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Birthday Special: माधवराव सिंधिया के दिल में बसता था ग्वालियर, लोगों की गलतियां देखकर मुस्कुराने वाला जननेता

Madhy Pradesh Politics: ग्वालियर में जब माधवराव सिंधिया और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच जब मुकाबला हुआ तो यह पहली बार था जब बीजेपी को अपने इस अजेय किले में पोलिंग एजेंट बनाने तक के लिए लोग नहीं मिले.

ग्वालियर में आज भी जिस शख्स की कमी रोज महसूस होती है और हर घर में जिसकी चर्चा होती है, उसका नाम है माधव राव सिंधिया. अगर आज वे जीवित होते तो वे आज अपना 78वां जन्मदिन मना रहे होते. हालांकि आज शहर उनका जन्मदिन मना रहा है लेकिन वे नहीं हैं. हर पीढ़ी के मन में उनकी यादें बसी हुईं हैं.उन्होंने सेवा और विकास के जरिए लोकप्रियता के जो पायदान खड़े किए, उन्हें आज भी कोई तोड़ नहीं पाया है.सबसे बड़ी बात थी उनका अपने शहर ग्वालियर से प्यार.इसकी कोई बुराई वो सुनना नहीं चाहते थे. यही वजह है कि वे महाराजा से लोकनायक बनने में कामयाब रहे. एक समय ऐसा आया जब वे ग्वालियर से लेकर देश की राजनीति तक में अजातशत्रु बने रहे. और आज भी हैं. 

युवराज से जननायक तक का सफर 

माधव राव सिंधिया का जब जन्म हुआ तब ग्वालियर एक शक्तिशाली सिंधिया रियासत की सरपरस्ती में था.उनका जन्म 10 मार्च 1945 को ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया के घर और महारानी विजयाराजे सिंधिया के गर्भ से हुआ. वे सही मायने में ही सिंधिया राजघराने के युवराज थे.सोने की कटोरी में रखी खीर को चांदी के चम्मच से खिलाकर उनका अन्नप्रासन हुआ था.देश में लोकतंत्र आने के पहले ही शाही महल में  उनके सिर पर युवराज की पगड़ी बांधने का संमारोह भी हुआ था. उन्होंने जब होश संभाला तो देश में स्वतंत्रता का सूरज उग चुका था.राजतंत्र की विदाई हो चुकी थी. प्रजातंत्र अपने पैर पसार चुका था.इस सदमें में ज्यादातर राजे-राजबाड़े नेपथ्य में जा चुके थे लेकिन माधवराव सिंधिया ने लोकतंत्र का सम्मान करते हुए सियासत में एक अलग शैली विकसित कर अपने को स्थापित करने का बीड़ा उठाया.यह था विकास की शैली.इसी शैली ने उन्हें बाकी नेताओं से अलग किया और उनकी छवि विकास का मसीहा की बना दी. 

मां से अलग सियासी रास्ता

माधव राव सिंधिया की प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में उनके परिवार द्वारा संचालित सिंधिया स्कूल में ही हुई. उसके बाद वे पढ़ने के लिए लंदन चले गए. जब 1971 में वे पढ़ाई पूरी कर वापस लौटे तब तक उनकी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में शामिल हो चुकीं थीं. उन्होंने ही अपनी परंपरागत सीट गुना से जनसंघ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा.वे रिकॉर्ड मतों से जीते और लोकसभा में सबसे कम उम्र और सबसे खूबसूरत सांसद के रूप में एंट्री ली.लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी मां से अलग सियासी रास्ता पकड़ा. वे कांग्रेस में शामिल हुए और तब से लेकर जीवनपर्यंत वे कांग्रेस में ही रहे.वे संगठन से लेकर सत्ता तक के अनेक पदों पर रहे. 

अटल विहारी वाजपेयी को दी करारी मात

माधव राव सिंधिया ने देश की सियासत में अपनी धमाकेदार एंट्री की 1984 में .दरअसल तब ग्वालियर पहले हिन्दू महासभा फिर जनसंघ के जमाने से ही बीजेपी का अभेद्य गढ़ माना जाता था.यही वजह है कि बीजेपी ने अपने शीर्षस्थ नेता अटल विहारी वाजपेयी को ग्वालियर जैसी सुरक्षित सीट से लोकसभा चुनाव लड़ाने का फैसला लिया.उन्होंने नामांकन भी भर दिया.वे भी ग्वालियर के ही सपूत थे, इसलिए जीत को लेकर हर कोई आश्वस्त था.लेकिन अचानक पांसा पलट गया.नामांकन भरने के अंतिम क्षणों में माधव राव सिंधिया सपत्नीक ग्वालियर कलेक्ट्रेट पहुंचे और ग्वालियर लोकसभा सीट से अपना नामांकन दाखिल कर सनसनी मचा दी. इसके बाद ग्वालियर की चुनावी फिजा पूरी तरह बदल गया था.यहां सिंधिया की लोकप्रियता के कारण वैचारिक तटबंध भी टूट गए थे. पहली बार था जब बीजेपी को अपने इस अजेय किले में पोलिंग एजेंट बनाने तक के लिए लोग नहीं मिल रहे थे.माधव राव के हाथों अटल जी को रिकॉर्ड मतों से करारी हार झेलना पड़ी.वे किसी भी एक बूथ पर जीत दर्ज करने को तरस गए. 

रेलमंत्री के रूप में बिछाया रेल का जाल

इस जीत के बाद राजीव गांधी की सरकार बनी तो उन्होंने माधव राव को अपना रेल मंत्री बनाया.राज्यमंत्री होते हुए भी आलोचनाओं की शिकार रहने वाली भारतीय रेल की व्यवस्थाओं में ऐसे परिवर्तन किए कि हर जगह उनकी वाहवाही होने लगी.सारी ट्रेन समय पर चलने लगीं और स्वच्छता पर खास ख्याल रखा जाने लगा.स्वयं माधव राव भी ट्रेन से ही सवारी करते थे.इस सुधार में उनकी खास कार्यशैली भी चर्चा का विषय रही.वे न तो अपने मातहतों को डांटते थे और न ही दंडित करते थे बस गलती देखकर मुस्कराते थे तो सामने वाला शर्मिंदगी महसूस करता था.उन्होंने रेल कर्मियों के कल्याण के काम करके उनका दिल जीत लिया था.

दादाजी थे उकने आदर्श 

माधव राव सिंधिया अपने दादाजी माधो महाराज को अपना आदर्श मानते थे.माधो महाराज को सिंधिया शासकों में सबसे विकास प्रिय महाराज माना जाता है.उन्होंने ही आधुनिक ग्वालियर की नींव रखी थी.माधव राव ने भी ग्वालियर को विकास की दौड़ में शामिल कराया.उन्होंने ग्वालियर को रेल मार्ग से पूरे देश को जोड़ दिया.हालात ये थे कि कोई अगर उनसे कह देता था कि उस शहर को तो अपने शहर से ट्रेन ही नहीं जाती,यह सुनकर अपमान बोध से उनके गाल लाल हो जाया करते थे. एक पखबाडा तब होता था जब वे वहां के लिए ट्रेन रवाना कर चुके होते थे.उन्होंने नागरिक उड्डयन मंत्री बनते ही यहां हवाई अड्डे के निर्माण कराया और और एजुकेशन हब बनाने के लिए मानव संसाधन मंत्री रहते ट्रिपल आईटीएम,आएआईटीटीएम और होटल मैनेजमेंट के बड़े शिक्षण संस्थान खोले और लोगों को रोजगार दिलाने के लिए मालनपुर और बानमोर औद्योगिक केंद्र स्थापित कराने की पहल की. उन्होंने ग्वालियर में क्रिकेट का बीजारोपण किया.निजी प्रयास कर जीडीसीए का गठन कर रूप सिंह स्टेडियम को क्रिकेट मैदान में बदलवाया और यहां अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच कराने की शुरुआत करवाई.

चंबल से क्षिप्रा तक की यात्रा

एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें कांग्रेस छोड़ना पड़ी.हवाला मामले में नाम आने के बाद उनसे कहा गया कि वे अपने किसी परिजन को चुनाव लड़ा दें लेकिन सिंधिया ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर कांग्रेस से अलग होने का निर्णय लिया.उस समय उन्हें सभी दलों ने टिकट ऑफर किया लेकिन उन्होंने किसी भी दल में शामिल होने की जगह स्वतंत्र चुनाव लड़ने का फैसला किया.इससे पहले उन्होंने अपने प्रभाव क्षेत्र चंबल से क्षिप्रा तक की मैराथन यात्रा की. इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस के अपने बैनर तले ग्वालियर से लोकसभा का चुनाव लड़ा.इस चुनाव में सिर्फ एक नारा गूंजता था - 'हर दिल पर नाम लिख दिया,माधव राव सिंधिया'.यह चुनाव ग्वालियर की जनता बनाम राजनीतिक दल हो गया.सिंधिया लाखों मतों से जीते और कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई. 

जीत का अंतर कम हुआ तो छोड़ दिया ग्वालियर 

हालांकि एक चुनाव में जब ग्वालियर में वे महज साढ़े छब्बीस हजार मतों के अंतर से जीते तो उन्होंने फिर अपनी परंपरागत गुना सीट की तरफ रुख कर लिया. वे अंतिम सांस तक वहीं से कांग्रेस के सांसद रहे.वे देश के उन बिरले नेताओं में शामिल है जो सदैव अपराजेय रहे.

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