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कश्मीर घाटी से आतंक के खात्मे के लिए किस 'जादुई छड़ी' का इस्तेमाल करेगी सरकार ?

जम्मू -कश्मीर को मिला विशेष दर्जा हटने के बाद कश्मीर की वादियां सैलानियों से फिर गुलज़ार होने लगी थीं. अमन-चैन की बयार भी चल पड़ी थी लेकिन वो आतंकवादियों और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान में बैठे उनके आकाओं को भला कैसे रास आतीं. मंगलवार को महज दो घंटे के भीतर घाटी में तीन बेगुनाह लोगों को मारकर आतंकियों ने अपने नापाक मंसूबे तो बता ही  दिए हैं लेकिन ये वारदातें यह भी इशारा देती है कि आतंकी किसी भी सूरत में नहीं चाहते कि कोई भी अल्पसंख्यक यानी हिन्दू अब कश्मीर घाटी में रहे या फिर वहां आने की जुर्रत भी करे.

केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने के बाद राज्य से बाहर के लोगों के लिए भी जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने का रास्ता खोल दिया है. बताया जाता है कि पिछले कुछ महीनों में कुछ बिजनेस घरानों ने वहां उद्योग लगाने की इच्छा जताते हुए बेहतर लोकेशन पर जमीन खरीदने की पड़ताल भी की. लेकिन आतंकी तो ऐसा किसी भो सूरत में नहीं होने देना चाहते. सुरक्षा से जुड़े सूत्रों का दावा है कि यही दहशत फैलाने के लिए उन्होंने एक ही दिन में एक साथ तीन वारदातों को अंजाम दिया, ताकि कश्मीर से बाहर का कोई भी नागरिक यहां आकर जमीन खरीदने या बिजनेस करने के बारे मे न सोचें.

हालांकि ये स्थिति खतरनाक होने के साथ ही सरकार के लिए भी गंभीर चिंता का विषय होनी चाहिए. इसलिए कि अगर आतंकियों के हौसले ऐसे ही बुलंद रहे, तो कश्मीर में अमन-चैन की बहाली की सरकार की तमाम कोशिशों पर पानी फिर जायेगा और चाहने के बावजूद कोई भी घाटी की तरफ जाने से डरेगा-चाहे सैलानी हों या फिर बिज़नेस घराने.
 
साल 1990 में आतंकवाद के पैर पसारते ही हजारों कश्मीरो पंडितों ने घाटी से पलायन कर लिया था. उसके बावजूद मोटे अनुमान के मुताबिक तकरीबन आठ सौ परिवार ऐसे हैं, जो आज भी घाटी के विभिन्न हिस्सों में बहुसंख्यक मुस्लिम परिवारों के साथ मिल-जुलकर अपनी जिंदगी गुज़र-बसर कर रहे हैं. उनमें से ही एक श्रीनगर की मशहूर फार्मेसी के मालिक माखनलाल बिंदरू को जिस तरह से आतंकियों ने अपना निशाना बनाया है, उससे साफ है कि उनके इरादे क्या हैं. बिंदरू की हत्या की जिम्मेदारी आतंकी संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (TRF)ने ली है. इस आतंकी संगठन का नाम पहले कभी नहीं सुना गया, इसलिये आशंका यही है कि किसी पुराने आतंकी समूह ने ही इस नाम से नया फ्रंट बनाया है, ताकि सुरक्षा बलों को गुमराह किया जा सके.

इसके बाद दूसरी वारदात में आतंकियों ने श्रीनगर के ही लाल बाजार इलाके में गोलगप्पा बेचने वाले विरेंद्र पासवान की हत्या करके ये संदेश दिया है कि अब उन्हें घाटी से बाहर का कोई भी व्यक्ति मंजूर नहीं है, भले ही वह मजदूर हो या छोटा-मोटा कोई धंधा करता हो. बताते हैं कि विरेंद्र पासवान बिहार के भागलपुर से आकर वहां पिछले काफी वक्त से रेहड़ी पर गोलगप्पे बेचते हुए अपने परिवार का पेट पाल रहे थे. वीरेंद्र की तरह ही ऐसे और भी कई प्रवासी मजदूर हैं, जो कश्मीर घाटी के अलग-अलग हिस्सों में कामकाज कर रहे हैं. अकेली ये घटना ही उनमें इतनी दहशत ला देगी कि वे फौरन बोरिया-बिस्तर समेटकर अपने घरों को लौट जायेंगे.और,यही आतंकवादी चाहते भी हैं. तीसरी वारदात उत्तरी कश्मीर के बांदीपोरा जिले के हाजिन इलाके में हुई,जहां आतंकियों ने SUMO प्रेसिडेंट नायदखाई मोहम्मद शफी उर्फ सोनू की गोली मारकर हत्या कर दी.

कश्मीर के इतिहास पर गौर करें,तो जब 1920 के दशक में कश्मीर में डोगरा राज चल रहा था,तब वहां नौकरियां और अपनी ज़मीन बचाने के लिए एक नारा लगाया गया था - कश्मीर, कश्मीरियों के लिए (कश्मीर फॉर कश्मीरीज़). और सबसे पहले यह नारा लगाने वाले कश्मीरी पंडित ही थे. इसी नारे की वजह से 1927 का स्टेट सब्जेक्ट लॉ बना था और फिर आगे चल कर 1954 में यह अनुच्छेद 35-ए बन गया,जिसे दो साल पहले मोदी सरकार ने हटा दिया है.

लेकिन बदकिस्मती की बात है कि जिन पंडितों ने कश्मीर को बचाया, उन्हें ही वहां से बेदखल होना पड़ा. दरअसल ,घाटी में 14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ वीभत्स होता चला गया. टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के नेता मकबूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई.उसके बाद 13 फरवरी 1990 को श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक ल्हासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने शीर्ष पर पहुंच गया था. घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इसके निशाने पर आ गए हिंदू ख़ासकर कश्मीरी पंडित.

मोटे अनुमान के मुताबिक आतंकियों ने  300 से ज़्यादा पंडितों की हत्या की और आखिरकार अनवरी 1990 में लगभग सारे यानी तकरीबन दो लाख कश्मीरी पंडित रातों-रात घाटी छोड़कर जम्मू, दिल्ली चले गये. आतंकियों का तो एकमात्र मकसद है, दहशत फैलाना लेकिन सरकार का फर्ज है लोगों में सुरक्षा का भरोसा पैदा करना. लिहाज़ा, अब सवाल ये है कि जब कश्मीरी पंडित ही घाटी में वापस जाने से इतने डरे हुए हैं, तो आम नागरिकों में सुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए सरकार किस जादुई छड़ी का इस्तेमाल करेगी?

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

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