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Opinion: मंदिरों-मठों पर स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान बेतुका, अपनी तुच्छ राजनीति के लिए कर रहे इतिहास से खिलवाड़

समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के तेवर तल्ख हैं. उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे पर बयान दिया है. उन्होंने कहा कि अगर हरेक मंदिर के नीचे मस्जिद खोजी गयी, तो हरेक मंदिर के नीचे तो बौद्ध मठ मिलेंगे, इसलिए यह करना नहीं चाहिए. हालांकि, उन्होंने इस सूची में बद्रीनाथ, रामेश्वरम् और जगन्नाथपुरी के मंदिरों को भी समेट लिया. वैसे, उनके बयान के विरोध में भी काफी बयान आए हैं और इस पर एक नया विवाद खड़ा हो गया है.

यह बयान बेतुका और राजनीति के लिए

स्वामी प्रसाद मौर्य ने मठों और मंदिरों को लेकर जो बयान दिया है वह पूरी तरह भ्रामक और असत्य है. इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनायी गयी हैं. यह कहना कि मंदिरों की खुदाई करने पर उनके तले से बौद्ध मठ मिलेंगे या पूरी तरह राजनीतिक बयान है. यहां जिन मंदिरों की बात हो रही है यह तो छठी शताब्दी पूर्व के हैं. बौद्ध मत का तो आविर्भाव ही उसके बाद का है.  विश्व प्रसिद्ध विद्यालय तक्षशिला की अगर बात करें तो वहां भी हिंदू धर्म से संबंधित पढ़ाई ज्यादा होती थी बाद में भले ही वह बौद्ध धर्म की भी पढ़ाई होने लगी. इस तरह की जो बातें होती हैं वह केवल नफरत फैलाने के लिए और उनमें कोई तथ्य नहीं है.  इस तरह के बयानों से नेताओं को बचना चाहिए. शास्त्रों और पुराणों की बात अगर हम जाने भी दें,  तो कई यात्रा वृतांत ऐसे हैं जिनमें इन मंदिरों का उल्लेख मिलता है. हमें पता चलता है कि यह मंदिर बहुत पुराने समय से मौजूद हैं.  जहां तक बद्रीनाथ पुरी या रामेश्वरम की बात है तो यह हिंदुओं के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में शामिल हैं.  इनमें से कुछ तो चार- धाम यात्रा में आते हैं जो किसी सनातनी या हिंदू के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है.

बद्रीनाथ के बारे में तो कई विदेशी यात्रियों ने उल्लेख किया है उन्होंने बताया है कि इसके मेंटेनेंस के लिए काफी रुपया पैसा उस समय के राजा दिया करते थे. फ्रांसिस्को दे वेनजो नाम का एक पुर्तगाली यात्री था जो बद्रीनाथ के रास्ते ले गया था और उसने यह वृत्तांत की 11वीं शताब्दी में लिखा था. हालांकि उसके पहले के भी कई रिकॉर्ड हमें बताते हैं कि बद्रीनाथ का मंदिर कितना प्राचीन है. राजा के द्वारा गांव अनुदान में दिए जाते थे, दान में दिए जाते थे ताकि मंदिर का खर्च चले. जो कुछ नहीं दे पाता था. न भूमि, न पैसा वह श्रमदान करते थे. हमारे यहां यह परंपरा रही है मंदिरों का स्कूलों का रखरखाव समाज खुद करता था और मंदिर केवल पूजा पाठ की जगह नहीं है बल्कि वह सामाजिक कार्यों का केंद्र भी हुआ करते थे. उसमें राज्य का बहुत कम हस्तक्षेप होता था.

मंदिरों की प्राचीनता के कई प्रमाण

ऐसे मंदिरों की प्राचीनता का पता लगाने का एक और जरिया है. अगर हम इनकी निर्माण शैली देखें, चट्टानों की जो कसावट है, जो बुनावट है, वह देखें तो हमें पता चलता है कि मंदिर किस शैली में बना और किस समय का हो सकता है. उस समय भारत में तीन तरह की मंदिरों के निर्माण की शैलियां थी और वह शैलियां थी नागर शैली देशराज शैली और द्रविड़ शैली. तो, मंदिर में जिस तरह के पत्थर लगे हैं जिस तरह काटे गए हैं जिस शैली का इस्तेमाल हुआ है उनको अगर ध्यान से देखा जाए तो बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके से मंदिरों के निर्माण का समय पता चलता है और वह बुद्ध के बाद का तो नहीं. हमारे शास्त्रों और पुराणों में भी इसका उल्लेख है भले ही उन्हें मिथक करार दिया जाता है. इसके अलावा एक जरिया होता है जनश्रुति का, यानी जनता में जो कथाएं प्रेरित प्रचारित हो, वैसी कथाओं के जरिए भी हमें पता चलता है. जहां तक बद्रीनाथ का सवाल है, तो कथा है कि जब नारायण ध्यान में थे तो वहां बहुत बर्फबारी हुई और तब लक्ष्मी ने बद्री नामक पौधे का रूप लेकर बर्बादी को रोका था.  तभी नारायण ने उन्हें वरदान दिया था कि आज से बद्रीनारायण के रूप में जाने जाएंगे.  इतिहास के स्रोत के जरिए या फिर आप चाहे जिस किसी जरिए से जाएं, मंदिरों की प्राचीन और वैभवशाली अतीत की ही कहानियां पता चलेंगी. वहां की मूर्ति तो शंकराचार्य से पहले भी थी. शंकराचार्य को दृष्टि मिली और उन्होंने इस मूर्ति को स्थापित किया. इसी तरह हमें तीर्थ यात्रा कर का पता चलता है. दस्तावेजों में भी इसका उल्लेख है. अकबर के समय भी हिंदुओं को अपने तीर्थ स्थलों की यात्रा करने के लिए टैक्स देना पड़ता था और उस समय भी इन मंदिरों का जिक्र है. 

नालंदा को जलाया बख्तियार ने 

नालंदा के बारे में कहीं कोई दो राय नहीं है कि 11 से 99 में  बख्तियार खिलजी ने इसे थोड़ा था और उसकी लाइब्रेरी को जला दिया था.  इसके लाइब्रेरी बहुत भव्य और समृद्ध थी.  उस समय यहां अलग-अलग देशों से विद्यार्थी आते थे.  आज हम  आज हम जिन देशों में बौद्ध धर्म की बहुत कुछ देखते हैं वहां के भी विद्यार्थी यहां पढ़ने आते थे.  खासकर चीन के विद्यार्थी तो बड़ी संख्या में आते हैं. Annales of Tang dynasty नाम की एक किताब है, जिसमें यह जिक्र है कि चीन के यात्री खासतौर से दो कारणों से यहां आते थे. नालंदा और तक्षशिला. अगर विद्यार्थी थे तो पढ़ने आते थे और अगर विद्वान थे तो अपनी चीज पर मुहर लगवाने, उसे सत्यापित करवाने आते थे कि उन्होंने यह विषय पड़ा है या उन्होंने इस पर यह सोचा है वह दिखाएं. उसी तरह बौद्ध, जैन, सिख और हिंदुओं में यह डिविजन भी बहुत नहीं था. गुरु गोविंदसिंह ने यह व्यवस्था की थी कि  पंजाब में जो हिंदू परिवार का बड़ा लड़का रहेगा, वह सिख बनेगा, कृपाणधारी बनेगा. बीते तीन-चार दशकों में यह भेद आया है. हमें यह समझना चाहिए कि हिंदुत्व अगर जड़ है तो बौद्ध, जैन और सिख उस विशाल वृक्ष की शाखाएं हैं. इसीलिए, सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता तो जहरीला बयान देकर छुट्टी पाते हैं, लेकिन इससे सामाजिक ताना-बाना बिगड़ता है, तो उनको भी सावधानी से बोलना चाहिए. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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