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बिहार में 1990 के दशक की आहट, जब राजनीति पर काबिज थे अपराधी, आनंद मोहन की रिहाई से खुल गया भानुमती का पिटारा

पिछले दिनों बिहार में गोपालगंज के पूर्व डीएम कृष्णैया की हत्या में सज़ा काट रहे बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह को रिहा करने के लिए सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव कर दिया. उसके बाद ही फिलहाल रांची जेल में बंद प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की भी मांग जोर पकड़ने लगी है. बिहार की 40 लोकसभा सीटों में कम से कम दस ऐसी सीटें हैं, जिन पर ऐसे बाहुबली नेताओं की छाप रही है. इनमें वैशाली, पूर्णिया, सुपौल, शिवहर, मुंगरे, सारण, नवादा प्रमुख हैं. तो क्या बिहार में इतिहास फिर 1990 वाले दौर की तरफ आ रहा है या यह क्षणिक बुलबुला है, जिसका कोई निशान नहीं रहेगा.

बिहार में घूम रहा है इतिहास चक्र

हम अगर तथ्यात्मक बात करें तो बिहार की विधानसभा में 70 फीसदी जो चुने हुए विधायक हैं, उनका क्रिमिनल रिकॉर्ड है. यह एडीआर का रिकॉर्ड है. हालांकि, हम अगर परसेप्शन की बात करें, धारणा की बात करें तो थोड़ा पीछे 30 साल पहले जाना होगा. उस वक्त बिहार की राजनीति का अपराधीकरण शुरू हुआ था. वह पूरा इतिहास सभी के सामने खुला है.

दिक्कत इस बात की है कि आज 21वीं शताब्दी में जब विकास की बात हो रही है, केंद्र से लेकर बाकी राज्यों तक नैरेटिव बदल गया है, तो बिहार में फिर से वही हो रहा है. आरजेडी के नए कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव ने जब 'ए टू जेड' पॉलिटिक्स की बात की, तो ऐसा लगा था कि वह कुछ नयी पॉलिटिक्स करना चाहते हैं, लेकिन अब जब आनंद मोहन सिंह की रिहाई के लिए कानून बदल दिया गया, प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की मांग हो रही है तो सोचना पड़ता है कि वह तेजस्वी यादव की पॉलिटिक्स क्या थी?

बिहार का पिछला एमएलसी चुनाव ही देखें तो आरजेडी के कई प्रत्याशी ऐसे हैं, जिनसे यही धारणा बनती है कि उस ए टू जेड का मतलब तो यह है कि बिना वर्ग, जाति या धर्म का विभेद किए ही हरेक वर्ग के पुराने दबंगों की वापसी कराने जा रहे हैं. यह सचमुच चिंता का विषय है कि जिस देश की 60-65 फीसदी आबादी युवा है और 35 वर्ष से कम उम्र की है, वहां आपको 30 साल पुराने लोगों की जरूरत पड़ रही है, तो आप बताना क्या चाहते हैं? इससे आरजेडी की नीयत पर सवाल तो उठता ही है.

बिहार में हिस्ट्रीशीटर फिर डिमांड में

बिहार की कई सीटें ऐसी हैं, जहां दबंग और हिस्ट्रीशीटर प्रभावशाली हैं. वैशाली में आनंद मोहन, मधेपुरा-सुपौल में पप्पू यादव, मुंगेर में अनंत सिंह से लेकर सारण में प्रभुनाथ सिंह तक कई नाम ऐसे हैं जो या तो जेल से छूट चुके हैं या छूटने की तैयारी में हैं.

2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार सत्ता में आए थे, मुख्यमंत्री बनकर तो उस समय भी राजनीति में अपराधी थे, लेकिन सत्ता का चरित्र बदला था. थोड़ा और सांकेतिक ही सही, लेकिन यह परिवर्तन था. अब जिलावार, क्षेत्रवार फिर से जब अपराधियों की येन केन प्रकारेण घर वापसी कराई जा रही है, तो यह बिहार के लिए खतरनाक संकेत हैं.

बिहार में अपराध केवल एक समस्या नहीं है, उसका चरित्र बदला है, यह भी समस्या है. जमीन और शराब के लिए जितने भी अपराध हो रहे हैं, वह चिंता का विषय है. मजे की बात है कि जितने भी अपराधी किसी भी दूसरे क्राइम से जुड़े थे, उन्होंने शराब की तस्करी और जमीन से जुड़े अपराधों में अपना सिंडिकेट बना लिया है.

बिहार में कानून-व्यवस्था तो खैर पिछले 30 वर्षों से एक शाश्वत समस्या है, लेकिन आप अगर याद करेंगे तो पाएंगे कि 2005 से 2010 की अवधि में इसी बिहार ने उस पर अंकुश भी पाया था. उस समय ये हालत थी कि एक डीजीपी लेवल की राज्यस्तरीय मीटिंग में जम्मू-कश्मीर के डीजीपी ने बिहार के तत्कालीन डीजीपी से अपराध पर अंकुश लगाने के टिप्स मांगे थे. तब बिहार में स्पीडी ट्रायल भी हुए थे, विशेष अदालतें भी बनी थीं और आंकड़ों के हिसाब से 50 हजार छोटे-बड़े अपराधियों को जेल में डाला गया था. 

अब लगा है सवर्ण वोटों पर निशाना

बिहार में अगर चुनाव का पैटर्न देखें तो बहुत दिलचस्प है. विधानसभा चुनाव में आरजेडी-जेडीयू गठबंधन का हाथ ऊपर रहता है, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी बहुत ही भारी अंतर से जीतती है.

अभी ओबीसी, दलितों, महादलितों का बांट-बखरा यानी सोशल इंजीनियरिंग नीतीश कुमार ने कर ली, तो अब आगे तो देखना ही पड़ेगा. तेजस्वी यादव भी ए टू जेड की बात कर रहे हैं. महागठबंधन यह मान रहा है कि विधानसभा में तो हमारा वोट ठीक रहता है, लेकिन लोकसभा में बीजेपी शायद हमारे कोर वोटर्स में सेंध लगाती है. इसीलिए अब उनकी कोशिश है कि बीजेपी के जो कोर वोटर माने जाते हैं, यानी सवर्ण, उनमें सेंध लगाई जाए. यही कारण है कि तेजस्वी जाति देखकर अपराधियों की घर वापसी करवा रहे हैं.

बिहार में बाहुबल और जाति प्रभावशाली तो रहेंगे ही. जातीय समीकरणों से मुक्त होने की बात करना तो ठीक नहीं रहेगा, दूसरे जो अपराधियों की घर वापसी और उसके चुनाव पर प्रभाव की बात है, तो शायद वह उतना प्रभाव न डाले.

जैसे, आनंद मोहन जब वैशाली में जीते थे तो लालू-विरोध के नाम पर आम तौर पर एक-दूसरे के विरोधी रहनेवाले भूमिहार और राजपूत खुलकर एक साथ आए थे. तब से अब तक काफी पानी गंगा और बूढ़ी गंडक में बह चुका है. यानी, इन लोगों का प्रभाव पहले की तरह रहे, यह जरूरी नहीं है. इस चुनाव में एक मुद्दा तो खुद नरेंद्र मोदी रहेंगे. उनकी छवि भी होगी. उसके साथ ही महागठबंधन के अपने मुद्दे रहेंगे और बाकी बिहार के मुद्दे तो हैं ही. उस संग्राम में मुझे नहीं लगता कि ये अपराधी सह नेता पहले की तरह प्रभावशाली रहेंगे.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

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