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BLOG: शर्मनाक है ‘तीन तलाक़’ पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ज़िद!

तीन तलाक़ के मुद्दे पर केंद्र सरकार और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच तल्ख़ी बढ़ती जा रही है. लखनऊ में दो दिन चली ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक के बाद बोर्ड ने एक बार फिर दोहराया है कि पर्सनल लॉ या शरीयत में किसी भी तरह की सरकारी या सुप्रीम कोर्ट की दख़अंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी.

हलांकि बोर्ड ने यह साफ़ नहीं किया है कि अगर सरकार या सुप्रीम कोर्ट दखल देकर तीन तलाक पर पाबंदी लगाता है तो बोर्ड क्या करेगा..? वहीं भुवनेश्वर में दो दिन चली बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समापन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन तलाक़ के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रही नाइंसाफी को दूर करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है. साफ है कि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आर-पार के मूड में आ गए हैं.

बहरहाल एक अच्छी ख़बर यह है कि बोर्ड ने मुसलमानों से बेवजह एक साथ तीन तलाक़ नहीं देने की अपील की है. साथ ही मुस्लिम समाज से ऐसा करने वालों का सामाजिक बहिष्कार और तलाक़ पीड़िता की मदद करने की भी अपील की गई है. यहां सवाल पैदा होता है कि मुस्लिम समाज से यह अपील करने में बोर्ड को इतना वक़्त क्यों लगा. दूसरी बात ये है कि जब इस्लाम में बेवजह तलाक़ है ही नहीं तो ऐसी तलाक़ को मान्यता कैसे दी जा सकती है. इस्लाम में हर काम का दारोमदार नीयत पर है. फिर तलाक़ के मामले में शरीयत नीयत को क्यों नहीं मानती.

बोर्ड जिन क़ानूनों को शरीयत को रूप में मान्यता देता है उनमें साफ़ लिखा है कि कि अगर कोई शौहर अपनी बीवी को तलाक़ बोल दे तो उसे तलाक हो जाती है. चाहे तलाक़ देने की उसकी नीयत हो या न हो. हंसी मज़ाक़ में भी तलाक़ बोलने पर तलाक़ हो जाएगी. इतना ही नहीं जितनी बार तलाक़ कहा जाएगा उतनी बार तलाक़ हो जाएगी. इसी शरीयत के आधार पर दारुल उलूम देवबंद ने ऐसे भी फ़तवे दिए है कि अगर शौहर के मोबाइल से बीवी के मोबाइल पर तलाक़, तलाक, तलाक़ का मैसेज भेज दिया जाए तो उनका तलाक हो जाएगा. चाहे मैसेज ग़लती से ही भेज दिया गया हो या फिर पति की जगह किसी और ने मैसेज भेज दिया हो. ऐसे क़ानून मुस्लिम समाज कौन सा भला कर रहे हैं ये किसी से छिपा नहीं है.

हदीसों से साबित है कि पैगंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद (सअव) ने एक साथ तीन तलाक़ को तीन नहीं माना. बल्कि उन्होंने इसे एक ही माना. उनके सामने एक साथ तीन तलाक़ के दो मामले सामने आए. एक में उन्होंने तीन तलाक़ देने वाले सहाबी से कहा तुम्हारा एक ही तलाक़ हुआ है. तुम चाहो तो अपनी बीवी को अपने पास बुला सकते हो. दूसरे मामले में जब मुहम्मद (सअव) को एक सहाबी ने बताया कि एक शख़्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाक़ दे दी हैं. इस पर उन्होंने बहुत ग़ुस्सा किया. उनके ग़ुस्से को देख कर एक सहाबी ने उनसे तीन तलाक़ देने वाले को क़त्ल करने की इजाज़त मांगी थी. इससे साबित होता है कि एक साथ तीन तलाक बोलने को मुहम्मद (सअव) अच्छा नहीं मानते थे. इसे वे एक ही तलाक़ मानते थे. यानि इस तलाक़ के बाद पति-पत्नी आपस में समझौता करके साथ रह सकते थे. हदीसों मे इस दलील के बावजूद बोर्ड एक साथ तीन तलाक़ को तीन ही मानने का ज़िद पर कैसे अड़ा रह सकता है.

पहले ख़लीफ़ा हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ के दौर-ए-ख़िलाफ़त में भी एक साथ दी गई तीन तलाक़ को एक ही माना जाता था. दूसरे ख़लीफा हज़रत उमर की ख़िलाफत के पहले दो साल में भी यही क़ानून था. कहा जाता है कि हज़रत उमर ने जब देखा कि लोगों में एक साथ तीन तलाक़ का चलन बढ़ गया है तो पहले उन्होंने तीन तलाक़ को तीन ही मान लेने की चेतावनी दी और फिर इसे लागू कर दिया.

सही मुस्लिम शरीफ़ की हदीस न. 1491 और 1492 में इसका ज़िक्र है. कहा ये भी जाता है कि कि बाद में हज़रत उमर ने एक साथ दी गई तीन तलाक़ को तीन मानने का अपना फ़ैसला वापस ले लिया था. इसका ज़िक्र सही मुस्लिम शरीफ के पुराने संस्करण की हदीस न. 1493 में था लेकिन अब उपलब्ध संसकरण में ये हदीस नहीं है. जाहिर है तीन तलाक़ के खेल को जारी रखने और इसके बहाने हलाला की लानत को मुस्लिम समाज पर थोंपने की नीयत से ऐसा किया गया होगा.

बोर्ड की ये दलील तर्क संगत नहीं है कि शरीयत क़ुरआन के सिद्धांतों पर आधारित है, लिहाज़ा इसमें किसी तरह का बदलाव नहीं हो सकता. दरअसल मुसलमानों को जिन क़ानूनों पर अमल कराया जा रहा है उन्हें बोर्ड ने गढ़ा है. बोर्ड की तरफ से 2001 में तैयार की गई किताब 'मजमुआ-ए-क़वानीन' अर्थात क़ानूनों का संकलन में ये क़ानून मौजूद है. बोर्ड की तरफ से देश भर में बनाए गए दारुल कज़ा यानि शरई अदालतों में इन्ही क़ानूनों के हिसाब से मुसलमानों के निजी मामलों में फैसले होते हैं. इस किताब में कुल 529 धाराएं हैं.

इसे अल्लाह ने नहीं लिखा है बल्कि इसे बोर्ड से जुड़े उलेमा ने तैयार है. इसे लिखने में कई जगहों पर कुरआन और सुन्नत की साफ़ तौर पर अनदेखी की गई है. ख़ासकर तलाक़ से जुड़ी ज़यादातर धाराएं क़ुरआन की मूल भावना से मेल नहीं खाती. इनमें से कुछ धाराएं तो कुरआन की मूल भावना के एकदम खिलाफ़ भी हैं. जब इन अदालतों में तलाक़ पीड़ितो को इंसाफ नहीं मिलता तो वो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने को मजबूर होतीं हैं. बोर्ड से जुड़े तमाम उलमा इस हक़ीक़त से वाक़िफ हैं लेकिन उनकी ज़ुबान पर ताला लगा हुआ है.

अगर समाज में तलाक़ को खेल बनाने से रोकने के लिए हज़रत उमर ने पहले एक साथ दी गई तीन तलाक़ को तीन मानने का फ़ैसाल किया और बाद में उसे पलट कर फिर एक ही मानने का हुक्म सुनाया तो अब ऐसा क्यों नहीं हो सकता. हज़रत उमर का फैसला कोई पत्थर की लकीर तो है नहीं. मुसलमानों के लिए पत्थर की लकीर तो कुरआन के आदेश और महम्मद (सअव) की सुन्नत होनी चाहिए. ये इतनी सी बात ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को समझ में क्यों नहीं आती. बोर्ड बार-बार केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट से कह रहा है कि शरीयत में कोई दखलंदाज़ी न करें. बोर्ड यह क्यो नहीं कहता कि वो ख़ुद ही इस मामले में मुस्लिम महिलाओं की समस्याएं सुलझाने की दिशा में उलमा-ए-दीन के साथ विचार विमर्श करके कोई क़दम उठाएगा. बोर्ड अगर ख़ुद को देश भर मुसलमानों के प्रतिनिधि को तौर पर पेश करता है तो उनकी समस्याए सुलझाने की ज़िम्मेदारी भी उसी पर आती है. अगर बोर्ड ये ज़िम्मेदारी सही से निभा रहा होता तो पहले बरेलवी मसलक के लोग, फिर शिया और महिलाएं अपना पर्सनल लॉ बोर्ड नहीं बनाते.

बोर्ड के अड़ियल रुख़ को केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट को तीन तलाक पर कोई कड़ा फैसला लेने पर मजबूर कर सकता है. उसके बाद जो होगा उसके लिए बोर्ड ख़ुद ही ज़िम्मेदार होगा. लखनऊ बैठक से कुछ ही दिन पहले बोर्ड के एक प्रतिनिधि मंडल ने विधि आयोग के चेयरमैन बलबीर चौहान से मुलाक़ात करके देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की केंद्र सरकार की कोशिशों का विरोध किया है. बोर्ड ने आयोग को बताया कि देश भर के क़रीब पांच करोड़ मुसलमानों ने हस्ताक्षर करके मौजूदा शरीयत को ही जारी रखने के हक़ में अपन राय दी है. इस हस्ताक्षर अभियान में कऱीब पौने तीन करोड़ मुस्लिम महिलाओं ने भी हिस्सा लिया है. बोर्ड ने हस्ताक्षर करने वाले सभी लोगों के नाम पते और मोबाइल नंबरों वाले दस्तावेज़ की स्कैन कॉपी आयोग को सौंपी और साथ ही हार्ड डिस्क में सारा डाटा उपलब्ध कराया. बोर्ड ने आयोग से कहा कि देश के मुसलमान शरीयत से संतुष्ट हैं और वो इसमें केंद्र सरकार या सुप्रीम कोर्ट की दख़लअंदाज़ी नहीं चाहते. इसका मतलब तो यह होना चाहिए कि इसमें कोई सुधार करना होगा तो बोर्ड खुद कर लेगा.

ग़ौरतलब है कि बोर्ड ने कभी यह नहीं कहा कि वो समस्या के समाधान के लिए कोई पहल करेगा. उल्टे वो मुसलमानों से अपील कर रहा है. ऐसी अपीलें तो वो 1973 में अपने वजूद मे आने के बाद से ही कर रहा है. अगर उसकी अपील का असर तो अब तक मुस्लिम समाज में काफी सुधार आ चुका होता. ज़रूरत अपील की नहीं बल्कि सुधारात्मक क़दम उठाने की है. अगर तीन अगर हज़रत मुहम्मद (सअव) की सुनन्त पर अमल करते हुए अगर तीन तलाक़ को एक ही माना जाए तो इससे वो जोड़े अलग होने से बच जाएंगे जिनका तलाक़ ग़ुस्से में, नशे में, ग़लती से, मज़ाक में या बेसोचे समझे हुआ है. ऐसे मामलों में तलाक़ के बाद पछताने वाले लोगों को अपनी पत्नियों को फिर से साथ रखने के लिए हलाले की लानत से नहीं गुज़ारना पड़ेगा. जिसकी नीयत ही पत्नी से अलग होने की होगी वो ढह महीने और इंतेज़ार कर लेगा. आख़िर इतन जल्दबाज़ी क्यों...? तीन तलाक के खिलाफ़ मुहिम चला रहे महिला संगठन भी यही चाहते हैं. आखिर इसमें हर्ज ही क्या है. ज्यादातर मुस्लिम देशों में तलाक़ को लेकर ऐसा ही चलन है. ये मांग ऐस नहीं है जिसे ग़ैर इस्लामी या ग़ैर शरई कहा जाए.

अफ़सोस की बात ये है कि बोर्ड महिलाओं के आवाज़ सुनना ही नही चाहता. उसके सही या ग़लत होने का सवाल तो बाद में आएगा. बोर्ड ने तीन तलाक़ के मौजूदा चलन को ख़त्म करने की मांग करने वाली औरतों के आंदोलन के ख़िलाफ़ अपनी सोच वाली महिलाओं को मैदान में उतार दिया है. बोर्ड ऐसा कोई भरोसा नहीं दे रहा कि वो तीन तलाक़ को ख़त्म करने की मुस्लिम महिलाओं की मांग पर विचार करेगा. बोर्ड तो शुरु से ही कह रहा है कि शरीयत अल्लाह का क़ानून है और इसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता.

सुप्रीम कोर्ट में दिए गए अपने हलफ़नामे में तो उसने यहां तक कह दिया है कि शरीयत में बदलाव कुरआन को दोबारा लिखने जैसा क़दम होगा. हालांकि कुछ दिन पहले ही बोर्ड के उपाध्यक्ष और शिया धर्मगुरू डॉ. कल्बे सादिक़ ने कहा था कि अगर केंद्र सरकार दख़ल न दे तो बोर्ड अगले डेढ़ साल में तीन तलाक़ को खुद ही ख़त्म कर देगा. लेकिन बोर्ड में उनकी ये अपील नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई है. क़ुरआन और गदीस की रोशनी मे देखें तो एक साथ दी गई तीन तलाक को तीन ही मानने की ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल़ लॉ बोर्ड की ज़िद शर्मनाक है. इसका कोई ठोस आधार नहीं है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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