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Uphaar Cinema Fire Tragedy: 24 साल तक चली इस जंग में इंसाफ न बिका, न झुका लेकिन फिर भी जीता!

Uphaar Cinema Fire Tragedy: वो साल 1997 के 13 जून की दोपहर व शाम के बीच का वक़्त था. दिल्ली पुलिस मुख्यालय में पुलिस कमिश्नर टी आर कक्कड़ के स्टाफ ऑफिसर व डीसीपी डी एल कश्यप के कमरे में हर रोज की तरह ही कुछ एक्सक्लूसिव ख़बर जुटाने की जुगाड़ में उस रोज भी मेरे समेत कुछ दो-तीन और साथी भी वहां मौजूद थे. अचानक वाकी-टॉकी पर अपने कमिश्नर की आवाज़ सुनते ही कश्यप सतर्क हो गए और उन्होंने हैंडल पर रखे सेट को अपने कान के नजदीक ला दिया. तब पुलिस कमिश्नर कक्कड़ साउथ दिल्ली के डीसीपी से सवाल कर रहे थे कि- Fire is medium or major? उन्हें आगे से जवाब मिला कि सर I  think it's more than major. यानी वो आग खतरे के स्तर को भी पार कर चुकी है. महज़ चंद सेकंड में ही कश्यप के इंटरकॉम पर कमिश्नर उन्हें इत्तिला दे रहे थे कि उपहार सिनेमा हॉल में लगी आग बहुत भयंकर है और मैं मौके पर जा रहा हूं.

ये उस दिन की सबसे बड़ी खबर थी और जिसे ये पता लग गया, वो क्राइम रिपोर्टर सबसे पहले घटनास्थल पर पहुंचकर अपनी आंखों से उस दर्दनाक हादसे को देखकर ही उसकी रिपोर्टिंग करना चाहता था. दिल्ली के AIIMS अस्पताल से कुछ आगे जाकर ग्रीन पार्क इलाके के संकरे रास्तों के भीतर बने उपहार सिनेमा हॉल में लगी आग से उठता धुँआ बहुत दूर से ही उस तबाही की गवाही दे रहा था. आलम ये था कि फायर ब्रिगेड की किसी एक भी दमकल के वहां तक पहुंचने का कोई रास्ता ही नहीं था, फिर भी उन्होंने मैन रोड से लेकर उस थिएटर तक पानी के इतने पाइप बिछा डाले थे कि किसी भी तरह से आग पर काबू पाकर कुछ जिंदगियां बचा सकें.सिनेमा हॉल से निकालकर एम्बुलेंस की लंबी कतारों में मासूम बच्चों के झुलसे हुए शवों को रखने का वो मंज़र याद आते ही आज भी रुह कांप उठती है कि भारत-पाकिस्तान की जंग पर बनी 'बॉर्डर ' फ़िल्म देखने गए इन मासूमों का भला क्या कसूर था. उस अग्निकांड में 59 बेकसूर लोगों की जान चली गई थी .लेकिन तभी अपने कैमरामैन के जरिये आईं उस हादसे की तस्वीर्रे देखकर और उसे दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले प्रोग्राम को प्रस्तुत करते हुए देश की हिंदी पत्रकारिता का एक चमकता हुआ सितारा भी अस्त हो गया था.

दरअसल, उन दिनों दूरदर्शन के सिवा कोई और प्राइवेट न्यूज़ चैनल नहीं था.उस जमाने के चर्चित खाँटी पत्रकार-संपादक एस पी सिंह तब दूरदर्शन पर समाचारों को अपने अनूठे अंदाज में पेश करने का एक प्रोग्राम पेश किया करते थे,जिस प्रोग्राम के नाम पर अब एक न्यूज चैनल भी है. देश की टीवी पत्रकारिता के इतिहास में वो पहली व अनोखी ऐसी घटना थी,जब उस अग्निकांड की खबर सुनाते वक्त उसके एंकर एस पी सिंह की आंखों में आंसू थे और देखने वाला हर शख्स भावुक हो उठा था.जबकि उस दौर में भी लोगों को विचलित कर देने वाली तस्वीर्रे टीवी के पर्दे पर नहीं दिखाई गई थीं,पर जितना और जो कुछ भी दिखाया गया,वो किसी के भी सिहर उठने के लिए काफी था. लेकिन उस हादसे का सदमा एस पी पर कुछ इतना जबरदस्त हुआ कि वे उससे उबर ही नहीं सके और आखिरकार 27 जून को ब्रेन हेमरेज से उनकी मौत हो गई.तब पत्रकारिकता में ये बहस का एक बड़ा विषय बन गया था कि एक हादसा किसी पत्रकार को इस हद तक भी झिंझोड़ सकता है.

लेकिन हक़ीकत यही है कि जिसने भी उस हादसे को अपनी आंखों से देखा, वो आज तक उसे भुला नहीं पाया है और जिन्होंने उसमें अपनों को हमेशा के लिए खो दिया,वे तो खैर कभी भुला ही नहीं पाएंगे.उस हादसे के बाद पीड़ित परिवारों ने मिलकर एक मोर्चा बनाया और इंसाफ पाने के लिए पुरजोर तरीके से लड़ाई लड़ी. लेकिन ये ऐसी जंग थी, जहां एक तरफ दौलत की ताकत थी, तो दूसरी ओर अपनी जिंदगी की भीख मांग रहे मासूम-बेगुनाहों की चीख थी.देर से ही सही लेकिन 24 साल से चली आ रही इस लड़ाई में आखिरकार जीत इंसाफ की ही हुई और उस ताकत को हार का मुंह देखना पड़ा,जिसके दम पर हर सरमायेदार इंसाफ खरीदने का भ्रम पाले रखता है.

उपहार अग्निकांड में दिल्ली की एक कोर्ट ने कल जो फैसला दिया है, उसने आम इंसान के भीतर एक बार फिर से न्यायपालिका के प्रति इस भरोसे को और ज्यादा मजबूत किया है कि न्याय न कभी बिकता है, न झुकता है और न ही किसी से डरता है. कोर्ट ने उपहार सिनेमा के मालिकों सुशील अंसल और गोपाल अंसल को सबूतों से छेड़छाड़ के मामले में सात साल की कैद की सजा सुनाई है. इसके साथ ही कोर्ट ने दोनों पर ढ़ाई ढ़ाई करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया. पिछले कुछ सालों में आये विभिन्नअदालती फैसलों पर गौर करें, तो इसे न सिर्फ एक साहसिक फैसला बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता की एक बड़ी मिसाल भी समझा जायेगा. वह इसलिये कि ये फैसला एक निचली अदालत की तरफ से आया है, जो अक्सर ऐसे सख्त फैसले देने से थोड़ा परहेज़ ही करती हैं.जाहिर है कि अंसल बंधुओं के पास इस निर्णय के खिलाफ ऊपरी अदालतों में जाने का अधिकार है लेकिन अक्सर जब तमाम साक्ष्यों के आधार पर ऐसा कठोर फैसला दिया जाता है, तो उसमें दोषियों को ऊपरी अदालतों से कोई राहत मिलने की गुंजाइश बहुत कम ही होती है.

लेकिन सच ये भी है कि इस अग्निकांड ने तब दिल्ली के सरकारी सिस्टम की पूरी तरह से पोल खोलकर रख दी थी कि पैसे के बल पर आप हर तरह का लाइसेंस पा सकते हैं. उपहार के मालिकों ने अपने सिनेमा हॉल में फायर सैफ्टी के कोई माकूल इंतजाम नहीं किए हुए थे लेकिन उसके बावजूद उन्होंने फायर डिपार्टमेंट का लाइसेंस हासिल कर रखा था. जरा सोचिए कि जिस संकरे रास्ते में दमकल की एक गाड़ी भी न घुस पाए, वहां एक सिनेमा हॉल को चलाने का लाइसेंस देने का मतलब है कि उसे हमारे सिस्टम ने एक तरह से लोगों की हत्या करने का लाइसेंस दे रखा था.

राजधानी को दहलाने वाले इस अग्निकांड के होने और फिर हाइकोर्ट की फटकार खाने के बाद दिल्ली सरकार और पुलिस को होश आया था कि सिनेमा हॉल और अन्य सार्वजनकि प्रतिष्ठानों को लाइसेंस देने के नियमों को और कड़ा बनाया जाए. बनाए भी गए लेकिन कहते हैं कि हर नियम तोड़ने के लिए ही बनता है. राजधानी में आज भी ऐसे अनेकों नर्सिंग होम और होटल बेख़ौफ होकर चल रहे हैं,जिन्हें कानूनन फायर सेफ्टी का लाइसेंस मिल ही नहीं सकता लेकिन माया मोहिनी की ताकत पर उनके संचालकों ने इसे हासिल किया हुआ है.दुआ कीजिये कि उपहार जैसा कोई और मंज़र हमें दोबारा देखने को न मिले

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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