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‘लोकनायक’और ‘संपूर्ण क्रांति’ के मौजूदा मायने

वो स्मृतियां कुछ धुंधली तो कुछ एकदम साफ़. पटना का कदम कुआं और महिला चरखा समिति की ऊपरी मंज़िल. जेपी का एक वो कमरा जहां रोज़ उन्हें डायलिसिस के लिए ले जाया जाता था और एक वो कमरा जहां वो रहते थे. महिला चरखा समिति जो अब प्रभा-जयप्रकाश स्मृति संग्रहालय बन चुका है और वहां एक जय-प्रभा द्वार बनवा दिया गया है. 1973 के अप्रैल तक जेपी यहां अपनी पत्नी और गांधीवादी नेता प्रभादेवी के साथ रहे और उसके बाद के कुछ साल उनकी स्मृतियों के साथ और अपने संपूर्ण क्रांति की अवधारणा के साथ. लेकिन ये स्मारक और जगहें जेपी की पहचान नहीं हैं. आम तौर पर उन्हें याद करने वाले कुछ खास तारीखों पर यहां फूल मालाएं चढ़ाते हैं और जेपी के संपूर्ण क्रांति की खोखली यादें दिलाकर चले जाते हैं.

दरअसल जेपी आंदोलन की ‘पैदावार’ में जो फ़सलें पकीं, सियासी खेल के साम, दाम, दंड, भेद की बदौलत कुर्सी से चिपकीं और जिनकी बदौलत आज बिहार की जो छवि बनी वो बेशक जेपी के सपनों को चकनाचूर करने वाली है. बदलते वक्त के साथ उनका ‘दर्शन’ तो बदला ही, जेपी उनके लिए महज़ एक इस्तेमाल करने वाला नाम भर बन कर रह गए. आप कह सकते हैं कि वो दौर अलग था. आप यह भी कह सकते हैं कि तब देश की सियासत आज जैसी नहीं थी. आज मोदी जी भी ‘लोकनायक’ बनने को आतुर हैं और नीतीश कुमार भी. सब अपने अपने तरीके से आम लोगों के सामने जेपी के असली हिमायती और उनके दर्शन को आगे बढ़ाने वाला बताते हैं. लेकिन क्या जेपी बस यूं ही ‘लोकनायक’ बन गए?

लोग आज जेपी के संपूर्ण क्रांति की बात तो करते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि दरअसल 5 जून 1974 को पहली बार जयप्रकाश नारायण ने पटना के गांधी मैदान की जिस विशाल रैली में पहली बार संपूर्ण क्रांति का नाम लिया तो उसे किस तरह परिभाषित किया था. संपूर्ण क्रांति यानी संपूर्ण व्यवस्था में बदलाव, जाति-धर्म से अलग एक मानवतावादी समाज का निर्माण, सरल, ईमानदार और सामान्य जीवन शैली, परंपरागत और रूढ़ीवादी सोच में बदलाव के साथ देश का विकास. उन्होंने कहा कि जब व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब कहीं बदलाव पूरा होगा और आम आदमी बराबरी के साथ सुखी जीवन जी सकेगा. इसके लिए जेपी ने देश की युवा शक्ति को सबसे ज्यादा मज़बूत माना और तभी बनीं छात्र युवा संघर्ष वाहिनी, छात्र संघर्ष समिति आदि.

बेशक जेपी ने अपने अंतिम दिनों को इन्हीं युवा शक्तियों की बदौलत देश के इतिहास में अमर कर दिया और उसके बाद देश की राजनीति ने नई करवट ली. इमरजेंसी का दौर, गिरफ्तारियां, पुलिस की तानाशाही, इंदिरा गांधी की निरंकुशता और 1977 का वो चुनाव जिसमें जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को पहली बार देश की सत्ता से बुरी तरह बेदखल कर दिया. इंडिया गेट पर मोरारजी देसाई की सरकार को जेपी ने जिस तरह शपथ दिलाई और अपने सपनों को साकार होते देखा, ठीक उसी तरह अस्पताल में अंतिम सांसे गिनते इस सपने को चूर चूर होते भी देखा. कैसे सत्ता संघर्ष ने कांग्रेस के खिलाफ बने इस विशाल गठजोड़ को बिखरा दिया, कैसे मोरारजी देसाई हटाए गए, कैसे चरण सिंह आए, कैसे जगजीवन राम को सामने रखकर फिर चुनाव लड़ा गया और कैसे इंदिरा जी दोबारा भारी बहुमत से सत्ता में लौट आईं. यानी जनता पार्टी के बनने से लेकर बिखरने तक की पूरी कहानी. और उसके बाद कैसे गठबंधन की राजनीति की शुरूआत हुई और देश की सियासत किन किन मुकामों से होकर आज कहां आ पहुंची. क्या यही जेपी की ‘संपूर्ण क्रांति’ है?

हो सकता है कि हम जिस देश में रह रहे हैं, वहां क्रांति या संपूर्ण क्रांति के मायने वो नहीं हों जो हम किताबों में पढ़ते आए हैं या जिन अवधारणाओं ने कई हस्तियों को इतिहास पुरूष बना दिया हो. लोग मार्क्स और लेनिन को मौजूदा संदर्भों में अप्रासंगिक मानते हैं तो गलत क्या है, लेकिन जिस दौर में और जिन परिस्थितियों में उन लोगों ने यह दर्शन दिया, वह सही हो सकता है, उसे आप हर दौर में एक जैसा कैसे मान सकते हैं. शायद जेपी के संपूर्ण क्रांति के दर्शन का भी आज वही मायना है. दरअसल इसमें सुधारवादी, क्रांतिकारी और मानवतावादी तीनों ही दृष्टिकोण हैं लेकिन इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे लागू किया जा सकता है यह शायद जेपी होते तभी बता पाते.

मुझे याद है 1977 में जेपी से जब मैं महिला चरखा समिति के पहली मंजिल पर पहली बार मिला था. डायलिसिस से वो बाहर निकले थे. बड़े भाई अंचल सिन्हा के साथ जेपी से मिलने गया था. भैया ने आंदोलन के दौरान अपना नाम कमल चंदर रख लिया था और इसी नाम से उन्हें इमरजेंसी लगते ही गिरफ्तार कर करीब 9 महीनों के लिए फुलवारी शरीफ जेल में डाल दिया गया था. जेपी ने मेरे सर पर हाथ फेर कर भैया से पूछा था, तुम्हारा भाई है, फिर थोड़ा समझाया था संपूर्ण क्रांति के अपने अभियान के बारे में. तब मुझे उतनी समझ शायद नहीं थी.

एक तरफ जेपी का करिश्मा था तो दूसरी तरफ धुर वामपंथी सोच का थोड़ा प्रभाव. तब से अबतक व्यावहारिक राजनीति और पत्रकारिता के तमाम दौर देखते हुए इतना तो साफ हो गया कि हर दौर में अलग अलग परिस्थितियां होती हैं, सामाजिक समीकरण होते हैं और सियासत के नए मायने बनते बिगड़ते रहते हैं. विचार और व्यवहार दो अलग अलग चीजें हैं लेकिन इतना तो हो ही सकता है कि हम अपने निजी जीवन और सोच में कुछ न कुछ बदलाव ला सकते हैं. हो सकता है कल को ‘लोकनायक’ का दर्जा किसी और नेता को भी मिल जाए लेकिन जाहिर है संपूर्ण क्रांति का जेपी मॉडल कोई आसान काम नहीं. अगर हम उसका एक हिस्सा भी अपना लें तो शायद जेपी को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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