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बेहद जटिल हैं असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में दर्ज सवालों के जवाब

यह बेहद जरूरी और अच्छी बात है कि देश में रह रहे अवैध नागरिकों की शिनाख्त करके उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए, फिर चाहे वो बांग्लादेश से आए हिंदू-मुसलमान हों, म्यानमार के रोहिंग्या हों, पाकिस्तान के सताए हिंदू या अन्य विदेशी घुसपैठिए. लेकिन जब इस कार्रवाई में राजनीति की बू आने लगती है तो मामला देश की सुरक्षा से परे हटकर विवादों में घिर जाता है. असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का दूसरा और अंतिम मसौदा जारी होते ही दिल्ली से लेकर कोलकाता और गुवाहाटी से लेकर पटना तक भूचाल मच गया है. एनआरसी के विरोध में हाथों में तख्ती लिए तृणमूल कांग्रेस, सपा, आरजेडी, टीडीपी, आप, बीएसपी और जद(एस) के सांसद दोनों सदनों में रोज हंगामा कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह डाला कि एनआरसी में 40 लाख लोगों का नाम गायब कर दिए जाने से देश में खून-खराबा और गृहयुद्ध भी हो सकता है. कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल संसद के भीतर और बाहर सत्तारूढ़ भाजपा पर एनआरसी के बहाने अपना हिंदू-मुस्लिम एजेंडा लागू करने का आरोप लगा रहे हैं, तो पलटवार करते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कह रहे हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों को वोट बैंक की राजनीति से ऊपर रखा जाना चाहिए और जो लोग एनआरसी का विरोध कर रहे हैं वे बांग्लादेशी घुसपैठियों को बचाने का प्रयास कर रहे हैं.

ध्यान रहे कि यह कोई अंतिम सूची नहीं है, सिर्फ मसौदा है और 2005 से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश और निगरानी में चल रहे इस अवैध नागरिक शिनाख्त अभियान (इसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों की शिनाख्त शामिल हैं) में स्वयं न्यायालय ने राहत दे रखी है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, फिलहाल उन पर किसी तरह की सख्ती न बरती जाए. चुनाव आयोग ने भी स्पष्ट किया है कि एनआरसी में नाम शामिल न हो पाने का मतलब यह नहीं है कि मतदाता सूची से भी ये नाम हट जाएंगे. उधर भारत सरकार का कहना है कि जिन लोगों का नाम एनआरसी सूची में नहीं आया, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का एक और मौका दिया जाएगा. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में बयान दिया है कि मसौदा तैयार करने में केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं है और नागरिकता के मामले में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा.

इन दावों के बावजूद अभी तक सामने आया है कि किन्हीं कारणों से देश के पांचवें राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद के रिश्तेदारों का नाम इस अंतिम मसौदा सूची में शामिल नहीं हो पाया. उनके बड़े भाई एकरामुद्दीन अली अहमद के परिवार का नाम भी नहीं हैं. असम में राय बहादुर की पदवी से नवाजे गए मारवाड़ी खानदानों के सदस्य इस सूची से बाहर हैं. असम की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री रहीं सैयदा अनोवरा तैमूर का नाम भी गायब है. उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान से असम में आकर बसे लोगों का इतिहास करीब 300 वर्ष पुराना है, लेकिन इनमें से हजारों लोग इस सूची से बाहर हैं. अब अपने ही देश में अपनी नागरिकता साबित करने के लिए इन्हें सरकारी दफ्तरों और अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं.

यह सच है कि इस मसौदे को तैयार करने में सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य भूमिका है. लेकिन यह भी सच है कि एनआरसी का जमीनी स्तर पर काम किस तरह हुआ है, यह अभी सुप्रीम कोर्ट ने नहीं देखा है. अगर वैध नागरिकों को मसौदे की अंतिम सूची में स्थान नहीं मिल पाया तो इसे महज स्थानीय अधिकारियों और कर्मचारियों की लापरवाही कह कर नहीं टाला जा सकता. इसके पीछे नीयत का सवाल भी छिपा है. हम देखते हैं कि देश की मतदाता सूचियों में किस पैमाने पर गड़बड़ियां होती हैं या की जाती हैं. पिछले दिनों मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और चुनाव प्रचार प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर खुला आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने शासनकाल में 40 लाख से अधिक फर्जी मतदाता जोड़े हैं. आश्चर्यजनक ढंग से पिछले चंद महीनों में ही चुनाव आयोग ने करीब 14 लाख मतदाताओं की वहां छंटनी कर दी है! कल्पना की जा सकती है कि जब महज चुनाव जीतने की भावना से ऐसा फर्जीवाड़ा हो सकता है तो जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल पर लोग किस सीमा तक नहीं जा सकते. असम में लोगों के नाम जोड़ने-हटाने का मामला इतना सीधा नहीं है, जैसा कि बताया और दिखाया जा रहा है.

जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल भावनात्मक उबाल वाले समय में अपनी गोटियां फिट करने की कोशिश करते हैं. 2019 के आम चुनाव नजदीक हैं और भाजपा के लिए अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा देश (खास तौर पर उत्तर-पूर्व और पश्चिम बंगाल) की जनता के कान में लोरी सुनाने जैसा है. तभी तो भाजपाध्यक्ष अमित शाह ललकार रहे हैं कि एनआरसी को अमल में लाने की कांग्रेस में हिम्मत नहीं थी, भाजपा में हिम्मत है इसलिए वह इसे लागू करने निकली है. पश्चिम बंगाल के भाजपाध्यक्ष दिलीप घोष पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि अगर राज्य में उनकी पार्टी सरकार बनाती है तो असम की तरह वहां भी एनआरसी लागू किया जाएगा. तेलंगाना के भाजपा विधायक टी. राजा सिंह लोध ने कहा है कि अगर भारत में अवैध तरीके से रह रहे बांग्लादेशी और रोहिंग्या शराफत से अपने देश न लौटें तो उन्हें गोली मार दी जानी चाहिए. उनकी राय से इत्तेफाक रखने वाले देश में कई लोग मिल जाएंगे. असम में तो ऐसे लोगों की बहुतायत है. इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारण भी हैं.

अंग्रेजों द्वारा 1905 में किए गए बंग-भंग के बाद असम पूर्वी बंगाल से जुड़ा प्रांत था. 1947 के बंटवारे के बाद खतरा यह पैदा हो गया कि कहीं असम पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में न चला जाए. लेकिन गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में चले अस्मितावादी आंदोलन ने अनहोनी टाल दी थी. असम के चाय बागानों में काम करने के लिए काफी पहले से उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के लोग आते थे. व्यापार के सिलसिले में राजस्थान के लोग भी स्थायी तौर पर आ बसे. इनमें हिंदीभाषी मैदानी लोग, बांग्लाभाषी हिंदू और मुसलमान बड़ी संख्या में शामिल थे. स्थानीय लोग रोजगार, संस्कृति और अन्यान्य कारणों से यह सब पसंद नहीं करते थे. जब 1950 में असम को राज्य का दर्जा मिला तो असमिया लोगों का विरोध तीक्ष्ण और संगठित हो गया.

मामला तब और गंभीर हुआ जब पूर्वी पाकिस्तान के अंदर पाक सेना ने दमन शुरू किया और लाखों की संख्या में हिंदू-मुसलमान भागकर असम में प्रवेश कर गए. लेकिन 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया तो कुछ लोग लौटे और कुछ यहीं रह गए. इसके बाद गरीबी और भुखमरी के चलते बांग्लादेशियों ने अवैध रूप से असम में घुसपैठ शुरू कर दी. बाहरी आबादी की इस अप्रत्याशित बाढ़ के कारण असम की स्थानीय जनजातियों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई. उन्होंने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया. युवाओं और छात्रों के सब्र का बांध भी टूट गया और 1951 का एनआरसी अद्यतन करने को लेकर कई वर्षों के चले उनके घनघोर आंदोलन के बाद 1985 में उनका केंद्र की राजीव गांधी सरकार के साथ असम समझौता हुआ, जिसमें अवैध बांग्लादेशियों की श्रेणियां निर्धारित करने के साथ यह शर्त मानी गई कि 24 मार्च, 1971 की आधी रात से पहले जिनके या जिनके पुरखों के असम में रहने के वैध सबूत नहीं होंगे, उन्हें निकाल बाहर किया जाएगा.

समझौता तो हो गया था और सरकारें भी बनती-बदलती गईं, लेकिन न तो अवैध बांग्लादेशी पहचान कर निकाले गए न ही एनआरसी अद्यतन हुआ. आखिरकार यह मामला लटकते-लटकते एनजीओज की पहल पर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचा. उसी का नतीजा है कि बीती 30 जुलाई को अंतिम मसौदा सूची प्रस्तुत की गई है, जिस पर बवाल मचा हुआ है. विरोधी दलों को सत्यापन की प्रक्रिया को लेकर शक है और स्थानीय कर्मचारियों पर भी उन्हें पूर्ण भरोसा नहीं है. सत्यापन दो चरणों में हुआ है- कार्यालय में जमा कागजात के आधार पर और घर-घर जाकर. लेकिन देखा गया है कि क्षेत्रीय और जातीय भावना कइयों को नाम और उपनाम देख कर ही बिदका देती है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की चिंता यह है कि असम में रह रहे बांग्ला बोलने वाले करीब 90 लाख मुसलमानों और बांग्ला भाषी हिंदुओं का क्या होगा? और सबूतों के अभाव में जिन वैध नागरिकों को विदेशी ठहरा दिया जाएगा, उनका क्या होगा?

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) में ऐसे कठिन प्रश्न दर्ज हैं, जिनके उत्तर बेहद जटिल हैं. देश, सर्वोच्च न्यायालय, केंद्र सरकार, राज्य सरकार और भारतीयों को ये उत्तर खोजने में बेहद संवेदनशीलता बरतनी होगी. यह राजनीतिक नफा-नुकसान का नहीं, लाखों नागरिकों की जिंदगी का सवाल है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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