. उड़ी हमले का जवाब कुछ उसी अंदाज़ में दिया गया. देश की सियासत के नए नए रंग और इस बेहतरीन स्ट्राइक के नए नए आयाम एक साथ निकल आए. कोई सबूत मांग रहा है, कोई सैनिकों के खून का सौदागर बता रहा है, कोई सेना की तारीफों के पुल तो बांध रहा है लेकिन इसे सरकार की रणनीतिक पहल मानने को तैयार नहीं हो रहा है, कोई सर्जिकल स्ट्राइक को सामान्य घटना बता रहा है तो कोई इसे भाजपा का चुनावी दांव करार दे रहा है. बहरहाल जितने मुंह, उतनी बातें, जितनी पार्टियां, उतना नज़रिया. यह कोई पहली बार नहीं हो रहा. करगिल के वक्त भी हुआ था. पोखरण के वक्त भी हुआ था. सत्ता में कोई रहे, विपक्ष अगर आंख बंद कर वाह वाह कहने लगे तो फिर वह विपक्ष क्या, अलग अलग पार्टियां क्या. फिर तो देश में वन पार्टी सिस्टम हो जाए. आज सोशल मीडिया सबके लिए एक बड़ा हथियार है. इंडिया डिजिटल हो रहा है, काफी हद तक हो चुका है. जिसे इसमें महारथ हासिल है, वो इस खेल में सबसे आगे है. प्रचार तंत्र अब सबके हाथ में है. प्रमोद महाजन आज भले ही न हों, लेकिन उन्होंने इस खेल की जो परिकल्पना की वह अब अपने पूरे यौवन पर है. राजीव गांधी आज भले ही न हों, लेकिन उन्होंने इक्कीसवीं सदी के जिस भारत की परिकल्पना की, उसे दुनिया देख रही है. पाकिस्तान हमारा दोस्त है या दुश्मन, अब बहस का विषय ये नहीं है. अगर आपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का केरल वाला भाषण सुना है तो ज़रा गौर कीजिए कि उन्होंने पाकिस्तान के हुक्मरानों को क्या कहा. उन्होंने बेहद आक्रामक लेकिन संज़ीदा तरीके से पाकिस्तान के हुक्मरानों को तो ललकारा लेकिन वहां की आम जनता के साथ खड़े दिखे. साफ तौर पर उन्होंने कहा कि वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान की अवाम इन हुक्मरानों और आतंक के खिलाफ उठ खड़ी होगी और इनका सफाया कर देगी. मतलब साफ है कि हमारी किसी देश की अवाम यानी आम जनता के साथ कोई दुश्मनी नहीं है, वो भी हमारी तरह ही अपने हुक्मरानों की नीतियों से, आतंक के आकाओं से और रोज़मर्रा की मुश्किलों से जूझ रहे हैं. ऐसे में जनता खुद एक दिन मोर्चे पर आकर इन हालातों से निजात पाएगी. ऐसा हमने कई फिल्मों में देखा है, कम्युनिस्टों की यूटोपियन कही जाने वाली परिकल्पनाओं में पाया है और बेशक इंकलाबी सपनों के आईने में देखा है. मोदी ने कुछ उसी अंदाज़ में ये बात कही थी और अक्सर कहते रहते हैं. देश को बदलने का एक खूबसूरत सपना वो दिखाते हैं, अपने फार्मूले बताते हैं और तमाम आलोचनाओं को खामोशी के साथ दरकिनार कर वही करते हैं जो उन्हें करना होता है. अब आप इसे किसी भी नज़रिये से देखते रहिए. आप मानते रहिए कि आगामी चुनावों के मद्देनज़र भाजपा ऐसा कर रही है, आप कहते रहिए कि पाकिस्तान की खिलाफ़त तो भाजपा और संघ का मुख्य एजेंडा पहले से रहा है, आप कहते रहिए कि कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान से कहीं ज्यादा भाजपा के राष्ट्रवाद का पलड़ा भारी है औऱ आप ये भी कहते रहिए कि भाजपा भीतर ही भीतर मुसलमानों की विरोधी है. कोई फर्क नहीं पड़ता. अलग अलग पार्टियां हैं, अलग अलग सोच है और जाहिर है अलग अलग रणनीति और कूटनीति है. काम करने के अलग अलग तरीके हैं. बेहतर हो जनता को तय करने दिया जाए कि कौन सही है और कौन गलत. लेकिन केजरीवाल भी क्या करे, राहुल गांधी भी क्या करें और मायावती भी क्या करें. अगर वो कुछ ना बोलें तो भी मुश्किल और बोलें तो जाहिर है मोदी या भाजपा की तारीफ तो करने नहीं लगेंगे. लोकतंत्र है. हर कोई बोल सकता है. कांग्रेस ये कैसे मान ले कि ये कोई नई ‘स्ट्राइक’ है, वो तो यही कहेगी कि उसके राज में इस तरह की कितनी ‘स्ट्राइकें’ होती रही हैं लेकिन उसका उसने गाना नहीं गाया. बहरहाल अभी ये कहानी लंबी चलेगी. मुद्दे वैसे भी कुछ समझ में आ नहीं रहे थे. चलिए बैठे बिठाए कुछ तो मिला. बेशक चुनाव का वक्त है. वैसे तो अब हर साल चुनावी होता है, हर कदम चुनावी होता है, हर बयान में सियासत की बू आती है. बेहतर है कैरम बोर्ड बिछाइए, क्वीन के इर्द गिर्द काली सफेद गोटियां सजाइए और एक ज़ोरदार स्ट्राइक मारिए. ज़रूरी नहीं कि हर स्ट्राइक ‘सर्जिकल’ ही हो. बस, स्ट्राइकर पर उंगलियों की दिशा और नज़रों के तालमेल के साथ स्ट्राइक की रफ्तार पर भी नियंत्रण ज़रूर रखिएगा. यकीन मानिए जीत आपकी ही होगी.
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