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BLOG: ताजमहल रोटी तो दिला सकता है, वोट नहीं बरसा सकता!
ताजमहल कोई बाबरी मस्जिद नहीं है, जिसे ढहाकर हिंदू वोटों की फसल काटी जा सकती है. ताजमहल की बुनियाद में शिव मंदिर होने का दावा अयोध्या में रामलला की मूर्ति होने जैसा अपीलिंग भी नहीं है.

दुनिया के सात अजूबों में शामिल और भारत में पर्यटन का मक्का कहे जाने वाले ताजमहल को लेकर उठे विवाद ने अब विवाद उठाने वालों को ही बैकफुट पर धकेल दिया है. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का ताजमहल का दीदार किया जाना और 370 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से प्रारंभ की जाने वाली नई योजनाओं की घोषणा एवं शिलान्यास करना एक डैमेज कंट्रोल की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं.
पहले यूपी की धरोहरों एवं पर्यटन स्थलों वाले कैलेंडर से ताजमहल को हटाना और उसके विकास एवं सुरक्षा हेतु राज्य के ताजा बजट में एक फूटी कौड़ी न देना, फिर सरधना से बीजेपी के विवादास्पद विधायक संगीत सोम द्वारा मेरठ की एक सभा में मुगलों का इतिहास बदल देने का प्रण करना, राम मंदिर आंदोलन से उपजे नेता विनय कटियार द्वारा तेजोमहालय शिव मंदिर की जगह ताजमहल बनाए जाने का विवाद पुनर्जीवित करना, फिर स्वयं योगी आदित्यनाथ द्वारा ताज को भारतीय संस्कृति का हिस्सा न होने संबंधी बयान दिया जाना, कुछ ही दिन बाद उनका ताज को भारतमाता के बेटों के खून-पसीने से निर्मित बताना और अब आगरा पहुंचकर ताजमहल की तारीफों के पुल बांधने में राजनीति की पूरी डिजाइन झलकती है. यह शोलों की तासीर आंकने का अमल है.
विडंबना देखिए कि जिस ताज को दुनिया मोहब्बत की निशानी करार देते नहीं थकती, गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने जिसकी उपमा गाल पर ढलके आंसू से दी थी, जिसके निर्माता बादशाह पर साहिर लुधियानवी ने गरीबों की मोहब्बत का मजाक बनाने संबंधी तंज कसा था, उस ताजमहल को बचाने और तबाह करने का बीड़ा आजम खान, ओवैसी और तेजोमहालय ब्रिगेड ने उठाया हुआ है!
बाबरी मस्जिद नहीं है ताजमहल
लेकिन ताजमहल कोई बाबरी मस्जिद नहीं है, जिसे ढहाकर हिंदू वोटों की फसल काटी जा सकती है. ताजमहल की बुनियाद में शिव मंदिर होने का दावा अयोध्या में रामलला की मूर्ति होने जैसा अपीलिंग भी नहीं है. हां, चुनावों के वक्त इसे लेकर मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश जरूर की जा सकती है. इसलिए यह कहना दूर की कौड़ी नहीं होगी कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव देखते हुए ताजमहल के शिव मंदिर होने का विवाद जीवित करने की रणनीति बनाई गई! लेकिन अब लगता है कि बीजेपी, योगी जी और उनकी ब्रिगेड को इसमें फायदा कम नुकसान होने की आशंका अधिक लग रही है क्योंकि भारतीय लोगों के संस्कार ताजमहल को मंदिर-मस्जिद; यहां तक कि महज एक मकबरे के नजरिए से देखने के नहीं हैं. इसलिए सिचुएशन को डिफ्यूज करने की सारी कवायदें शुरू कर दी गई हैं.
पहले भी छिड़ी है ताजमहल को लेकर बहस
ताजमहल को लेकर विवाद पहली बार नहीं उठा है. एक थे इंदौर के श्रीमान पुरुषोत्तम नागेश ओक जिन्हें हम पीएन ओक के नाम से बेहतर जानते हैं. ओक साहब भारतीय इतिहास को हमलावरों एवं उपनिवेशकों द्वारा तोड़ा मरोड़ा गया वृत्तांत मान कर चलते थे. वह अपनी पुस्तक ‘ताजमहल ए हिंदू टेम्पल’ में एक थ्योरी खोज कर लाए कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर था जिसका असली नाम 'तेजोमहालय' हुआ करता था. ओक साहब ने दावा किया कि इस मंदिर को जयपुर के राजा मानसिंह (प्रथम) ने बनवाया था जिसे तोड़कर ताजमहल बनाया गया. अपने इस दावे के साथ वह कोर्ट भी पहुंच गए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में ओक साहब की इस याचिका को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि उनके दिमाग में ताजमहल को लेकर लिए कोई कीड़ा है. लेकिन कीड़ा तो कीड़ा होता है! यह अन्य हिंदुत्ववादियों के दिमाग में भी घुस गया. साल 2005 में ऐसी ही एक याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा भी रद्द कर दी गयी, जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता अमरनाथ मिश्र द्वारा यह दावा किया गया था कि ताजमहल हिन्दू राजा परमार देव ने 1196 में निर्मित किया था.
जबकि इतिहास यह कहता है कि शाहजहां ने आमेर के राजा से 1632 में ताजमहल के लिए यमुना किनारे जमीन खरीदी थी. मुगल मानते थे कि गर्भवती स्त्री मरने पर शहीद का दर्जा पाती है इसलिए उसकी कब्र या मकबरा बनाने के लिए छीनी हुई या दान में प्राप्त जमीन हराम होती है. इसीलिए शाहजहां ने बाकायदा उस भूखंड के बदले आमेर के राजा को अलग-अलग चार भूखंड दिए थे. अगर वह जमीन छीनना चाहता तो कोई रोक नहीं सकता था. आमेर के दस्तावेजों में भी उस जमीन पर किसी मंदिर के होने का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता. शाहजहां अपनी दूसरी बेगम मुमताज महल से कितना प्यार करता था इसको लेकर तत्कालीन इतिहासकार इनायत खान लिखता है कि लगातार रोते रहने से उनकी आंखें खराब हो गई थीं!
ख़ैर, जिनकी नफरत इतिहास बोध और प्रेम भावना पर भारी हो, उन्हें किसी बात से फर्क नहीं पड़ता. वे आज भी ताजमहल में पूजा-पाठ करने और शिव चालीसा बांचने की जिद पर अड़े हुए हैं. उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि खुद बीजेपी के केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा 2015 में लोकसभा में स्पष्ट कर चुके हैं कि ताजमहल एक मकबरा है और आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया सत्र न्यायालय में इसी साल हलफनामा दायर कर चुका है कि ताज कभी मंदिर नहीं था. लेकिन तेजोमहालय ब्रिगेड की दिलचस्पी इतिहास में नहीं, महज सत्ता के खेल में इसको मोहरा बनाने भर की है.
वोट नहीं बरसा सकता ताजमहल
जो लोग ताजमहल के पर्यटन से होने वाले नुकसान को योगी जी के बैकफुट पर जाने की वजह बता रहे हैं, उनसे मेरी सहमति नहीं है. साल के 69-70 करोड़ रुपये यूपी जैसे बड़े सूबे की सरकार के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते. लेकिन जो दबाव बना है, वह मुद्दे के बैकफायर होने की वजह से है. हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि हिंदुत्व ब्रिगेड का ताजमहल को लेकर कोई हृदय परिवर्तन हो गया है. जी हां, साध्वी निरंजन ज्योति और साक्षी महाराज आग उगलते रहेंगे, संगीत सोम जैसे विधायक विवाद को हवा देते रहेंगे और योगी-मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास’ का राग अलापते रहेंगे. आप उनसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी, किसान-समस्या, उद्योग-व्यापार की दुर्गति और रोटी-कपड़ा-मकान आदि की बात करेंगे तो वे आपको मंदिर-मस्जिद और मुगल स्मारकों के सामने ले जाकर खड़ा कर देंगे. राजनीति की इस नई डिजाइन में जहां, जिसे जो भूमिका सौंपी गई है, उसे वह बखूबी निभाता रहेगा.
ताजमहल और मुगलों का इतिहास कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक है लेकिन वे अपनी धुन के पक्के हैं. यह जानते हुए कि विदेशों में जो लोग दिल्ली का नाम तक नहीं जानते वे भी ताजमहल से परिचित होते हैं, इसके बावजूद कोई पार्टी ताजमहल को बदनाम करने वालों के खिलाफ एक्शन लेने वाली नहीं है. इतना जरूर स्पष्ट है कि पूरी दुनिया के पर्यटकों को खींच लाने और आगरा के लोगों का पेट पालने वाला ताजमहल भारत को चाहिए ही चाहिए. शायद यह बात अब योगी जी को भी समझ में आ रही है कि ताजमहल इज्जत और इज्जत की रोटी तो दिला सकता है, वोट नहीं बरसा सकता. इसलिए ताजमहल के सामने झाड़ू लगाने में ही भलाई है!
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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