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बिहार: कोरोना वायरस की महामारी में है राजनीति की संजीवनी?

प्रधानमंत्री तथा केंद्र सरकार प्रवासी समस्या को ठीक से संभाल नहीं पाई है. जहां एक ओर सरकारी तंत्र राहत कार्यों में डटा हुआ है. वहीं विपक्षी पार्टीयों की भी कोशिश बरकरार है कि कहीं वो इस विपदा का लाभ लेने में छूट ना जाएं. वहीं नीतीश जानते हैं कि उनकी राजनीति इन मजदूरों, ग्रामीणों और महिलाओं के भरोसे पर है.

पत्रकार के तौर पर जीवन की ये सबसे बड़ी स्टोरी है और इसके फॉलोअप का कोई अंत नज़र में अभी नहीं आता. शायद हम पत्रकार इस समय इतिहास के पन्नों में गवाह की तरह दर्ज हो रहें हैं. जान का हर वक्त खतरा पर फील्ड में रिपोर्टिंग के लिए निकलना, ये इस समय की मांग है. इस कोरोना काल में हम बहुत कुछ देख रहें हैं जो अगर ये महामारी ना फैली होती तो देख ही नहीं पाते. राज्य का तबाही की कगार पर होना और चुनाव जीतने की जद्दोजहद में नित नए फॉर्मूले इज़ाद होते देखना भी इस कालक्रम का हिस्सा है जिसको रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी हम खबरनवीसों की है. बहुत जल्द हम इस बात की भी चर्चा करेंगे कि क्या कोरोना ने अमूक पार्टी को बिहार विधान सभा चुनाव में जीत दिलाई? ऐसा मेरा अंदेशा है. हो सकता है भविष्य में 'कोरोना पोलिटिक्स' समाज विज्ञान की किताबों में जगह भी पाए.

वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ अपनी बहुचर्चित किताब “एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रौट” में लिखते हैं कि कैसे इस तरह की आपदाओं और लोगों की विपदाओं पर हमारा सिस्टम फलता-फूलता है. वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि ऐसे हालात पूरे तंत्र के लिए कामधेनु के सामान होते हैं क्यूंकि इसमें दूहने के लिए बहुत कुछ होता है.

प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार प्रवासी समस्या को ठीक से संभाल नहीं पाई और देश ही नहीं पूरे विश्व ने वो नज़ारा देखा जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. महिलाओं और छोटे बच्चों के साथ जिस तरह मजदूर सडकों पर बदहवास चल रहे थे और घर जाने को जूझ रहे थे वो किसी भी सरकार के लिए रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य था. पर इस पर भी राजनीति खूब चमकाई गई और अब भी जारी है.

बहरहाल बिहार में कौन मजदूरों के घाव पर कितना मलहम लगा सकता है उसकी जंग जारी है. हमारे राजनीतिज्ञ आपदा का लाभ उठाना खूब अच्छी तरह से जानते हैं, क्यूंकि बिहार में बाढ़ और सूखा आम बात है. मंत्री हों या नौकरशाह सभी इस मौके पर अपना किरदार भली-भांति समझते हैं.

जहां एक ओर सरकारी तंत्र राहत कार्यों में डटा हुआ है. वहीं विपक्षी पार्टीयों की भी कोशिश बरकरार है कि कहीं वो इस विपदा का लाभ लेने में छूट ना जाएं. बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी लालू भोजनालय और लालू रसोई लगाकर कुछ जगहों पर मजदूरों का दिल जीतने में लगी हुई है और बीच-बीच में यह आरोप भी लगाती है कि उन्हें ऐसा करने से रोका जा रहा है. प्रियंका गांधी के बस की कहानी भी खूब चर्चा में है. कई स्वयं सेवी संगठनों ने मीडिया में आने के लिए मदद के नाम पर तस्वीर छापने की गुजारिश की है. सोशल मीडिया पर तो ऐसे मदद कर सेल्फी डालने की भरमार हो गई. काम के नाम पर दाम वसूलना जारी है.

आपदा आम इंसानों के लिए होती है, सरकारों के लिए नहीं. कहने का अर्थ है कि सरकारें आपदा का तत्कालिक दंश नहीं झेलतीं बल्कि आपदा जनता के बीच खुद को चमकाने के लिए उनके लिए सुनहरा अवसर लेकर आती है. इस मौके पर अगर वे चूकती हैं तो समझिए कहानी ख़त्म ही है.

बिहार में चंद महीनों में चुनाव होने वाले हैं. इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक समझा जा सकता है क्यूंकि ये पहला मौक़ा होगा जब रैलियों और सभाओं पर रोक होगी. ईद की सियासत भी इस बार कोरोना के भेंट चढ़ गई. इस समय राज्य महामारी और गंभीर प्रवासी संकट की जद में होने के साथ अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की लड़ाई लड़ रहा है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी कर्मठता के लिए जाने जाते हैं. जिसका परिचय उन्होंने कोरोना के प्रकोप के समय भी दिया है. मुख्यमंत्री की अगुवाई में पूरा सरकारी महकमा बिना शोर मचाये युद्ध स्तर पर काम कर रहा है. नीतीश का भी कोई बयान इस समय आपने नहीं सुना होगा. वे खुद कहते हैं कि आपदा के समय उनका पूरा ध्यान सिर्फ अपने सिस्टम को दुरुस्त करने पर होता है. बिहार के दो मंत्री जो उनके साथ हमेशा बने रहते हैं, वे भी बताते हैं कि कैसे नीतीश माइक्रो-प्लानिंग के तहत काम करते हैं और उनकी नज़र से छोटी सी बात भी नहीं छुटती.

ऐसा कहा जा सकता है कि बिहार में काफी सुव्यवस्थित तरीके से इस महामारी से लड़ने की कोशिश की जा रही है जो कतई आसान नहीं है. आबादी के अनुपात में यहां अस्पतालों, स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अन्य संसाधन की भारी कमी है. इसी बीच बिहार के स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव के भी तबादले का बड़ा कदम उठाया गया. अफसर इस बात की तस्दीक करते हैं कि किस तरह नीतीश एक टफ टास्क मास्टर हैं और बड़ी बारीकी से राज्य भर के सभी जिलों पर पैनी नज़र रखे हुए हैं.

चुनौतियां भरपूर हैं. गौरतलब है कि बिहार के प्रवासी मजदूर इस संकट के समय घर वापस लौट रहे हैं. रास्ते में उन्होंने भूख, मौत, दुर्घटनाएं तथा कई तरह की यातनाएं सही हैं. एक अनुमान के मुताबिक उनके बिहार आने से यहां की जनसंख्या में 1.25 प्रतिशत का इजाफ़ा होगा. एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जिनके रोज़ी-रोटी का ज़रिया इस महामारी ने छीन लिया है.

प्रवासी मजदूरों तथा अन्य लोगों को घर वापस लाने के लिए नीतीश कुमार ने बड़ी पहल की. साथ ही बिहार के गांव संक्रमित ना हों इसके लिए लौट रहे प्रवासियों के लिए 14 दिन के अनिवार्य क्वारंटाइन की व्यवस्था पंचायत स्तर तक करवाई. साथ ही तय अवधि पूरा करने पर 1000 रुपये और दो महीने के लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था की गई है.

नीतीश जानते हैं कि उनकी राजनीति इन मजदूरों, ग्रामीणों और महिलाओं के भरोसे पर है. बिहार की करीब 88 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है जहां ये प्रवासी लौट कर जा रहें हैं. उनका दर्द गांव का दर्द हो चुका है. पारंपरिक तौर पर बीजेपी के साथ मध्यम वर्ग, व्यवसायी तथा प्रबुद्ध वर्ग को माना जाता है. हालांकि बीजेपी हर तबके को अपने साथ लाने के लिए पूरजोर कोशिश करती है. ऐसे में मजदूर कहीं हाथ से निकल न जाए उसकी भी चिंता पार्टी को है.

बिहार में अर्थव्यवस्था चरमरा गई है. पिछले वर्ष की तुलना में बिहार के सरकारी आमदनी में 82 प्रतिशत की गिरावट आई है. हालात ये हैं कि पहले के बचत किए हुए पैसे से जरुरी खर्च चल रहा है. नीतीश कुमार लगातार कई वर्षों से बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा मांग रहें हैं. क्या ये सही वक्त नहीं है कि उस मांग को फिर से पूरे दबाव के साथ दुहराया जाए? ऐसे समय में जब मोदी सरकार के प्रति मजदूर-किसान का आक्रोश उफान पर है, इस मांग को केंद्र सरकार के लिए ठुकराना कतई आसान नहीं होगा और नीतीश कुमार को फिर से राजनीति में खुद को मजबूती से स्थापित करने का मौक़ा मिलेगा.

बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पहले ही कह चुके हैं कि इस बार डिजिटल तरीके से चुनाव की तैयारी होगी. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल चुनाव की डिजिटल तैयारी में जुटे दिखायी देते हैं. साथ ही इस कोरोना काल में बिहार में विपक्ष की भूमिका महज़ नाटकीयता भरी ही रही है. कहते हैं ना विरासत में गद्दी मिल सकती है राजनीतिक कौशल नहीं.

देखना ये होगा कि जनता इस आपदा का इनाम किसे देती है? भले प्रधानमंत्री के आह्वान पर लोगों ने थाली पिटी और दीप जलाएं पर वो पहले की बात थी. हालांकि लोगों को साथ जोड़ने की वह स्ट्रेटेजी अच्छी थी. राज्य की गरीब जनता इससे कितनी प्रभावित होगी ये चुनाव के नतीजे बतायेंगे. एक बात जानने योग्य है कि बिहार की जनता ने 2008 में कोसी त्रासदी के समय भरपूर मेहनत करने का इनाम लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनाव में नीतीश कुमार को दिया था. क्या ये आपदा नीतीश कुमार की संजीवनी बन कर आई है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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