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नायक नहीं खलनायक हूं मैं...!

क्या अमर सिंह सचमुच खलनायक हैं? आखिर इस शख्स में ऐसा क्या है जिसकी वजह से एक पार्टी बार बार टूटने की कगार पर चली जाती है? आखिर वो कौन से पत्ते हैं जिसे अमर सिंह वक्त आने पर फेंकते हैं और अपने पुराने अपमान का बदला लेने के लिए शायराना लेकिन शातिराना अंदाज़ इस्तेमाल करते हैं? मुलायम सिंह के ‘समाजवाद’ और अमर सिंह के ‘मुलायमवाद’ के किस्से पुराने हैं. वो तो ठहरे नेताजी के भक्त, भला नेताजी की पार्टी को कैसे तोड़ सकते हैं? नेताजी ने ही तो उनका राजनीतिक वनवास खत्म कराया... इतने विरोधों के बावजूद फिर से राज्यसभा की कुर्सी दी !
लेकिन फ़ितरत तो फ़ितरत होती है. नई पीढ़ी ये जानती है. जो लोग भी अमर सिंह का इतिहास भूगोल जानते हैं, उन्हें भी पता है कि उनका अंदाज़-ए-बयां इतना निराला क्यों है, आखिर क्यों वो इशारों इशारों में बड़ी बड़ी बातें कर जाते हैं और अपने दिल की पीड़ा को या अपने अपमान को शायरी में बता जाते हैं. समाजवादी पार्टी में चल रही पारिवारिक जंग के पीछे अमर सिंह को ज़िम्मेदार मानने वाले शायद ये नहीं जानते कि नेताजी उन्हें लेकर इतने संजीदा या संवेदनशील क्यों हैं, क्यों ये इकलौता शख्स सबकी आंखों की किरकिरी होते हुए भी नेताजी की आंखों का तारा हो जाता है और क्यों आज भी नेताजी अमर सिंह को खुद से दूर नहीं कर पाते.
आज नेताजी को बार बार कहना पड़ रहा है कि उनके रहते हुए पार्टी और परिवार कभी नहीं टूटेगा, ना तो शिवपाल नाराज़ हैं, ना रामगोपाल और अगर अखिलेश कभी कभार उनकी बात नहीं मानते तो, तो इसमें कौन सी ऐसी खास बात हो गई, नई पीढ़ी और नए दौर के हिसाब से अगर अखिलेश कुछ फैसले लेते हैं तो इसमें गलत क्या है. मतलब ये कि कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है और न ही कोई ऐसी बड़ी बात हो गई है जिसे इतना तूल दिया जा रहा है. जाहिर है नेताजी डैमेज कंट्रोल में लगे हैं. बैठकों का दौर जारी है. मान मनौव्वल हो रहा है. बाहर के लोग मज़े ले रहे हैं. कोई इसे फैमिली ड्रामा कह रहा है तो कोई पहले बाप बेटे के झगड़े सुलझाने की सलाह दे रहा है. मीडिया के लिए यूपी वैसे भी बेहद दिलचस्प रहता आया है, इन दिनों तो पूछिए मत. इतने किरदार अचानक निकल आए हैं कि अगर आज लोहिया जी होते तो अपने समाजवाद की नई परिभाषा गढ़ डालते. एक तरफ बहन जी और कांग्रेस के महारथी अपने धुआंधार चुनाव अभियान में लगकर अपनी खोई ज़मीन पाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते तो दूसरी तरफ बीजेपी इस महाभारत का मज़ा ले रही है. कुल मिलाकर ये कि बाकी पार्टियों के लिए ये दिलचस्प जंग बड़ी उम्मीदें जगाने वाला दिख रहा है.
इस खेल में अमर सिंह पर चौतरफा वार हो रहा है. सबको लगता है कि असली खलनायक वही हैं. जबकि वो बार बार अपने अंदाज में मीडिया की सुर्खियां बटोरने में पीछे नहीं हैं. कभी कहते हैं कि अखिलेश उनके बेटे जैसे हैं, कभी कहते हैं कि अखिलेश की शादी उन्होंने कराई, सिंगापुर में उन्होंने पढ़ाया और भला अखिलेश से उनका क्या विवाद हो सकता है. कभी सुभाष चंद्रा के सम्मान में भोज दे देते हैं और अखिलेश के भोज में न आ पाने की कहानी को इतना तूल दे दिया जाता है. कभी आजम खान निशाना साध देते हैं तो कभी रामगोपाल. लेकिन सबके सब इशारों इशारों में ही तंज़ कस रहे हैं. कभी मुख्तार अंसारी की पार्टी को लेकर कहानियां बनने लगती हैं तो कभी शिवपाल के कद को लेकर. बेचारे शिवपाल भी क्या करें, कहां जाएं. विवादों से बचना है तो इस्तीफा देकर कुछ दिन के लिए किनारे हो जाया जाए. नेताजी तो हैं ही. सब संभाल लेंगे. किरदारों की फौज में दीपक सिंघल भी शामिल हो गए और फिर से अमर सिंह चर्चा के केन्द्र में आ गए. और हां,एक किरदार और जिसके लिए अमर सिंह बरसों से लड़ते रहे. जी हां, जयाप्रदा. अखिलेश ने अंकल की बात मान ली, जया जी को मनचाहा पद दिला दिया, फिर भी विवादों में घिर गए. सियासत भी अजीब है कुछ करो तो भी मुसीबत, ना करो तो भी मुश्किल. आप किसी के मन को तो पढ़ नहीं सकते लेकिन फितरत तो जान ही सकते हैं. कुछ भी हो खेल दिलचस्प है और एक बार फिर ये साबित होने वाला है कि नेताजी असली समाजवादी है, सबको साथ लेकर चलते हैं. आपस के झगड़े ज्यादा दिन न चलें तो बेहतर, मिलजुल कर ज़िम्मेदारियां तय हो, बयानबाज़ी बंद हों और मिशन 2017 में जुटा जाए. जाहिर है चेहरा तो अखिलेश ही होंगे और ये भी तय है कि तमाम तकरारों के बावजूद समाजवाद के इस परचम को फिर से लहराने की कोशिश जारी रहेगी क्योंकि सब जानते हैं कि टूटे तो गए. अमर सिंह इसका हश्र देख चुके हैं और इतनी मशक्कत के बाद वापस आकर फिर वो शायद ही ऐसा कुछ जानबूझ कर करें जिससे नेताजी को ही नुकसान हो. अब अपनी छवि का वो क्या कर सकते हैं जो उन्होंने खुद ही बनाई है और अपनी तुकबंदी ज़ुबान का क्या करें जो उनकी यूएसपी बन जाती है.
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