ब्लॉग: क्या मुसलमानों में हिंदुओं के मुकाबले तलाक़ की दर कम है? ये आंकड़ा ग़लत है

एक साथ तीन तलाक़ के मुद्दे पर देश भर में चल रही बहस पर आंकड़ों की जंग भारी पड़ने लगी है. कुछ दिन पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की महिला विंग ने देश के आठ शहरों में तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी के आंकड़े पेश करके दावा किया कि मुस्लिम समाज से ज्यादा तलाक़ हिंदू समाज में होता है. बगैर सच्चाई जाने कई टीवी चैनलों ने इसे दिखाया और कई अखबारों ने भी छापा.
अब ज़रा इन आंकड़ों की सच्चाई को परखते हैं. तीन तलाक़ के पौरोकारों की तरफ से जो आंकड़े पेश किए जा रहें हैं उसमें देश के सिर्फ आठ शहरों की कुल महिलाओं और उनमें तलाक़शुदा महिलाओं के आंकड़े हैं. ये शहर हैं केरल के कन्नूर, मल्लपुरमस, एर्नाकुलम और पलक्कम, आंध्र प्रदेश के गुंटूर, तेलंगाना के करीम नगर, हैदराबाद से सटे सिकंदराबाद और महाराष्ट्र का नासिक.
आरटीआई से हासिल किए इन आंकड़ों के मुताबिक 2011 से 2015 के बीच इन आठ शहरों में 16,505 हिंदू महिलाएं तलाक़शुदा हैं जबकि कुल 1,307 मुस्लिम महिलाएं तलाक़शुदा हैं. इनके अलावा ईसाई तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी 4,827 और सिख तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी कुल 8 है. इन आठ शहरों के आधार पर देश भर में तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी का सही आंकड़ा नहीं निकाला जा सकता. इस संदर्भ में इन आंकड़ों का ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है. देशभर में खुद को मुसलमानों का मसीहा साबित करने में जुटे असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही आंकड़ा ट्वीट करके इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की.
किस समुदाय में तलाक ज्यादा हैं?

मुस्लिम समाज में हिंदू समाज के मुक़ाबले तलाक़ कम होती हैं ये साबित करने के लिए एक और आंकड़ा पेश किया जा रहा है. इसके मुताबिक हिदू समाज में तलाक़ का प्रतिशत 5.5 और मुसलमानों में 4.8 है. दावा किया जा रही है कि ये देशभर की फैमिली कोर्ट के आंकड़े हैं. सच्चाई ये है कि ये आंकड़े 2011 की जनगणना के अलग-अलग समाज के लोगों की वैवाहिक स्थिति को दर्शाते हैं. इन आंकड़ें को भी को ग़लत तरीके से पेश किया जा रहा है. सच है कि इस आंकड़े के मुताबिक 5.5 हिंदू जोड़े बगैर तलाक के अलग रहते हैं. जबकि 1.8 प्रतिशत का तलाक़ हुआ है. मुस्लमि समाज में बगैर तलाक के अलग रहने वाले जोड़ों का प्रतिशत 4.8 और तलाक़ का 3.4 प्रतिशत है. ईसाई समुदाय में ये आंकड़ा सबसे ज्यादा 9.4 और 3.9 प्रतिशत है. वहीं बौद्ध समुदाय में 9.5 और 4.3 प्रतिशत है. सिख समुदाय में 4.2 और 2.8 प्रतिशत है. जैन समुदाय में ये आंकड़ा सबसे कम 3.1 और 2.8 प्रतिशत है. यानि ये दावा पूरी तरह से ग़लत है कि मुस्लिम समुदाय के मुक़ाबले हिदू समाज में तलाक़ ज्याद होती है. धार्मिक समुदायों में सिर्फ़ बौद्ध और ईसाई समुदायों में तलाक का प्रतिशत मुसलमानों से ज्यादा है.
लाकशुदा महिलाओं की स्थिति
ब्लॉग: 'तीन तलाक़' पर पाबंदी की पहल खुद मुसलमानों की तरफ से होनी चाहिए
लाकशुदा महिलाओं की स्थिति पर गौर करने के लिए हमें 2011 की जनगाणना के आंकड़ों पर दूसरे नज़रिए से नज़र डालनी होगी. पिछले साल जारी किए गए 2011 की जनगाणना के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में प्रति एक लाख पुरुषों में औसतन 1580 तलाक़शुदा हैं. प्रति एक लाख मुस्लिम पुरुषों में 1590 तलाकशुदा हैं. जबकि हिंदू पुरुषों में ये आंकड़ा 1470 है. अगर महिलाओं की बात की जाए तो देश में प्रति एक लाख महिलाओं में से औसतन 3100 महिलाएं तलाकशुदा हैं. इनमें बग़ैर तलाक़ के छोड़ी हुई महिलाएं भी शामिल हैं. मुस्लिम महिलाओं में प्रति एक लाख में 5630 महिलाएं तलाकशुदा हैं. जबकि हिंदू महिलाओं में ये आंकड़ा 2600 ही है. मुस्लिम समाज में तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी तलाक़शुदा पुरुषों के मुक़ाबले 3.5 गुना ज़्यादा है. इससे साफ ज़ाहिर है कि तलाक़ के बाद ज़्यादातर पुरुष दूसरी शादी कर लेते हैं जबकि तलाकशुदा महिलाओं की दूसरी शादी नहीं हो पाती.
मुस्लिम समाज में तलाक़शुदा महिलाओं की हालत
आज ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड एक साथ तीन तलाक़ देने वालों के सामाजिक बहिष्कार की बात कर रहा है लेकिन सच्चाई ये है कि समाज में तलाकशुदा औरतों का ही बहिष्कार हो रहा है.
मुस्लिम समाज में तलाक़शुदा महिलाओं की हालत का अंदाज़ा 2011 की जनगणना के एक दूसरे आंकड़े से भी लगाया जा सकता है. देश भर में तलाक़शुदा महिलाओं की आबादी में सबसे ज्यादा 39 फीसदी 20 से 34 साल की उम्र की हैं. मुस्लिम समुदाय में इस उम्र सीमा की सबसे ज्यादा तलाकशुदा महिलाएं हैं.
मुस्लिम मे कुल तलाक़शुदा महिलाओं में 43.9 फीसदी महिलाएं 20 से 34 साल की उम्र की हैं. जबकि इसी उम्र सीमा में सिख समुदाय में 43.2 फीसदी, बौद्ध समुदाय में 40 फीसदी, हिंदू समाज में 37.6, ईसाई समाज में 33.5 फीसदी और जैन समीज में 25.5 फीसदी महिलाए हैं. तलाकशुदा महिलाओं में 19 साल से कम उम्र वाली महिलाएं 3.2 फीसदी हैं. इसमें भी मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 3.9 फीसदी है.

देश भर की तलाकशुदा महिलाओं में 37.6 फीसदी महिलाएं 35 से 49 साल की है. इस उम्र की तलाकशुदा महिलाओं का प्रतिशत सबसे ज्यादा जैन समुदाय में 42.6, उसके बाद ईसाई समुदाय में 39.1, बैद्ध समुदाय में 38.5, हिंदू समाज में 38.2, मुस्लिम समाज में 35.6 और सबसे कम सिखों में 34.3 है. तलाक़शुदा महिलाओं में 50 से 69 साल की उम्र वाली और 70 साल से अधिक उम्र वाली महिलाओं मुस्लिम महिलाओं का प्रतिशत जरूर सबसे कम है. तलाक़शुदा महिलाओं में 50 से 69 महिलाओं का औसत 16.9 है. इस उम्र सीमा में मुस्लिम समुदाय की औरतों का प्रतिशत सबसे कम 14.1 है. सिखों में ये आंकड़ा 15.6, बौद्धों में 15.5, हिंदुओं में 17.6, ईसाइयों में 21.4 और जैनियों में सबसे ज्यादा 24.1 प्रतिशत है. सत्तर साल से ज्यादा तलाकशुदा महिलाओं का राष्ट्रीय औसत 2.9 है. इस उम्र में जैन समुदाय की तलाकशुदा महिलाओं की संख्या 5.1 प्रतिशत है, तो ईसाई समुदाय में यह आंकड़ा 4.2, सिख समुदाय में 3.6, बौद्ध समुदाय में 2.8, हिंदू समाज में 3.0 तो सबसे सकम मुस्लिम समाज में 2.1 प्रतिशत है.
गौरतलब है कि मुस्लिम समाज में महिलाओं का जीवन प्रत्याशा सबसे कम है. यानि 70 की उम्र आते आते ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं की मृत्यु हो जाती है.
गलत दिशा में मोड़ी जा रही है बहस
ब्लॉग: क्रिकेटर मोहम्मद शमी के पीछे 'मुल्ला' की फौज है 'अल्लाह' की नहीं
हालांकि जनगणना के आंकड़े तीन तलाक़ के पक्षकारों के इस दावे की पुष्टि ज़रूर करते हैं कि ईसाई, सिख, बैद्ध और जैन समुदायों में हिंदू और मुस्लिम समाज के मुक़ाबले तलाक़ ज्यादा होता है. लेकिन यहां सवाल ये है ही नहीं कि किस समाज में कितना तलाक हो रहा है. यहां तो सवाल सिर्फ इतना है कि मुस्लिम समाज में एक साथ तीन तलाक की प्रथा जारी रहनी चाहिए या इसे बंद कर देना चाहिए. ये सवाल भी इस लिए खड़ा हुआ है क्योंकि एक साथ तीन तलाक़ की शिकार हुईं कई मुस्लिम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा कर अपने लिए इंसाफ मांगा है.
हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई समुदाय में तलाक़ अदालत के माध्यम से ही हो सकता है लिहाज़ा इन समुदायों में तलाक़ पर इतना बवाल नहीं मचता. मुस्लिम समाज में मौखिक तलाक़ की मान्यता है और इसी का चलन है. लिहाज़ा जब कोई महिला इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाकर इसे ख़त्म करने की मांग करती है तो उसे मीडिया में तवज्जो भी मिलती है. मुसलमानों को इस मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दुष्प्रचार में नहीं आकर अपनी बुद्धि और विवेक से काम लेना चाहिए.
ट्रेंडिंग न्यूज
टॉप हेडलाइंस



























