पहले देश से निकाला, फिर संसद में बिठाया और अब सिखों के लिए लड़ाई... कनाडा में खालिस्तान का अड्डा बनने की A से Z तक पूरी कहानी
अब कनाडा में हर वैशाखी पर करीब एक लाख पगड़ीधारी सिख एक जगह इकट्ठा होते हैं, तो कनाडा के नेता उनके खिलाफ इसलिए नहीं बोलते हैं कि वो उनके संभावित वोटर हैं.
खालिस्तान की आवाज या तो भारत में सुनाई देती है या फिर कनाडा में. जो खालिस्तान है, वो असल मुद्दा है भारत का, लेकिन इसकी जंग लड़ी जा रही है कनाडा में. अभी भारत कनाडा के रिश्तों के बीच जो दुश्मनी हुई है, उसकी भी इकलौती वजह है खालिस्तान. तो आखिर जिस खालिस्तान का भारतीय इतिहास इतने खून-खराबे से भरा पड़ा है, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की हत्या हो चुकी है, उसकी जड़ें कनाडा तक कैसे पहुंचीं और आखिर अब ऐसा क्या हुआ है कि पूरी दुनिया में कनाडा ही ऐसा मुल्क बन गया है, जहां खालिस्तान ने अपना अड्डा जमा लिया है, आज उस पर विस्तार से बात करते हैं-
वो साल था 1897. तब क्विन विक्टोरिया की डायमंड जुबली थी. उस डायमंड जुबली समारोह को मनाने के लिए दुनिया भर से लोग वैंकूवर पहुंचे थे. इन्हीं में एक थी अंग्रेजी सेना की 25वीं कैवलरी फ्रंटियर फोर्स जो हॉन्ग कॉन्ग रेजीमेंट का हिस्सा थी. इसमें भारतीय सिपाहियों के अलावा चीन और जापान के भी सैनिक शामिल थे. इसी टुकड़ी का हिस्सा थे रिसालदार मेजर केसर सिंह, जो टुकड़ी के साथ कनाडा के वैंकुवर पहुंचे थे. केसर सिंह को ही भारत का पहला ऐसा सिख माना जाता है, जो कनाडा पहुंचे थे.
इसके बाद साल 1900 के शुरुआती दिनों में मजदूरों और कामगार सिखों का एक जत्था कनाडा के वैंकुवर और ओनटारियो पहुंचा. इनकी संख्या करीब 5 हजार की थी, जो काम की तलाश में कनाडा पहुंचे थे. इनका कनाडा में बसने का तब कोई इरादा नहीं था. वो सिर्फ इसलिए गए थे कि चार-पांच साल वहां काम करें, पैसे इकट्ठे करें और फिर भारत वापस आ जाएं. अब भारत से जो सिख कनाडा गए, उनको काम तो आसानी से मिल गया, लेकिन दिक्कत तब शुरू हुई, जब स्थानीय नागरिकों ने विरोध शुरू किया कि भारत से आए इन लोगों की वजह से कनाडा के स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिल रहा है. बाकी तो रहन-सहन और परिवेश को लेकर भी भारतीय सिखों को कनाडा में मुश्किल हो ही रही थी.
तो कनाडा में थोड़ी सख्ती शुरू हुई और नतीजा ये हुआ कि 1906 तक जहां हर साल करीब 2500 भारतीय सिख कनाडा जा रहे थे. वो 1907-08 में महज दर्जन भर ही रह गए. हालांकि, जो भारतीय सिख कनाडा में पहुंच गए थे, उन्होंने हार नहीं मानी और अपने तईं हर मुमकिन कोशिश करते रहे कि वो कनाडा में खुद को मजबूती के साथ बनाए रखें. इसी कोशिश के तहत तमाम विरोधों को दरकिनार कर 19 जनवरी, 1908 को कनाडा में सिखों ने पहला सार्वजनिक कीर्तन आयोजित किया. हालांकि, तब भारत से कनाडा जो भी लोग गए थे, उनमें महिलाएं और बच्चे शामिल नहीं थे, लेकिन बलवंत सिंह को जब कनाडा जाना था, तो उनकी पत्नी करतार गर्भवती थीं. उन्होंने पत्नी को भी साथ ले जाने की इजाजत मांगी और दलील दी कि उनकी पत्नी की देखभाल करने वाला कोई नहीं है. तो उन्हें पत्नी को भी साथ ले जाने की इजाजत मिल गई. इस तरह से बलवंत सिंह और करतार का जो बच्चा हुआ, वो कनाडा में हुआ और उसका नाम रखा गया हरदयाल सिंह. 28 अगस्त, 1912 को पैदा हुए हरदयाल सिंह को कनाडा में पैदा पहला सिख माना जाता है.
इस बीच तारीख आई 23 मई, 1914. इस दिन कोमागाटा मारू नाम का एक जापानी जहाज कनाडा के वैंकुवर पहुंचा, जिसमें 376 भारतीय भी सवार थे. इनमें भी अधिकांश सिख ही थे. इस जहाज को फंड किया था भारतीय उद्योगपति गुरदीत सिंह संधु ने, लेकिन तब कनाडा ने इस जहाज के लोगों को वैंकुवर में उतरने ही नहीं दिया. करीब दो महीने तक जहाज पर सवार सभी लोग बंधक बने रहे. दो महीने बंधक बनाए रखने के बाद कनाडा ने इस जहाज को वापस एशिया भेज दिया. 23 जुलाई 1914 को जब ये जहाज भारत के कलकत्ता तट पर पहुंचा तो अंग्रेजों को लगा कि जहाज में विद्रोही हैं, जो भारत से अंग्रेजी शासन को उखाड़ना चाहते हैं. दूसरी तरफ जहाज पर बंधक बने लोगों का सब्र भी टूट गया. इसका नतीजा ये हुआ कि अंग्रेजी सेना और जहाज पर सवार लोगों के बीच जंग जैसी स्थिति बन गई. कुल 22 लोग मारे गए.
इसी दौरान पहला विश्वयुद्ध शुरू हो गया तो दुनिया थम सी गई. विश्वयु्द्ध खत्म हुआ तो स्थितियां थोड़ी सी बदलीं. कनाडा ने बच्चों और औरतों को भी बसने की छूट दे दी. सिलसिला चल निकला. फिर दूसरा विश्वयु्द्ध छिड़ा तो भारत से कनाडा जाने का सिलसिला थम गया. आखिरकार जब दूसरा विश्वयुद्ध भी खत्म हो गया तो स्थितियां पूरी तरह से बदल गईं. इसकी एक वजह तो ये थी कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ बन गया और कनाडा उसका सदस्य. तो कनाडा अब किसी दूसरे देश से आए लोगों पर जुल्म नहीं कर सकता था, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार आड़े आ रहे थे. दूसरा ये कि कनाडा को अपनी अर्थव्यस्था को बड़ा करना था, तो उसे सस्ते मजदूर चाहिए थे, जो भारत में हमेशा से मौजूद थे. धीरे-धीरे करके कनाडा में सिखों को वोटिंग का भी अधिकार मिल गया और उनके अधिकार भी कमोबेश कनाडा के स्थानीय लोगों की तरह ही हो गए. 1962 आते-आते भारत से कनाडा गए सिखों को वो सब अधिकार मिल गए, जो एक आम कनाडाई नागरिक के हुआ करते हैं. उसके बाद हुआ ये कि सिखों की आबादी के लिहाज से कनाडा भारत के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मुल्क बन गया. आज की तारीख में कनाडा में करीब 18.6 लाख भारतीय हैं. इनमें भी सिखों की संख्या करीब 7.8 लाख है, जो कनाडा की कुल आबादी का करीब-करीब 2.1 फीसदी है.
अब ये तो हुई कहानी सिखों के कनाडा पहुंचने की, लेकिन असल सवाल का जवाब अब भी बाकी है कि आखिर कनाडा में खालिस्तान कैसे पहुंचा. तो इसकी कहानी शुरू होती है 1971 से. 12 अक्टूबर, 1971 को अमेरिकी अखबार द न्यू यॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. इस विज्ञापन में खालिस्तान को एक अलग देश के तौर पर मान्यता देने की बात हुई थी. इस विज्ञापन को प्रकाशित करवाया था जगजीत सिंह चौहान ने, जो अकाली दल की सरकार में डिप्टी स्पीकर और पंजाब जनता पार्टी के लक्ष्मण सिंह गिल के मुख्यमंत्री बनने के दौरान उनका वित्त मंत्री रहा था. 1969 में विधानसभा का चुनाव हारने के बाद वो ब्रिटेन चला गया था और वहीं से खालिस्तान आंदोलन के लिए कैंपेन शुरू कर दिया था. जब पाकिस्तान के तानाशाह याहिया खान ने देखा कि जगजीत चौहान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है, तो उसने जगजीत सिंह को पाकिस्तान में ननकाना साहिब में बुलाया, जो सिखों की एक पवित्र जगह है. वहां से जगजीत फिर से ब्रिटेन चला गया और उसने खालिस्तान वाला विज्ञापन छपवा दिया, जिसकी वजह से खालिस्तान भारत से निकलकर विदेश तक भी पहुंच गया.
इस बीच भारत कं पंजाब में 1973 में अकाली दल ने आनंदपुरसाहिब रिजॉल्यूशन पास करवा लिया था, जिसका इंदिरा गांधी ने विरोध कर दिया. इसी दौरान 1974 में भारत ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पोखरण में परमाणु परीक्षण भी कर लिया. इसकी वजह से कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो भारत और खास तौर से इंदिरा गांधी से नाराज हो गए. दूसरी तरफ आनंदपुर साहिब रिजॉल्यूशन के खिलाफ इंदिरा गांधी ने सख्ती की तो अकाली दल और उससे जुड़े लोगों ने कनाडा का रुख किया. तब कनाडाई प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो ने ऐसे लोगों को हाथों हाथ लिया और उन्हें अपने देश में शरण दे दी.
अब जो खालिस्तानी भारत में अपनी मांगों को मनवाने में नाकाम रहे थे, वो कनाडा पहुंच गए और कनाडा की सरकार ने इंदिरा गांधी से बदला लेने की नीयत से खालिस्तानियों का समर्थन करना शुरू कर दिया. इसी दौरान 19 नवंबर, 1981 को पंजाब के एक खालिस्तानी आतंकी तलविंदर सिंह परमार ने पंजाब पुलिस के दो जवानों की लुधियाना में हत्या कर दी और कनाडा भाग गया. पियरे ट्रूडो ने उसको राजनीतिक शरण भी दे दी. इंदिरा गांधी ने पियरे ट्रूडो से मिलकर इसकी शिकायत भी की. बताया कि खालिस्तान का समर्थन पियरे ट्रूडो को भारी पड़ सकता है. इंदिरा ने पियरे से ये भी कहा कि वो तलविंदर परमार को भारत को सौंप दें. लेकिन पियरे नहीं माने. और इसकी वजह थी कनाडा में सिख समुदाय की वो बड़ी आबादी, जो अब वोटर भी थी और जिसके एक धड़े का झुकाव खालिस्तान समर्थकों की ओर हो गया था. इसी बीच 26 जनवरी 1982 को एक और खालिस्तानी समर्थक सुरजन सिंह गिल ने कनाडा के वैंकूवर में खालिस्तान गवर्नमेंट इन एक्साइल का ऑफिस खोल दिया. उसने खालिस्तानी पासपोर्ट और करेंसी तक जारी कर दी.
वहीं भारत में जो खालिस्तान आंदोलन चल रहा था और जिसे कुचलने के लिए इंदिरा गांधी हर मुमकिन कोशिश कर रही थीं, उसे कनाडा में बैठे खालिस्तानी समर्थक पूरे सिख समुदाय पर अत्याचार बताकर प्रसारित कर रहे थे और कनाडा में बैठे सिखों को भारत की जमीनी हकीकत का पता भी नहीं चल पा रहा था. इस बीच भारत में इंदिरा गांधी के आदेश पर ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, जिसमें भारत का सबसे बड़ा खालिस्तानी आतंकी जनरैल सिंह भिंडरावाले मारा गया. उसकी मौत का बदला लेने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक की हत्या कर दी गई. इसके बाद पूरे देश में सिख विरोधी दंग भड़क गए, जिसमें कम से कम 3000 सिखों की हत्या कर दी गई और लाखों सिखों को घर-बार छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा.
अलग खालिस्तान की मांग करने वाले चरमपंथी सिखों के एक गुट ने इस समझौते को मानने से इनकार कर दिया. ये वो लोग थे, जो खुले तौर पर भिंडरावाले को अपना आदर्श मानते थे और उसके अधूरे काम यानी कि अलग खालिस्तान की मांग को मनवाने के लिए किसी भी हद से गुजरने को तैयार थे. इनमें से ही एक संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल भी था, जो 1978 में तब बना था, जब भिंडरावाले का सिखों के दूसरे समूह निरंकारियों के साथ खूनी टकराव चल रहा था. भिंडरावाले की मौत के बाद बब्बर खालसा ने कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन और भारत के कुछ हिस्सों से अलग खालिस्तान की मांग को बल देना शुरू किया. कनाडा में बब्बर खालसा का नेता वही खालिस्तानी आतंकी तलविंदर सिंह परमार था, जो पुलिसवालों की हत्या कर कनाडा फरार हो गया था. उसने ऐलान किया था कि अब खालिस्तान भारत के हवाई जहाजों को निशाना बनाना शुरू करेगा.
इस ऐलान के करीब एक साल बाद खालिस्तानी आतंकियों ने एयर इंडिया के प्लेन कनिष्क को कनाडा में निशाना बनाया. मांट्रियल-लंदन-दिल्ली-बॉम्बे के लिए चली एयर इंडिया की फ्लाइट संख्या 182 कनिष्क को 23 जून 1985 को आयरलैंड में बम विस्फोट करके उड़ा दिया गया. इसमें सवार कुल 329 लोग मारे गए, जिसमें 268 लोग कनाडा के थे, 27 ब्रिटिश थे और 24 भारतीय थे. इसी दिन जापान की राजधानी टोक्यो के नारिता एयरपोर्ट पर भी धमाका हुआ, जो एक लगेज बॉम्ब था और जिसे एयर इंडिया की ही फ्लाइट में रखा जाना था. इस बम धमाके में लगेज लेकर जा रहे दो लोगों की मौत हो गई थी. इन दोनों ही धमाकों के लिए जिम्मेदार था बब्बर खालसा, जो भारत के अलावा सबसे ज्यादा कनाडा में सक्रिय था.
भिंडरावाले के मारे जाने के बाद पंजाब में खालिस्तान समर्थकों का सबसे बड़ा हमला हुआ था 1995 में. तब पंजाब के मुख्यमंत्री थे बेअंत सिंह, जो कांग्रेस नेता थे. 31 अगस्त, 1995 को बब्बर खालसा के आत्मघाती दस्ते ने पंजाब के मुख्यमंत्री की ही हत्या कर दी. हालांकि ये भी कहा जाता है कि बेअंत सिंह की हत्या खालिस्तान समर्थक दूसरे गुट खालिस्तान कमांडो फोर्स ने की थी. लेकिन इस हत्या के बाद पंजाब में धीरे-धीरे खालिस्तान समर्थकों की संख्या में कमी आने लगी. पुलिस की सख्ती भी इसमें अहम थी. वक्त के साथ इस मुद्दे पर धूल जमती गई, जिसने 1981 से 1995 के बीच 21 हजार से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली थी, जिसमें देश के प्रधानमंत्री से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री तक शामिल थे.
कनाडा में इस मुद्दे पर कभी धूल नहीं जम पाई. इसकी वजह है कनाडा की चुनावी राजनीति, जिसमें सिख अब अहम भूमिका में हैं. अब कनाडा में हर वैशाखी पर करीब एक लाख पगड़ीधारी सिख एक जगह इकट्ठा होते हैं, तो कनाडा के नेता उनके खिलाफ इसलिए नहीं बोलते हैं कि वो उनके संभावित वोटर हैं. लिहाजा सिखों में भी कुछ चुनिंदा खालिस्तानी समर्थकों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और जिसका नतीजा ये होता है कि कनाडा में खुलकर कभी खालिस्तान का विरोध हो नहीं पाता है. वहीं 1980 के दशक में भारत में खालिस्तान विरोधी सख्ती के दौरान जो लोग भागकर कनाडा गए और जिन्हें पियरे ट्रूडो का साथ मिला, वो अब भी उन पुरानी कहानियों को सुनाकर कनाडा के सिखों को भड़काते रहते हैं. और कुछ हैं जो उन बातों से भड़क जाते हैं. नतीजा ये है कि जो खालिस्तान सिर्फ और सिर्फ भारत का मुद्दा था, वो भारत में खत्म हो गया है और अब कनाडा में बैठे कुछ खालिस्तानी आतंकी उस मुद्दे को भड़काकर कनाडा की राजनीति में दखल देते रहते हैं.
यही वजह है कि जब साल 2002 में कनाडा के टोरंटो में सांझ-सवेरा मैगजीन में इंदिरा गांधी की हत्या होते हुए फोटो छापी गई और लिखा गया कि पापियों की हत्या करने वाले शहीदों को नमन तो उस वक्त कनाडा सरकार ने कोई आपत्ति तो नहीं ही जताई, उल्टे उस पत्रिका को सरकारी विज्ञापन देना शुरू कर दिया. फिर 2007 में कनाडा के सरे में वैशाखी के दिन परेड निकली तो उसमें कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के प्रतिनिधि और विपक्षी पार्टी के प्रतिनिधि भी मौजूद थे, लेकिन इसी रैली में एयर इंडिया के प्लेन कनिष्क में बम धमाके कर 329 लोगों की हत्या करने वाले तलविंदर सिंह परमार की मालाओं से लदी तस्वीरों को लहराने पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई बल्कि ये सभी बड़े-बड़े नेता इसी तलविंदर सिंह परमार के बेटे के साथ मंच शेयर कर रहे थे. यही वजह है कि जब जस्टिन ट्रूडो कनाडा के प्रधानमंत्री बनते हैं तो कहते हैं कि उनकी कैबिनेट में भारत की सरकार के कैबिनेट से ज्यादा सिख मंत्री हैं.
ये वोट बैंक की पॉलिटिक्स ही है, जिसने भारत में खत्म हो चुके एक मुद्दे को कनाडा में इस कदर जिंदा रखा है कि खालिस्तान के मुद्दे पर कनाडा के राजनीतिज्ञ या तो चुप्पी साध लेते हैं या फिर उसके समर्थन में खड़े हो जाते हैं. और नतीजा ये है कि अब कनाडा भारत से भी बड़ा खालिस्तानियों का अड्डा बन गया है, जिसकी वजह से जस्टिन ट्रूडो ने भारत के साथ अपने रिश्ते इस कदर खराब कर लिए हैं कि उन्हें सुधारने में ट्रूडो के उत्तराधिकारियों को खासी मशक्कत करनी होगी.
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