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CME Technique: भारतीय वैज्ञानिकों का कमाल, खोज निकाली सूर्य से निकलने वाले सीएमई का आकार मापने की तकनीक

सीएमई के विस्तार को मापने के लिए केवल सिंगल पॉइंट ऑब्जर्वेशन का इस्तेमाल होता था, जो नाकाफी साबित हुआ. इसे मापने के लिए IIA के वैज्ञानिकों ने नया तरीका खोज निकाला है.

भारतीय खगोलविदों ने सूर्य से निकलने वाले कोरोनल मास इजेक्शन (CME) के विस्तार की गति और उसके रेडियल आकार को मापने की अनोखी विधि खोज ली है. यह तकनीक पृथ्वी के मैग्नेटोस्फेयर (चुंबकीय क्षेत्र) पर सीएमई के प्रभाव की सटीक भविष्यवाणी करने में मदद कर सकती है. भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने गुरुवार (30 जनवरी) को यह जानकारी दी. 

इस तकनीक का क्या होगा फायदा?

भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (IIA) के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित इस नई पद्धति से सौर ज्वालाओं के विस्तार को एकल-बिंदु अंतरिक्ष यान (single-point in situ spacecraft) से भी मापा जा सकता है, जिससे भविष्य में अंतरिक्ष में मौसम के पूर्वानुमान को और अधिक सटीक बनाया जा सकेगा. अगर ऐसा होता है तो सैटेलाइट के संचार, पावर ग्रिड और नेविगेशन सिस्टम पर पड़ने वाले असर को कम करने में मदद मिलेगी.

क्या होते हैं सूर्य से निकलने वाले सीएमई?

सीएमई सूर्य से निकले हुए चुंबकीय प्लाज्मा के विशाल बुलबुले होते हैं, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में गड़बड़ी (geomagnetic storm) पैदा कर सकते हैं. यह गड़बड़ी सैटेलाइट को निष्क्रिय कर सकती है. रेडियो संचार बाधित कर सकती है और यहां तक कि बिजली ग्रिड को भी नुकसान पहुंचा सकती है.

पहले कैसे मापा जाता था सीएमई?

अब तक, सीएमई के विस्तार को मापने के लिए केवल एकल-बिंदु अवलोकन (single-point observations) का उपयोग किया जाता था, जो अपर्याप्त साबित हुआ. हालांकि, IIA के वैज्ञानिकों ने एक नया तरीका खोजा है, जिसमें सीएमई के विभिन्न उप-संरचनाओं (leading edge, center और trailing edge) की गति का सटीक अनुमान लगाया जाता है. इस विधि से यह भी पता लगाया जा सकता है कि सीएमई का विस्तार अलग-अलग ऊंचाइयों पर कैसे बदलता है. अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता अंजलि अग्रवाल ने कहा, "इस नई विधि से यह समझने में मदद मिलेगी कि सीएमई पृथ्वी के मैग्नेटोस्फेयर को कितने समय तक प्रभावित कर सकता है."

नई तकनीक से मिलेगी यह जानकारी

IIA के प्रोफेसर और इस अध्ययन के सह-लेखक डॉ. वागीश मिश्रा के अनुसार, 'हमारी अनूठी तकनीक सीएमई के तात्कालिक विस्तार की गणना करने में सक्षम है, जिससे यह अनुमान लगाना आसान होगा कि यह पृथ्वी पर कब और कितना असर डालेगा.' यह तकनीक नासा और ईएसए के सौर मिशनों (SOHO, STEREO और Wind) के डेटा पर आधारित है और इसे 3 अप्रैल 2010 को सूर्य से निकले एक सीएमई पर सफलतापूर्वक आजमाया गया। अब इस पद्धति को भारत के पहले सौर मिशन आदित्य-L1 पर भी लागू किया जाएगा.

नई तकनीक से होगा यह फायदा

डॉ. मिश्रा ने कहा, 'हम इस तकनीक को आदित्य-L1 के ASPEX (Aditya Solar Wind Particle Experiment) डेटा पर इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित हैं, ताकि सीएमई के विस्तार को और बेहतर तरीके से समझा जा सके.' यह शोध अंतरिक्ष मौसम पूर्वानुमान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा रही है, जिससे भविष्य में अंतरिक्ष और पृथ्वी पर तकनीकी प्रणालियों की सुरक्षा को और बेहतर किया जा सकेगा.

यह भी पढ़ें: अब तक कितनी कम हो गई पृथ्वी के घूमने की स्पीड, जब थम जाएगी धरती तो क्या होगा?

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